मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री
|
3 पाठकों को प्रिय 272 पाठक हैं |
चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
Chandrakanta Santati - 1
देवकीनन्दन खत्री
जन्मस्थान मुजफ्फरपुर (बिहार)।
बाबू देवकीनन्दन खत्री के पिता लाला ईश्वरदास के पुरखे मुल्तान और लाहौर में बसते-उजड़ते हुए काशी आकर बस गए थे। इनकी माता मुजफ्फरपुर के रईस बाबू जीवनलाल महता की बेटी थीं। पिता अधिकतर ससुराल में ही रहते थे। इसी से इनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के अधिसंख्य़ दिन मुजफ्फरपुर में ही बीते।
हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा भी ननिहाल में हुई। फारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरु में उसे नहीं पढ़ सके। इसके बाद अठारह वर्ष की अवस्था में, जब गया स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फारसी और अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। 24 वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलो का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।
स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश किस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखने-वाले। विचित्रता और रोमांचप्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और उर्वर, कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी।
चन्द्रकान्ता पहला ही उपन्यास, जो सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। सितम्बर 1898 में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति (छः भाग) के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री की अन्य रचनाएँ हैं नरेन्द्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेन्द्र वीर या कटोरा-भर खून, काजल की कोठरी, गुप्त गोदना तथा भूतनाथ (प्रथम छः भाग)।
चन्द्रकान्ता की रहस्यमयी कहानी का अगला भाग चन्द्रकान्ता सन्तति में, छः खण्डों में...
चन्द्रकान्ता सन्तति - 1
नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के लड़के बीरेन्द्रसिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जयसिंह की लड़की चन्द्रकान्ता के साथ हो गयी। बारात-वाले दिन तेजसिंह की आखिरी दिल्लगी के सबब चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पड़ा। बहुतों की यह राय हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ इसलिए अब इनको कैद ही में रखना मुनासिब है, मगर महाराज सुरे्न्द्रसिंह ने इस बात को नापसन्द करके कहा कि ‘महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेजसिंह से उनकी लड़ाई हो गयी, यह हमारे साथ वैर रखने का सबूत नहीं हो सकता। आखिर महाराज शिवदत्त क्षत्रिय हैं, जब तेजसिंह उनकी सूरत बन बेइज्जती करने पर उतारू हो गए तो यह देखकर भी वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे ? मैं यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्तका दिल हम लोगों की तरफ से बिल्कुल साफ हो गया क्योंकि अगर उनका दिल साफ ही हो जाता तो इस बात को छिपकर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी ? तो भी यह समझकर कि तेजसिंह के साथ इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी के सबब नहीं कही जा सकती, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अब भी ये हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, ये भी मर्द हैं और हम भी मर्द हैं, देखा जाएगा’।
महाराज शिवदत्त फिर छूटकर कहाँ चले गए। वीरेन्द्रसिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह की राय से चपला की शादी तेजसिंह के साथ और चम्पा की शादी देवीसिंह के साथ की गयी। चम्पा दूर के नाते में चपला की बहिन होती थी।
