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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

सातवाँ बयान


आपस में लड़नेवाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सुफेदी निकनले के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझकर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रक्खा रखना चाहती हैं, बहत खुश हुआ। कोतवाल साहब के गुमान में भी न था कि वे ऐयारों के फेर में पड़े हैं। उनको इन्द्रजीतसिंह के क़ैद होने और बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के यहाँ पहुँचने की ख़बर ही न थी। वह तो जिस तरह हमेशा रिआया लोगों के घर अकेले पहुँचकर तहक़ीक़ात किया करते थे उसी तरह आज भी सिर्फ दो अर्दली के सिपाहियों को साथ ले इन दोनों ऐयारों के फेर में पड़ घर से निकल पड़े थे।

कोतवाल साहब ने जब माधवी को पहिचाना तो अपने सिपाहियों को उसके सामने ले जाना मुनासिब न समझा और अकेले ही माधवी के पास पहुँचे। देखा कि हक़ीक़त में उन्हीं की तस्वीर सामने रक्खे माधवी उदास बैठी है।

कोतवाल साहब को देखते ही माधवी उठ खड़ी हुई और मुहब्बत भरी-निगाहों से उनकी तरफ़ देखकर बोली—

‘‘देखो मैं तुम्हारे लिए कितनी बेचैन हो रही हूँ पर तुम्हें ज़रा भी ख़बर नहीं!’’

कोतवाल : अगर मुझे यकायक इस तरह अपनी किस्मत के जागने की ख़बर होती तो क्या मैं लापरवाह बैठा रहता? कभी नहीं, मैं तो आप ही दिन-रात आपसे मिलने की उम्मीद में अपना खून सुखा रहा था।

माधवी : (हाथ का इशारा करके) देखो ये दोनों आदमी बड़े ही बदमाश हैं, इनको यहाँ से चले जाने के लिए कहो तो फिर हमसे तुमसे बातें होंगी।

इतना सुनते ही कोतवाल साहब ने उन दोनों भाइयों की तरफ़ जो हक़ीक़त में भैरोसिंह और तारासिंह थे, कड़ी निगाह से देखा और कहा, ‘‘तुम दोनों अभी-अभी यहाँ से भाग जाओ नहीं तो बोटी-बोटी काटकर रख दूँगा।’’

भैरोसिंह और तारासिंह वहाँ से चलते बने। इधर चपला जो माधवी की सूरत बनी हुई थी कोतवाल को बातों में फँसाये हुए वहाँ से दूर एक गुफा के मुहाने पर ले गयी और बैठकर बातचीत करने लगी।

चपला माधवी की सूरत तो बनी मगर उसकी और माधवी की उम्र में बहुत कुछ फ़र्क़ था। कोतवाल भी बड़ा धूर्त और चालाक था। सूर्य की चमक में जब उसने माधवी की सूरत अच्छी तरह देखी और बातों में भी कुछ फ़र्क़ पाया फौरन उसे खटका पैदा हुआ और वह बड़े गौर से उसे सिर से पैर तक देख अपनी निगाह के तराजू से तौलने और जाँचने लगा। चपला समझ गयी कि कोतवाल को शक पैदा हो गया, देर करना मुनासिब न जान उसने जफील (सीटी) बजायी। उसी समय गुफा के अन्दर से देवीसिंह निकल आये और कोतवाल साहब से तलवार रख देने के लिए कहा।

कोतवाल ने भी जो सिपाही और शेरदिल आदमी था बिना लड़े-भिड़े अपने को क़ैदी बना देना पसन्द न किया और म्यान से तलवार निकाल देवीसिंह पर हमला किया। थोड़ी ही देर में देवीसिंह ने उसे अपने खंजर से जख्मी किया और ज़मीन पर पटक उसकी मुश्कें बाँध डालीं।

कोतवाल साहब का हुक़्म पा भैरोसिंह और तारासिंह जब उनके सामने से चले गये तो वहाँ पहुचे जहाँ कोतवाल के साथी दोनों सिपाही खड़े अपने मालिक के लौट आने की राह देख रहे थे। इन दोनों ऐयारों ने इन सिपाहियों को अपनी मुश्कें बँधवाने के लिए कहा मगर उन्होंने इन दोनों को साधारण समझ मंजूर न किया और लड़ने-भिड़ने को तैयार हो गये। उन दोनों की मौत आ चुकी थी, आख़िर भैरोसिंह और तारासिंह के हाथ से मारे गये, मगर उसी समय बारीक आवाज़ में किसी ने इन दोनों ऐयारों को पुकार कर कहा, ‘‘ भैरोसिंह और तारासिंह, अगर मेरी ज़िन्दगी है तो बिना इसका बदला लिये न छोड़ूँगी!’’

भैरोसिंह ने उस तरफ़ देखा जिधर से आवाज़ आयी थी। एक लड़का भागता हुआ दिखायी पड़ा। ये दोनों उसके पीछे दौड़े मगर पा न सके क्योंकि उस पहाड़ी की छोटी-छोटी कन्दराओं और खोहों में न मालूम कहाँ छिप उसने इन दोनों के हाथ से अपने को बचा लिया।

पाठक समझ गये होंगे कि इन दोनों ऐयारों को पुकार कर चितानेवाली वही तिलोत्तमा है जिसने बात करते-करते माधवी से इन दोनों ऐयारों के हाथ कोतवाल के फँस जाने का समाचार कहा था।


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