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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह अब जबर्दस्ती करने पर उतारू हुए और इस ताक में लगे कि माधवी सुरंग का ताला खोल दीवान से मिलने के लिए महल में जाय तो मैं अपना रंग दिखाऊँ। तिलोत्तमा के होशियार कर देने से माधवी भी चेत गयी थी और दीवान साहब के पास आना-जाना उसने बिल्कुल बन्द कर दिया था, मगर जब से पानी वाली सुरंग बन्द की गयी तब से तिलोत्तमा इसी दूसरी सुरंग की राह आने-जाने लगी और इस सुरंग की ताली जो माधवी के पास रहती थी अपने पास रखने लगी, पानीवाली सुरंग के बन्द होते ही इन्द्रजीतसिंह जान गये कि अब इन औरतों की आमदरफ़्त इसी सुरंग से होगी, मगर माधवी ही की ताक में लगे रहने से कई दिनों तक उनका मतलब सिद्ध न हुआ।

अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह उस दालान में ज़्यादे टहलने लगे जिसमें सुरंग के दरवाज़ेवाली कोठरी थी। एक दिन आधी रात के समय माधवी का पलँग खाली देख इन्द्रजीतसिंह ने जाना कि वह बेशक़ दीवान से मिलने गयी है। वह भी पलँग से उठ खड़े हुए और खूँटी से लटकती हुई एक तलवार उतारने के बाद बलते शमादान को बुझा उसी दालान में पहुँचे जहाँ इस समय बिल्कुल अंधेरा था और उसी सुरंगवाले दरवाज़े के बगल में छिपकर बैठे रहे। जब पहर-भर रात बाक़ी रही, उस सुरंग का दरवाज़ा भीतर से खुला और एक औरत ने इस तरफ़ निकलकर फिर ताला बन्द करना चाहा मगर इन्द्रजीतसिंह ने फुर्ती से उसकी कलाई पकड़ ताली छीन ली और कोठरी के भीतर जा अन्दर से ताला बन्द कर लिया।

वह औरत माधवी थी जिसके हाथ से इन्द्रजीतसिंह ने ताली छीनी थी, वह अँधेरे में इन्द्रजीतसिंह को पहिचान न सकी, हाँ उसके चिल्लाने से कुमार जान गये कि यह माधवी है।

इन्द्रजीतसिंह एक दफे उस सुरंग में जा ही चुके थे, उसके रास्ते और सीढ़ियों को वे बखूबी जानते थे, इसलिए अँधेरे में उनको बहुत तकलीफ न हुई और वे अन्दाज़ से टटोलते हुए तहख़ाने की सीढ़ियाँ उतर गये। नीचे पहुँच के जब उन्होंने दूसरा दरवाज़ा खोला तो उन्हें सुरंग के अन्दर कुछ दूर पर रोशनी मालूम हुई जिसे देख उन्हें ताज्जुब हुआ बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, जब उस रोशनी के पास पहुँचे एक औरत पर नज़र पड़ी जो हथकड़ी और बेड़ी के सबब उठने-बैठने से बिल्कुल लाचार थी। चिराग की रोशनी में इन्द्रजीतसिंह ने उसको और उसने इनको अच्छी तरह देखा और दोनों ही चौंक पड़े।

ऊपर ज़िक्र आ जाने से पाठक समझ ही गये होंगे कि यह किशोरी है जो तक़लीफ़ के सबब बहुत ही कमज़ोर और सुस्त हो रही थी। इन्द्रजीतसिंह के दिल में उसकी तस्वीर मौजूद थी और इन्द्रजीतसिंह उसकी आँखों में पुतली की तरह डेरा जमाये हुए थे। एक ने दूसरे को बखूबी पहिचान लिया और ताज्जुब मिली हुई खुशी के सबब देर तक एक दूसरे की सूरत देखते रहे, इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने उसकी हथकड़ी और बेड़ी खोल डाली और बड़े प्रेम से हाथ पकड़कर कहा, ‘‘किशोरी! तू यहाँ कैसे आ गयी!’’

किशोरी : (इन्द्रजीतसिंह के पैरों पर गिरकर) अभी तक तो मैं यही सोचती थी कि मेरी बदकिस्मती मुझे यहाँ ले आयी मगर नहीं, अब मुझे कहना पड़ा कि मेरी खुशकिस्मती ने मुझे यहाँ पहुँचाया और ललिता ने मेरे साथ बड़ी नेकी की, जो मुझे लेकर आयी, नहीं तो न मालूम कब तक तुम्हारी सूरत...।

इससे ज़्यादा बेचारी किशोरी कुछ न कह सकी और ज़ार-ज़ार रोने लगी। इन्द्रजीतसिंह भी बराबर रो रहे थे। आख़िर उन्होंने किशोरी को उठाया और दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़े हुए बोले—

‘‘हाय, मुझे कब उम्मीद थी कि मैं तुम्हें यहाँ देखूँगा। मेरी ज़िन्दगी में आज की खुशी याद रखने लायक होगी। अफ़सोस दुश्मन ने तुम्हें बड़ा ही कष्ट दिया!’’

