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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह अभी तक उस रमणीक स्थान में विराज रहे हैं। जी कितना ही बेचैन क्यों न हो मगर उन्हें लाचार माधवी के साथ दिन काटना ही पड़ता है। ख़ैर जो होगा देखा जायेगा। मगर इस समय दो-पहर दिन बाक़ी रहने पर भी कुँअर इन्द्रजीतसिंह कमरे के अन्दर सुनहले पावों की चारपाई पर आराम कर रहे हैं और एक लौंडी धीरे-धीरे पंखा झल रही है। हम ठीक नहीं कह सकते कि उन्हें नींद दबाये हुए है या जान-बूझकर बहठियाये पड़े हैं और अपनी बदकिस्मती के जाल को सुलझाने की तरकीब सोच रहे हैं। ख़ैर इन्हें इसी तरह पड़े रहने दीजिए और आप ज़रा तिलोत्तमा के कमरे में चलकर देखिए कि वह माधवी के साथ किस तरह की बातचीत कर रही है। माधवी का हँसता हुआ चेहरा कहे देता है कि बनिस्बत और दिनों के आज वह खुश है, मगर तिलोत्तमा के चेहरे से किसी तरह की खुशी नहीं मालूम होती।’’

माधवी ने तिलोत्तमा का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘सखी, आज तुझे उतना खुश नहीं पाती हूँ,, जितना मैं खुद हूँ।’’

तिलोत्तमा : तुम्हारा खुश होना बहुत ठीक है!

माधवी : तो क्या तुम्हें इस बात की खुशी नहीं कि किशोरी मेरे फन्दे में फँस गयी और एक क़ैदी की तरह मेरे यहाँ तहख़ाने में बन्द है!

तिलोत्तमा : इस बात की तो मुझे भी खुशी है।

माधवी : तो रंज किस बात का है? हाँ समझ गयी, अभी तक ललिता के लौटकर न आने का बेशक तुम्हें दुःख होगा।

तिलोत्तमा : ठीक है, मैं ललिता के बारे में बहुत कुछ सोच रही हूँ। मुझे तो विश्वास हो गया है कि उसे कमला ने पकड़ लिया।

माधवी : तो उसे छुड़ाने की फ़िक्र करना चाहिए।

तिलोत्तमा : मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि उसे छुड़ाने के लिए जाऊँ क्योंकि मेरे हाथ-पैर किसी दूसरे ही तरद्दुद ने बेकार कर दिये हैं जिसकी तुम्हें ज़रा भी ख़बर नहीं, अगर ख़बर होती तो आज तुम्हें भी अपनी ही तरह उदास पाती।

तिलोत्तमा की इस बात ने माधवी को चौंका दिया और वह घबड़ा कर तिलोत्तमा का मुँह देखने लगी।

तिलोत्तमा : मुँह क्या देखती है, मैं झूठ नहीं कहती। तू तो अपने ऐश-आराम में ऐसी मस्त हो रही है कि दीन-दुनिया की ख़बर नहीं। तू जानती ही नहीं कि दो ही चार दिन में तुझ पर कैसी आफ़त आनेवाली है। क्या तुझे विश्वास हो गया कि किशोरी तेरी क़ैद में रह जायगी, कुछ बाहर की भी ख़बर है कि क्या हो रहा है? क्या बदनामी उठाने के लिए तू गया का राज्य कर रही है? मैं पचास दफे तुझे समझा चुकी कि अपनी चाल-चलन को दुरुस्त कर मगर तैने एक न सुनी, लाचार तुझे तेरी मर्जी पर छोड़ दिया और प्रेम के सबब तेरा हुक़्म मानती आयी मगर अब मेरे सम्हाले नहीं सम्हलता!

माधवी : तिलोत्तमा, आज तुझे क्या हो गया जो इतना कूद रही है? ऐसी कौन सी आफ़त आ गयी है जिसने तुझे बदहवास कर दिया है? क्या तू नहीं जानती कि दीवान साहब इस राज्य का इन्तजाम कैसी अच्छी तरह कर रहे हैं और सेनापति तथा कोतवाल अपने काम में कितने होशियार हैं? क्या इन लोगों के रहते हमारे राज्य में कोई विघ्न डाल सकता है?

