अतिरिक्त >> आराधना आराधनासूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
|
2 पाठकों को प्रिय 248 पाठक हैं |
जीवन में सत्य, सुंदर को बखानती कविताएँ
हिन्दी-जगत को ‘आराधना’ और उसके स्रष्टा के परिचय की आवश्यकता नहीं है। जीवन में जो कुछ सत्य, सुन्दर और मंगलमय है, वही निराला का आराध्य रहा है। ‘आराधना’ भी उसी जीवनव्यापी अर्चन की एक कड़ी है।
अविश्वास के इस अन्धकार युग में ‘आराधना’ के स्वर दीपक-राग की भाँति संगीत और आलोक की समन्वित सृष्टि करने में समर्थ होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
- महादेवी
कार्तिकी पूर्णिमा, सं. २०१०
आराधना
अनुक्रम
- आराधना
- पद्मा के पद को पाकर हो
- दुख के सुख जियो, पियो ज्वाला
- धाये धाराधर धावन हे !
- आयी कल जैसी पल
- कमल-कमल युगपदतल
- मरा हूँ हजार मरण
- अरघान की फैल
- रँग रँग से यह गागर भर दो
- छेड़ दे तार तू पुनर्वार
- आज मन पावन हुआ है
- सुख के दिन भी याद तुम्हारी
- कृष्ण कृष्ण राम राम
- उर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र
- कामरूप, हरो काम
- हार गया
- द्वार पर तुम्हारे
- नील नील पड़ गये प्राण वे
- छोटा हो तो जी छोटा कर
- साँझ के माझ के प्राण-धन धारिए
- राम के हुए तो बने काम
- विपदा हरण हार हरि हे करो पार
- दुखता रहता है अब जीवन
- ओस पड़ी, शरद् आयी
- मेरी सेवा ग्रहण करो हे
- जब तू रचना में हँस दी
- हिम के आतप के तप झुलसो
- नहीं रहते प्राणों में प्राण
- दुख हर दे, जल-शीतल सर दे
- सुख का दिन डूबे डूब जाय
- छलके छल के पैमाने क्या
- सूने हैं साज आज
- (जब) हाय समायी है
- हे मानस के सकाल
- मारकर हाथ भव-वारिधि तरो, प्राण
- सत्य पाया जहाँ जग ने
- बाँधो रस के निर्झर
- मेरा फूल न कुम्हला पाये
- पालो तुम सकल शकल
- तप के बन्धन बाँधो, बाँधो
- जावक-जय चरणों पर छायी
- पल-प्रकाश को शाश्वत कर
- पार-पारावार जो है
- बात न की तो क्या बन आती?
- मानव के तन केतन फहरे
- नील नयन, नील पलक
- मन का समाहार
- हँसो मेरे नयन
- अशरण-शरण राम
- जीकर जो प्राण न मार सके
- तुमसे लाग लगी जो मन की
- हरि-भजन करो भू-भार हरो
- दुख भी सुख का बन्धु बना
- काल स्रोत्र में मेरे प्रियजन
- ज्योति प्रात, ज्योति रात
- नाचो हे, रुद्रताल
- नहीं घर-घर गेह अब तक
- सीधी राह मुझे चलने दो
- कुंजों की रात प्रभात हुई
- चल समीर, चल कलिदल
- वही चरण शरण बने
- लो रूप, लो नाम
- भग्न तन, रुग्ण मन
- वन उपवन खिल आयीं कलियाँ
- रँगे जग के फलक
- भवन, भुवन हो गया
- छोटी तरणी
- जय अजेय अप्रमेय
- रहते दिन दीन शरण भज ले
- तिमिर हरण तरणितरण किरण वरण हे
- बाँसुरी जो बजी
- सजी क्या तन तुम्हारे लिए है प्रमन
- ऊँट बैल का साथ हुआ है
- मानव जहाँ बैल-घोड़ा है
- खेत जोतकर घर आये हैं
- महकी साड़ी
- जैसे जोबन
- बान कूटता है
- भरी तन की भरन
- रमणी न रमणीय
- खिरनी के पेड़ के तले
- आँखें जहाँ प्रेमिका की थीं
- मन न मिले न मिले हरि के पद
- क्षीण भी छाँह तुमने छीनी
- रँग गये साँवले नयन अली के
- आँख उधर रँग भर गये थे
- गगन वीणा बजी
- ज्ञान की तेरी तुरी है
- जीवन के मधु से भर दो मन
- हारता है मेरा मन विश्व के समर में जब
- गत शत पथ पर
- अभय शंख बजा तुम्हारा विश्व में
- दे सकाल, काल, देश
- निर्झर केशर के शर के हैं
- गोरे अधर मुसकायी
- सभी तुम्हारे जीते, हारे
- यह गाढ़ तन, आषाढ़ आया
- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
|