किशोरी : बस अब मुझे किसी तरह की आरजू नहीं है। मैं ईश्वर से यही माँगती थी कि एक तुम्हें अपने पास देख लूँ सो मुराद आज पूरी हो गयी, अब चाहे माधवी मुझे मार भी डाले तो मैं खुशी से मरने को लिए तैयार हूँ।

इन्द्र : जब तक मेरे दम में दम है किसी को मजाल है जो तुम्हें दुःख दे! अब तो किसी तरह इस सुरंग की ताली मेरे हाथ में लग गयी जिससे हम दोनों को निश्चय समझना चाहिए कि इस क़ैद से छुट्टी मिल गयी। अगर ज़िन्दगी है तो मैं माधवी से समझ लूँगा, वह जाती कहाँ है।

इन दोनों को यकायक इस तरह के मिलाप से कितनी खुशी हुई यह ये ही जानते होंगे। दीन-दुनिया की सुध भूल गये। यह याद ही नहीं रहा कि हम कहाँ जाने वाले थे, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और क्या करना चाहिए, मगर यह खुशी बहुत ही थोड़ी देर के लिए थी, क्योंकि इसी समय हाथ में मोमबत्ती लिये एक औरत उसी तरफ़ से आती हुई दिखायी दी जिधर इन्द्रजीतसिंह जानेवाले थे और जिसको देख ये दोनों ही चौंक पड़े।

वह औरत इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँची और बदन का दाग दिखला बहुत जल्द ज़ाहिर कर दिया कि वह चपला है।

चपला : इन्द्रजीत! हैं, तुम येहाँ कैसे आये!! (चारों तरफ़ देखकर) मालूम होता है बेचारी किशोरी को तुमने इसी जगह पाया है।

इन्द्र : हाँ, यह इसी जगह क़ैद थी मगर मैं नहीं जानता था। मैं तो माधवी के हाथ से जबर्दस्ती ताली छीन इस सुरंग में चला आया और उसे चिल्लाता ही छोड़ आया।

चपला : माधवी तो अभी इसी सुरंग की राह से वहाँ गयी थी।

इन्द्र : हाँ, और मैं दरवाज़े के पास छिपा खड़ा था। जैसे ही वह ताला खोल अन्दर पहुँची वैसे ही मैंने पकड़ लिया और ताली छीन इधर आ भीतर से ताला बन्द कर दिया।

चपला : तुमने बहुत बुरा किया, इतनी जल्दी कर जाना मुनासिब न था। अब तुम दो रोज़ भी माधवी के पास नहीं गुज़ार सकते, क्योंकि वह बड़ी ही बदकार और चाण्डालिन की तरह बेदर्द है, अब वह तुम्हें पावे तो किसी-न-किसी तरह धोखा दे बिना जान लिये कभी न छोड़े।

इन्द्र : आख़िर मैं ऐसा न करता तो क्या करता? उधर जिस राह से तुम आयी थीं अर्थात् पानीवाली सुरंग का मुहाना मेरे देखते-देखते बिल्कुल बन्द कर दिया गया जिससे मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे आने-जाने की ख़बर उस शैतान की बच्ची को लग गयी और तुम्हारे मिलने या किसी तरह के मदद पहुँचने की उम्मीद बिल्कुल जाती रही, पर नामर्दों की तरह मैं अपने को कब तक बनाये रहता, और अब मुझे माधवी के पास लौट जाने की ज़रूरत ही क्या है?

चपला : बेशक हम लोगों की ख़बर माधवी को लग गयी, मगर तुम बिल्कुल नहीं जानते कि तिलोत्तमा ने कितना फ़साद मचा रक्खा है और इधर महल की तरफ़ कितनी मज़बूती कर रक्खी है। तुम किसी तरह इधर से नहीं निकल सकते। अफ़सोस, अब हम लोग भारी खतरे में पड़ गये।

इन्द्र : रात का तो समय है, लड़-भिड़कर निकल जायँगे।

चपला : तुम दिलावर हो, तुम्हारा ऐसा ख्याल करना बहुत मुनासिब है मगर (किशोरी की तरफ़ इशारा करके) इस बेचारी की क्या दशा होगी? इसके सिवाय अब सवेरा हुआ ही चाहता है।

इन्द्र : फिर क्या किया जाय?