तिलोत्तमा : यह ज़रूर ठीक है इन तीनों के रहते कोई इस राज्य में विघ्न नहीं डाल सकता, लेकिन तुझे तो इन्हीं तीनों की ख़बर नहीं! कोतवाल साहब जहन्नुम में चले ही गये, दीवान साहब और सेनापति साहब भी आजकल में जाया चाहते हैं बल्कि चले भी गये हों तो ताज्जुब नहीं।

माधवी : यह तू क्या कह रही है?

तिलोत्तमा : जी हाँ, मैं बहुत ठीक कहती हूँ। बिना परिश्रम ही यह राज्य बीरेन्द्रसिंह का हुआ चाहता है। इसीलिए कहती थी कि इन्द्रजीतसिंह को अपने यहाँ मत फँसा, उनके एक-एक ऐयार आफ़त के परकाले हैं। मैं कई दिनों से उन लोगों की कार्रवाई देख रही हूँ। उन लोगों को छेड़ना ऐसा है जैसा आतिशबाज़ी की चरख़ी में आग लगा देना।

माधवी : क्या बीरेन्द्रसिंह को पता लग गया कि उनका लड़का यहाँ क़ैद है?

तिलोत्तमा : पता नहीं लगा तो इसी तरह उनके ऐयार सब यहाँ पहुँचकर उधम मचा रहे हैं?

माधवी : तो तूने मुझे ख़बर क्यों न की?

तिलोत्तमा : क्या ख़बर करती, तुझे इस ख़बर को सुनने की छुट्टी भी है!

माधवी : तिलोत्तमा, ऐसी जली-कटी बातों का कहना छोड़ दे और मुझे ठीक-ठीक बता कि क्या हुआ और क्या हो रहा है? सच पूछ तो मैं तेरे ही भरोसे कूद रही हूँ। मैं खूब जानती हूँ कि सिवाय तेरे मेरी रक्षा करनेवाला कोई नहीं। मुझे विश्वास था कि इन चार पहाड़ियों के बीच में जब तक मैं रहूँ मुझ पर किसी तरह की आफ़त न आवेगी, मगर अब तेरी बातों से यह उम्मीद बिलकुल जाती रही।

तिलोत्तमा : ठीक है, तुझे अब ऐसा भरोसा न रखना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि मैं तेरे लिए जान देने को तैयार हूँ, मगर तू ही बता कि बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के सामने मैं क्या कर सकती हूँ, एक बेचारी ललिता मेरी मददगार थी, सो वह भी किशोरी को फँसाने में आप पकड़ी गयी, अब अकेली मैं क्या-क्या करूँ?

माधवी : तू सबकुछ कर सकती है हिम्मत मत हार, हाँ यह तो बता कि बीरेन्द्रसिंह के ऐयार यहाँ क्योंकर आये और अब क्या कर रहे हैं?

तिलोत्तमा : अच्छा सुन मैं सबकुछ कहती हूँ। यह तो मैं नहीं जानती कि पहिले पहिल यहाँ कौन आया, हाँ जब से चपला आयी है तब से मैं थोड़ा बहुत हाल जानती हूँ।

माधवी : (चौंककर) क्या चपला यहाँ पहुँच गयी?

तिलोत्तमा : हाँ पहुँच गयी, उसने यहाँ पहुँचकर उस सुरंग की दूसरी ताली भी तैयार कर ली जिस राह से तू आती-जाती है और जिसमें मैंने किशोरी को क़ैद कर रक्खा है। एक रात को जब तू इन्द्रजीतसिंह को सोता छोड़ दीवान साहब से मिलने के लिए गयी थी तो वह चपला भी इन्द्रजीतसिंह को साथ ले अपनी ताली से सुरंग का ताला खोल तेरे पीछे-पीछे चली गयी और छिपकर तेरी और दीवान साहब की कैफ़ियत इन दोनों ने देख ली, यह न समझ कि इन्द्रजीतसिंह बेचारे सीधे-सादे हैं और तेरा हाल नहीं जानते, वे सबकुछ जान गये।

माधवी : (कुछ देर तक सोच में डूबी रहने के बाद) तैंने चपला को कैसे देखा?

तिलोत्तमा : मेरा बल्कि ललिता का भी कायदा है कि रात को तीन-चार दफे उठकर इधर-उधर घूमा करती हूँ। उस समय मैं अपने दालान में खम्भे की आड़ में खड़ी इधर-उधर देख रही थी जब चपला और इन्द्रजीतसिंह तेरा हाल देखकर सुरंग से लौटे थे। इसके बाद वे दोनों बहुत देर तक नहर के किनारे खड़े बातचीत करते रहे, बस उसी समय से मैं होशियार हो गयी और अपनी कार्रवाई करने लगी।

माधवी : इसके बाद भी कुछ हुआ?

