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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


इस जगह हम उस तालाब का हाल लिखते हैं जिसका ज़िक्र कई दफ़े ऊपर आ चुका है, जिसमें एक औरत को गिरफ़्तार करने के लिए योगिनी और बनचरी कूदी थीं, या जिसके किनारे बैठ हमारे ऐयारों ने माधवी के दीवान, कोतवाल और सेनापति को पकड़ने के लिए राय पक्की की थी।

यही तालाब उस रमणीक स्थान में पहुँचने का रास्ता था जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह क़ैद हैं। इसका दूसरा मोहाना वही पानीवाली सुरंग थी जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह घुसे थे और कुछ दूर जाकर जलमयी देख लौट आये थे या जिसको तिलोत्तमा ने अब पत्थर के ढोंकों से बन्द करा दिया है।

जिस पहाड़ी के नीचे यह तालाब था उसी पहाड़ी के दूसरी तरफ़ वह गुप्त स्थान था जिसमें इन्द्रजीतसिंह क़ैद थे। इस राह से हर एक का आना मुश्किल था, हाँ ऐयार लोग अलबत्ता जा सकते थे जिनका दम खूब सधा हुआ था और तैरना बखूबी जानते थे, पर इस तालाब की राह से वहाँ तक पहुँचने के लिए कारीगरों ने एक सुबीता भी किया था। उस सुरंग से इस तालाब की जाट (लाट) तक भीतर-भीतर एक मज़बूत जंजीर लगी हुई थी जिसे थामकर यहाँ तक पहुँचने में बड़ा ही सुबीता होता था।

कोतवाल साहब को गिरफ़्तार करने के बाद कई दफे चपला ने चाहा कि इस तालाब की राह इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँचकर इधर के हाल-चाल की ख़बर करें मगर ऐसा न कर सकी क्योंकि तिलोत्तमा ने सुरंग का मुँह बन्द कर दिया था। अब हमारे ऐयारों को निश्चय हो गया कि दुश्मन सम्हल बैठा और उसको हम लोगों की ख़बर हो गयी। इधर कोतवाल साहब के गिरफ़्तार होने से और उनके सिपाहियों की लाश मिलने पर शहर में हलचल मच रही थी। दीवान साहब वग़ैरह इस खोज में परेशान हो रहे थे कि हम लोगों का दुश्मन ऐसा कौन आ पहुँचा जिसने कोतवाल साहब को गायब कर दिया।

कई रोज़ के बाद एक दिन आधी रात के समय भैरोसिंह, तारासिंह, पण्डित बद्रीनाथ, देवीसिंह और चपला इस तालाब पर बैठे आपुस में सलाह कर रहे थे और सोच रहे थे कि अब कुअँर इन्द्रजीतसिंह के पास किस तरह पहुँचा चाहिए और उनके छुड़ाने की क्या तरकीब करनी चाहिए।

चपला : अफ़सोस, मैंने जो ताली तैयार की थी वह अपने साथ लेती आयी, नहीं तो इन्द्रजीतसिंह उस ताली से ज़रूर कुछ-न-कुछ काम निकालते। अब हम लोगों का वहाँ तक पहुँचना बहुत मुश्किल हो गया।

बद्री : इस पहाड़ी के उस पार ही तो इन्द्रजीतसिंह हैं! चाहे यह पहाड़ी कैसी ही बेढब क्यों न हो मगर हम लोग उस पार पहुँचने के लिए चढ़ने-उतरने की जगह बना ही सकते हैं।

भैरो : मगर यह काम कई दिनों का है।

तारा : सबसे पहले इस बात की निगरानी करनी चाहिए कि माधवी ने जहाँ इन्द्रजीतसिंह को क़ैद कर रक्खा है वहाँ कोई ऐसा मर्द न पहुँचने पावे जो उन्हें सता सके, औरतें यदि पाँच सौ भी होंगी तो कुछ न कर सकेंगी।

देवी : कुँअर इन्द्रजीतसिंह ऐसे बोदे नहीं हैं कि यकायक किसी के फन्दे में आ जावें, मगर फिर भी हम लोगों को होशियार रहना चाहिए, आजकल में उन तक पहुँचने का मौका न मिलेगा तो हम इस घर को उजाड़ कर डालेंगे और दीवान साहब वग़ैरह को जहन्नुम में मिला देंगे।

भैरोसिंह : अगर कुमार को यह मालूम हो गया कि हम लोगों के आने जाने का रास्ता बन्द कर दिया गया तो वे चुप न बैठे रहेंगे, कुछ-न-कुछ फसाद ज़रूर मचावेंगे।

तारा : बेशक!