चपला : (कुछ सोचकर) क्या तुम जानते हो इस समय तिलोत्तमा कहाँ है?

इन्द्र : जहाँ तक मैं ख़याल करता हूँ इस खोह के बाहर है।

चपला : यह और मुश्किल है, वह बड़ी ही चालाक है, इस समय भी ज़रूर किसी धुन में लगी होगी, वह हम लोगों का ध्यान दम-भर के लिए भी नहीं भूलाती।

इन्द्र : इस समय हमारी मदद के लिए इस महल में और भी कोई मौजूद है या अकेली तुम ही हो?

चपला : देवीसिंह, भैरोसिंह और पण्डित बद्रीनाथ तो महल के बाहर इधर-उधर लुके-छिपे मौजूद हैं, मगर सूरत बदले हुए कमला इस सुरंग के मुहाने पर अर्थात् बाहरवाले कमरे में खड़ी है, मैं उसे अपनी हिफ़ाजत के लिए वहाँ छोड़ आयी हूँ।

किशोरी : (चौंककर) कमला कौन?

चपला :  तुम्हारी सखी!

किशोरी : वह यहाँ कैसे आयी?

चपला :  इसका हाल तो बहुत लम्बा-चौड़ा है, इस समय कहने का मौका नहीं, मुख्तसर यह है कि तुमको धोखा देने वाली ललिता को उसने पकड़ लिया और खुद तुमको छुड़ाने के लिए आयी है, यहाँ हम लोगों से भी मुलाक़ात हो गयी। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ़ देखकर) बस अब यहाँ ठहरकर अपने को इस सुरंग के अन्दर ही फँसाकर मार डालना मुनासिब नहीं।

इन्द्र : बेशक यहाँ ठहरना ठीक न होगा चले चलो, जो होगा देखा जायगा।

तीनों वहाँ से चल पड़े और सुरंग के दूसरे मुहाने अर्थात् उस कमरे में पहुँचे जिसमें माधवी को दीवान साहब के साथ बैठे हुए इन्द्रजीतसिंह ने देखा था वहाँ इस समय सूरत बदले हुए कमला मौजूद थी और रोशनी बखूबी हो रही थी। इन तीनों को देखते ही कमला चौंक पड़ी किशोरी को गले लगा लिया। मगर तुरन्त ही अलग होकर चपला से बोली, ‘‘सुबह की सुफेदी निकल आयी यह बहुत ही बुरा हुआ।’’

चपला :  जो हो, अब कर ही क्या सकते हैं!

कमला: ख़ैर जो होगा देखा जायगा, जल्दी नीचे उतरो।

इस खुशनुमा और आलीशान मकान के चारों तरफ़ बाग था जिसके चारों तरफ़ चहारदीवारियाँ बनी हुई थीं। बाग़ के पूरब तरफ़ बहुत बड़ा फाटक था जहाँ बारी-बारी से बीस आदमी नंगी तलवार लिये घूम-घूमकर पहरा देते थे। चपला और कमला कमन्द के सहारे बाग की पिछली दीवार लाँघकर यहाँ पहुँची थीं और इस समय भी ये चारों उसी तरह निकल जाया चाहते थे।

हम यह कहना भूल गये कि बाग के चारों कोनों में चार गुमटियाँ बनी हुई थीं जिनमें सौ सिपाहियों का डेरा था और आजकल तिलोत्तमा के हुक़्म से वे सभी हरदम तैयार रहते थे। तिलोत्तमा ने उन लोगों को यह भी कह रक्खा था कि जिस समय मैं अपने बनाये हुए बम के गोले को ज़मीन पर पटकूँ और उसकी भारी आवाज़ तुम लोग सुनो, फौरन हाथ में नंगी तलवारें लिये बाग के चारों तरफ़ फैल जाओ, जिस आदमी को आते-जाते देखो तुरन्त गिरफ़्तार कर लो।

चारों आदमी सुरंग का दरवाज़ा खुला छोड़ नीचे उतरे और कमरे के बाहर हो बाग के पिछली दीवार की तरफ़ जैसे ही चले कि तिलोत्तमा पर नज़र पड़ी। चपला यह ख़याल करके कि अब बहुत ही बुरा हुआ, तिलोत्तमा की तरफ़ लपकी और उसे पकड़ना चाहा मगर वह शैतान लोमड़ी की तरह चक्कर मार निकल ही गयी और एक किनारे पहुँच मसाले से भरा हुआ एक गेंद ज़मीन पर पटका जिसकी भारी आवाज़ चारों तरफ़ गूँज गयी और उसके कहे मुताबिक सिपाहियों ने होशियार होकर के चारों तरफ़ से बाग को घेर लिया।