बाकी सब ऐयारों की शादी भी हुई थी। उन लोगों की घर-गृहस्थी चुनार ही में थी, अदल-बदल करने की जरूरत न पड़ी क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुँवर बीरेन्द्रसिंह चुनार की गद्दी पर बैठाए गए और कुँअर छोड़ राजा कहलाने लगे। तेजसिंह उनके राजदीवान मुकर्रर हुए और इसलिए सब ऐयारों को भी चुनार ही में रहना पड़ा।
सुरेन्द्रसिंह अपने लड़के को आँखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गद्दी फतहसिंह के सुपुर्द कर वे भी चुनार ही रहने लगे, मगर राज्य का काम बिल्कुल बीरेन्द्रसिंह के जिम्मे था, हाँ कभी-कभी राय दे देते थे। तेजसिंह के साथ जीतसिंह भी बड़ी आजादी के साथ चुनार में रहने लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह में बहुत मुहब्बत थी और यह मुहब्बत दिन-दिन बढ़ती गयी। असल में जीतसिंह इसी लाय़क थे कि उनकी जितनी कदर की जाती थोड़ी थी। शादी के दो बरस बाद चन्द्रकान्ता को लड़का पैदा हुआ। उसी साल चपला और चम्पा को भी लड़का पैदा हुआ। इसके तीन बरस बाद चन्द्रकान्ता ने दूसरे लड़के का मुख देखा। चन्द्रकान्ता के बड़े लड़के का नाम इन्द्रजीतसिंह, छोटे का नाम आनन्दसिंह, चपला के लड़के का नाम भैरोसिंह और चम्पा के लड़के का नाम तारासिंह रखा गया।
जब ये चारो लड़के कुछ बड़े और बातचीत करने लायक हुए तब इनके लिखने-पढ़ने और तालीम का इन्तजाम किया गया और राजा सुरेन्द्रसिंह ने इन चारों लड़को को जीतसिंह की शागिर्दी और हिफाजत में छोड़ दिया। भैरोसिंह और तारासिंह ऐयारी के फन में बड़े तेज और चालाक निकले। इनकी ऐयारी का इम्तिहान बराबर लिया जाता था। जीतसिंह का हुक्म था कि भैरोंसिंह और तारासिंह कुल ऐयारों को बल्कि अपने बाप तक को धोखा देने की कोशिश करें और इसी तरह पन्नालाल वगैरह ऐयार भी उन दोनों लड़को को भुलावा दिया करें। धीरे-धीरे ये दोनों लड़के इतने तेज और चालाक हो गए कि पन्नालाल वगैरह की ऐयारी इनके सामने दब गई।
भैरोंसिंह और तारासिंह, इन दोनों में चालाक ज्यादे कौन था इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, आगे मौका पड़ने पर आप ही मालूम हो जाएगा, हाँ इतना कह देना जरूरी है कि भैरोसिंह को इंद्रजीतसिंह के साथ और तारासिंह को आनन्दसिंह के साथ ज्यादे मुहब्बत थी।
चारों लड़के होशियार हुए अर्थात इन्द्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह की उम्र अठ्ठारह वर्ष की और आनन्दसिंह की उम्र पन्द्रह वर्ष की हुई। इतने दिनों तक चुनार राज्य में बराबर शान्ति रही बल्कि पिछली तकलीफें और महाराज शिवदत्त की शैतानी एक स्वप्न की तरह सभों के दिल में रह गयी।
इन्द्रजीतसिंह को शिकार का बहुत शौक था, जहां तक बन पड़ता वे रोज शिकार खेला करते। एक-दिन किसी बनरखे ने हाजिर होकर बयान किया कि इन दिनों फलाने जंगल की शोभा खूब बढ़ी-चढ़ी है और शिकार के जानवर भी इतने आये हुए हैं कि अगर वहां महीना-भर टिककर शिकार खेला जाए तो भी न घटे और कोई दिन खाली न जाए। यह सुन दोनों भाई बहुत खुश हुए। आपने बाप राजा बीरेन्द्रसिंह से शिकार खेलने की इजाजत माँगी और कहा कि ‘हम लोगों का इरादा आठ दिन तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का है’। इसके जवाब में राजा बीरेन्द्रसिंह ने कहा कि ‘इतने दिनों तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का हुक्म मैं नहीं दे सकता-अपने दादा से पूछो अगर वे हुक्म दें तो कोई हर्ज नहीं।
यह सुनकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने आपने दादा महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास जाकर अपना मतलब अर्ज किया। उन्होंने खुशी से मंजूर किया और हुक्म दिया कि शिकारगाह में इन दोनों के लिए खेमा खड़ा किया जाए और जब तक ये शिकारगाह में रहें पाँच सौ फौज बराबर इनके साथ रहे।
शिकार खेलने का हुक्म पा इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह बहुत खुश हुए और अपने दोनों ऐयार भैरोसिंह और तारासिंह को साथ ले मय पाँच सौ फौज के चुनार से रवाना हुए।
अनुक्रम
|