इसी तरह की बहुत-सी बातें वे लोग कर रहे थे कि तालाब के उस पार जल में उतरता हुआ एक आदमी दिखायी पड़ा। ये लोग टकटकी बाँध उसी तरफ़ देखने लगे। वह आदमी जल में कूदा और जाट के पास पहुँचकर गोता मार गया, जिसे देख भैरोसिंह ने कहा, ‘‘बेशक यह कोई ऐयार है जो माधवी के पास जाना चाहता है।’’

चपला : मगर यह माधवी का ऐयार नहीं है, अगर माधवी की तरफ़ का होता तो रास्ता बन्द होने का हाल इसे मालूम होता।

भैरो : ठीक है।

तारासिंहः अगर माधवी की तरफ़ का नहीं तो हमारे कुमार का पक्षपाती होगा।

देवी : वह लौटे तो अपने पास बुलाना चाहिए।

थोड़ी ही देर बाद वह आदमी जाट के पास जाकर निकला और जाट थाम ज़रा सुस्ताने लगा, कुछ देर बाद किनारे पर चला आया और तालाब के ऊपरवाले चौतरे पर बैठ कुछ सोचने लगा।

भैरोसिंह अपने ठिकाने से उठे और धीरे-धीरे उस आदमी की तरफ़ चले। जब उसने अपने पास किसी को आते देखा तो उठ खड़ा हुआ, साथ ही भैरोसिंह ने आवाज़ दी, ‘‘डरो मत, जहाँ तक मैं समझता हूँ तुम भी उसी की मदद किया चाहते हो जिसके छुड़ाने की फ़िक्र में हम लोग हैं।’’

भैरोसिंह के इतना कहते ही उस आदमी ने खुशी-भरी आवाज़ से कहा, ‘‘वाह वाह वाह, आप भी यहाँ पहुँच गये! सच पूछो तो यह सब फसाद तुम्हारा ही खड़ा किया होगा!’’

भैरो : जिस तरह मेरी आवाज़ तूने पहिचान ली उसी तरह तेरी मुहब्बत ने मुझे भी कह दिया कि तू कमला है।

कमला : बस बस, रहने दीजिए, आप लोग बड़े मुहब्बती हैं इसे मैं खूब जानती हूँ।

भैरो : जानती ही हो तो ज़्यादे क्या कहूँ?

कमला : कहने का मुँह भी तो हो?

भैरो : कमला, मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारे पास बैठा बातें ही करता रहूँ मगर इस समय मौका नहीं है क्योंकि (हाथ का इशारा करके) पण्डित बद्रीनाथ, देवीसिंह, तारासिंह और मेरी माँ वहीं बैठी हुई हैं, तुमको तालाब में जाते और नाकाम लौटते हम लोगों ने देख लिया और इसी से हम लोगों ने मालूम कर लिया कि तुम माधवी की तरफ़दार नहीं हो, अगर होतीं तो सुरंग बन्द किये जाने का हाल तुम्हें ज़रूर मालूम होता।

कमला : क्या तुम्हें सुरंग बन्द करने का हाल मालूम है?

भैरो : हाँ, हम जानते हैं।

कमला : फिर अब क्या करना चाहिए?

भैरो : तुम वहाँ चली चलो, जहाँ हम लोगों के संगी-साथी हैं, उसी जगह मिलजुल के सलाह करेंगे।

भैरोसिंह कमला को लिये हुए अपनी माँ चपला के पास पहुँचे और पुकारकर कहा, ‘‘माँ, यह कमला है, इसका नाम तो तुमने सुना ही होगा।’’

‘‘हाँ हाँ, मैं इसे बखूबी जानती हूँ।’’ यह कह चपला ने उठकर कमला को गले लगा लिया और कहा, ‘‘बेटी तू अच्छी तरह तो है? मैं तेरी बड़ाई बहुत दिनों से सुन रही हूँ, भैरो ने तेरी बड़ी तारीफ़ की थी, मेरे पास बैठ और कह किशोरी कैसी है?’’

कमला : (बैठकर) किशोरी का हाल क्या पूछती हैं? वह बेचारी तो माधवी की क़ैद में पड़ी है, ललिता कुँअर इन्द्रजीतसिंह के नाम का धोखा देकर उसे ले आयी।

भैरो : (चौंककर) हैं, क्या यहाँ तक नौबत पहुँच गयी?

कमला : जी हाँ, मैं वहाँ मौजूद न थी नहीं तो ऐसा न हो पाता!

भैरो : खुलासा हाल कहो क्या हुआ!

कमला ने सब हाल किशोरी के धोखा खाने और ललिता के पकड़ लेने का सुनाकर कहा, ‘‘यह बखेड़ा (भैरोसिंह की तरफ़ इशारा करके) इन्हीं का मचाया हुआ है, न ये इन्द्रजीतसिंह बनकर शिवदत्तगढ़ जाते न बेचारी किशोरी की यह दशा होती।’’

चपला : हाँ मैं सुन चुकी हूँ। इसी कसूर पर बेचारी को शिवदत्त ने अपने यहाँ से निकाल दिया। ख़ैर तूने यह बड़ा काम किया कि ललिता को पकड़ लिया, अब हम लोग अपना काम सिद्ध कर लेंगे।

कमला : आप लोगों ने क्या किया और अब यहाँ क्या करने का इरादा है?

चपला ने भी अपना और इन्द्रजीतसिंह का सब हाल कह सुनाया। थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। सुबह की सुफेदी निकला ही चाहती थी कि ये लोग वहाँ से उठ खड़े हुए और एक पहाड़ी की तरफ़ चले गये।


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