तिलोत्तमा के भागकर निकल जाते ही चारों आदमी जिनके आगे-आगे हाथ में नंगी तलवार लिये इन्द्रजीतसिंह थे बाग की पिछली दीवार की तरफ़ न जाकर सदर फाटक की तरफ़ लपके, मगर वहाँ पहुँचते ही पहरेवाले सिपाहियों से रोके गये और मार-काट शुरू हो गयी। इन्द्रजीतसिंह ने तलवार तथा चपला और कमला ने खंजर चलाने में अच्छी बहादुरी दिखायी।

हमारे ऐयार लोग भी बाग के बाहर चारों तरफ़ लुके-छिपे खड़े थे, तिलोत्तमा के चलाये हुए गोले की आवाज़ सुनकर और किसी भारी फ़साद का होना ख़याल कर फाटक पर आ जुटे और खंजर निकाल माधवी के सिपाहियों पर टूट पड़े। बात की बात में माधवी के बहुत से सिपाहियों की लाशें ज़मीन पर दिखायी देने लगीं और बहुत बहादुरी के साथ लड़ते-भिड़ते हमारे बहादुर लोग किशोरी को लिये निकल ही गये।

ऐयार लोग तो दौड़ने-भागने में तेज़ होते ही हैं, इन लोगों का भाग जाना कोई आश्चर्य न था, मगर गोद में किशोरी को उठाये इन्द्रजीतसिंह उन लोगों के बराबर कब में दौड़ सकते थे और ऐयार लोग भी ऐसी अवस्था में उनका साथ कैसे छोड़ सकते थे। लाचार जैसे बना उन दोनों को भी साथ लिये हुए मैदान का रास्ता लिया। इस समय पूरब की तरफ़ सूर्य की लालिमा अच्छी तरह फैल चुकी थी।

माधवी के दीवान अग्निदत्त का मकान इस बाग़ से दूर न था और वह बड़े सवेरे उठा करता था। तिलोत्तमा के चलाये हुए गोले की आवाज़ उसके कान में पहुँच ही चुकी थी, बाग़ के दरवाज़े पर लड़ाई होने की ख़बर भी उसे उसी समय मिल गयी। वह शैतान का बच्चा बहुत ही दिलेर और लड़ाका था, फौरन ढाल तलवार ले मकान के नीचे उतर आया अपने यहाँ रहनेवाले कई सिपाहियों को साथ ले बाग़ के दरवाज़े पर पहुँचा। देखा कि बहुत से सिपाहियों की लाशें ज़मीन पर पड़ी हुई हैं और दुश्मन का पता नहीं है।

बाग़ के चारों तरफ़ फैले हुए सिपाही भी फाटक पर आ जुटे थे और गिनती में एक सौ से ज़्यादे थे। अग्निदत्त ने सभों को ललकारा और साथ ले इन्द्रजीतसिंह का पीछा किया। थोड़ी ही दूर पर उन लोगों को पा लिया और चारों तरफ़ से घेर मार-काट शुरू कर दी।

अग्निदत्त की निगाह किशोरी पर जा पड़ी। अब क्या पूछना था? सब तरफ़ का ख़याल छोड़ इन्द्रजीतसिंह के ऊपर टूट पड़ा। बहुत-से आदमियों से लड़ते हुए इन्द्रजीतसिंह किशोरी को सम्हाल न सके और उसे छोड़ तलवार चलाने लगे, अग्निदत्त को मौका मिला, इन्द्रजीतसिंह के हाथ से जख्मी होने पर भी उसने दम न लिया और किशोरी को गोद में उठा ले भागा। यह देख इन्द्रजीतसिंह की आँखों में खून उतर आया। इतनी भीड़ को काटकर उसका पीछा तो न कर सके मगर अपने ऐयारों को ललकार कर इस तरह की लड़ाई की कि उन सौ में से आधे बेदम होकर ज़मीन पर गिर पड़े और बाक़ी अपने सरदार को चला गया देख जान बचा भाग गये। इन्द्रजीतसिंह भी बहुत से जख्मों के लगने  से बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़े। चपला और भैरोसिंह वग़ैरह भी बहुत ही बेदम हो रहे थे तो भी वे लोग बेहोश इन्द्रजीतसिंह को उठा वहाँ से निकल गये और फिर किसी की निगाह पर न चढ़े।


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