तिलोत्तमा : हाँ बहुत कुछ हुआ, सुनो मैं कहती हूँ। दूसरे दिन मैं ललिता को साथ ले उस तालाब पर पहुँची, देखा कि बीरेन्द्रसिंह के कई ऐयार वहाँ बैठे बातचीत कर रहे हैं। मैंने छिपकर उनकी बातचीत सुनी। मालूम हुआ कि वे लोग दीवान साहब, सेनापति और कोतवाल साहब को गिरफ़्तार किया चाहते हैं। मुझे उस समय एक दिल्लगी सूझी। जब वे लोग राय पक्की करके वहाँ से जाने लगे, मैंने वहाँ से कुछ दूर हटकर एक छींक मारी और दूर भाग गयी।

माधवी : (मुस्कुराकर) वे लोग घबड़ा गये होंगे!

तिलोत्तमा : बेशक घबड़ाये होंगे, उसी समय गाली-गुफ्ता करने लगे, मगर हम दोनों ने वहाँ ठहरना पसन्द नहीं किया।

माधवी : फिर क्या हुआ?

तिलोत्तमा : मैंने तो सोचा था कि वे लोग मेरी छींक से डरकर अपनी कार्रवाई रोकेंगे मगर ऐसा न हुआ। दो ही दिन की मेहनत में उन लोगों ने कोतवाल को गिरफ़्तार कर लिया, भैरोसिंह और तारासिंह ने उन्हें बुरा धोखा दिया।

इसके बाद तिलोत्तमा ने कोतवाल साहब के गिरफ़्तार होने का पूरा हाल जैसा हम ऊपर लिख आये हैं माधवी से कहा, साथ ही उसने यह भी कह दिया कि दीवान साहब को भी गुमान हो गया कि तूने किसी मर्द को यहाँ लाकर रक्खा है और उसके साथ आनन्द कर रही है

तिलोत्तमा की जुबानी सब हाल सुनकर माधवी सोच-सागर में गोते लगाने लगी और आधे घण्टे तक उसे तनोबदन की सुध न रही, इसके बाद उसने अपने आप को सम्हाला और फिर तिलोत्तमा से बातचीत करना आरम्भ किया।

माधवी : ख़ैर जो हुआ सो हुआ, यह बता कि अब क्या करना चाहिए?

तिलोत्तमा : मुनासिब तो यही है कि इन्द्रजीतसिंह और किशोरी को छोड़ दो, तब फिर तुम्हारा कोई कुछ न बिगाड़ेगा।

माधवी : (तिलोत्तमा के पैरों पर गिरकर और रोकर) ऐसा न कहो, अगर मुझ पर तुम्हारा सच्चा प्रेम है तो ऐसा करने के लिए ज़िद्द न करो, अगर मेरा सिर चाहो तो काट लो मगर इन्द्रजीतसिंह को छोड़ने के लिए मत कहो।

तिलोत्तमा : अफ़सोस की इन बातों की ख़बर दीवान साहब को भी नहीं कर सकती, बड़ी मुश्किल है, अच्छा मैं उद्योग करती हूँ मगर निश्चय नहीं कर सकती कि क्या होगा?

माधवी : तुम चाहोगी तो सब काम हो जायगा।

तिलोत्तमा : पहिले तो मुझे ललिता को छुड़ाना मुनासिब है।

माधवी : अवश्य।

तिलोत्तमा : हाँ एक काम इसके पहिले भी करना चाहिए नहीं तो किशोरी दो ही दिन में यहाँ से गायब हो जायगी और ताज्जुब नहीं कि धड़धड़ाते हुए बीरेन्द्रसिंह के कई ऐयार यहाँ पहुँच जाँय और मनमानी धूम मचावें।

माधवी : शायद तुम्हारा मतलब उस पानी वाली सुरंग को बन्द कर देने से हो?

तिलोत्तमा : हाँ।

माधवी : मैं भी यही मुनासिब समझती हूँ। मैं सोचती हूँ कि ज़रूर कोई ऐयार उस रोज़ उसी पानी वाली सुरंग की राह से यहाँ आया था जिसकी देखा-देखी इन्द्रजीतसिंह उस सुरंग में घुसे थे, मगर बेचारे पानी में आगे न जा सके और लौट आये, तुम ज़रूर उस सुरंग को अच्छी तरह बन्द कर दो जिसमें कोई ऐयार उस राह से आने-जाने न पावे। तुम लोगों के लिए वह रास्ता हई है जिधर से मैं आती हूँ। हाँ एक बात और है, तुम अपने पिता को मेरी मदद के लिए क्यों नहीं ले आतीं, उनसे और मेरे पिता से बड़ी दोस्ती थी मगर अफ़सोस, आजकल मुझसे बहुत रंज हैं!

