अतिरिक्त >> आराधना आराधनासूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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जीवन में सत्य, सुंदर को बखानती कविताएँ
यह गाढ़ तन, आषाढ़ आया
यह गाढ़ तन, आषाढ़ आया, दाह दमक लगी, जगी री,
रैन चैन नहीं कि बैरिन नयन नीर-नदी बही।
अति स्नेह करके गेह छोड़ा, स्नेह के दिन गिन रही;
कह कौन मेरी पीर जाने, हरे हरि के बिना भी!
फिर लगा सावन सुमन भावन, झूलने घर-घर पड़े;
सखि, चीर सारी की सँवारी झूलती, झोंके बड़े।
बन मोर चारों ओर बोले, पपीहे पी-पी-रटे,
ये बोल सुनकर प्राण डोले, ज्ञान भी मेरे हटे।
फिर भरा भादों धरा भीगी, नदी उफनाई हुई,
री, पड़ी जी की, प्राण-पी की सुधि न जो आई हुई!
कर फूल-माला-थाल, सखियाँ तीज पूजन को चलीं,
वर बजे बाजे, द्वारा साजे, भक्ति से पति की गली!
खर कार कन्त विदेश छाये, कनक ही के वश हुए,
कह कौन सी परतीति जो कि शपथ, कर मेरे छुए;
शुभ रामलीला, सुकरशीला नगर-नगर जगी हुई,
दो-पितर-देवी-पाख बीते नयन मुहर लगी हुई।
।। समाप्त ।।
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