तिलोत्तमा : मैं कल उनके पास गयी थी पर वे किसी तरह नहीं मानते, तुमसे बहुत ही ज़्यादे रंज हैं, मुझ पर बहुत बिगड़ते थे, अगर मैं तुरन्त न चली आती तो बेइज्जती के साथ निकलवा देते, अब मैं उनके पास कभी न जाऊँगी।

माधवी : ख़ैर जो कुछ किस्मत में है भोगूँगी। अच्छा अब तो सभों की आमदरफ़्त इसी सुरंग से होगी, तो किशोरी को वहाँ से निकाल किसी दूसरी जगह रखना चाहिए।

तिलोत्तमा : उस सुरंग से बढ़कर कौन-सी ऐसी जगह है जहाँ उसे रक्खोगी, दीवान साहब का भी तो डर है!

थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही इसके बाद इन्द्रजीतसिंह के सोकर उठने की ख़बर आयी। शाम भी हो चुकी थी, माधवी उठकर उनके पास गयी और तिलोत्तमा पानीवाली सुरंग को बन्द करने की फ़िक्र में लगी।

पाठक, इस जगह मामला बड़ा ही गोलमाल हो गया। तिलोत्तमा ने चालाकी से बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों की कार्रवाई देख ली। माधवी और तिलोत्तमा की बातचीत से आप यह भी जान गये होंगे कि बेचारी किशोरी उसी सुरंग में क़ैद की गयी है जिसकी ताली चपला ने बनायी थी या जिस सुरंग की राह चपला और कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने माधवी के पीछे जाकर यह मालूम कर लिया था कि वह कहाँ जाती है। उस सुरंग की दूसरी ताली तो मौजूद ही थी, किशोरी को छुड़ाना चपला के लिए कोई बड़ी बात न थी, अगर तिलोत्तमा होशियार होकर उस आने-जानेवाली राह अर्थात् पानीवाली सुरंग को जिसमें इन्द्रजीतसिंह गये थे और आगे जलमय देखकर लौट आये थे पत्थर के ढोंको से मज़बूती के साथ बन्द न कर देती। कुँअर इन्द्रजीतसिंह को मालूम हो ही गया था कि हमारे ऐयार लोग इसी राह से आया जाया करते हैं, अब उन्होंने अपनी आँखों से यह भी देख लिया कि यह सुरंग बखूबी बन्द कर दी गयी। उनकी नाउम्मीदी हर तरह से बढ़ने लगी, उन्होंने समझ लिया कि अब चपला से मुलाक़ात न होगी और बाहर हमारे छुड़ाने के लिए क्या-क्या तरकीब हो रही है—इसका पता भी बिल्कुल न लगेगा। सुरंग की नयी ताली जो चपला ने बनायी थी वह उसी के पास थी, तो भी इन्द्रजीतसिंह ने हिम्मत न हारी, उन्होंने जी में ठान लिया कि अब जबर्दस्ती से काम लिया जायगा, जितनी औरतें यहाँ मौजूद हैं सभों की मुश्कें बाँध नहर के किनारे डाल देंगे और सुरंग की असली ताली माधवी के पास से लेकर सुरंग की राह माधवी के महल में पहुँचकर खून खराबी मचावेंगे। आख़िर क्षत्रियों को इससे बढ़कर लड़ने-भिड़ने और जान देने का कौन-सा समय हाथ लगेगा। मगर ऐसा करने के लिए सबसे पहिले सुरंग की ताली अपने कब्जे में कर लेना मुनासिब है, नहीं तो मुझे बिगड़ा हुआ देख जब तक मैं दो-चार औरतों की मुश्कें बाँधूँगा सब सुरंग की राह भाग जायेंगी, फिर मेरा मतलब जैसा मैं चाहता हूँ सिद्ध न होगा।

इन्द्रजीतसिंह ने सुरंग की ताली लेने के लिए बहुत कोशिश की मगर न ले सके क्योंकि अब वह ताली उस जगह से जहाँ पहिले रहती थी हटाकर किसी दूसरी जगह रख दी गयी थी।


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