मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
दसवाँ बयान
जख्मी इन्द्रजीतसिंह को लिए हुए उनके ऐयार लोग वहाँ से दूर निकल गये और बेचारी किशोरी को दुष्ट अग्निदत्त उठाकर अपने घर ले गया। यह सब हाल देख तिलोत्तमा वहाँ से चलती बनी और बाग़ के अन्दर कमरे में पहुँची। देखा कि सुरंग का दरवाज़ा खुला हुआ है और ताली भी उसी जगह ज़मीन पर पड़ी है। उसने ताली उठा ली और सुरंग के अन्दर जा किवाड़ बन्द करती हुई माधवी के पास पहुँची। माधवी की अवस्था इस समय बहुत ही खराब हो रही थी। दीवान साहब पर बिल्कुल भेद खुल गया होगा यह समझ मारे डर के वह घबड़ा गयी और उसे निश्चय हो गया कि अब किसी तरह कुशल नहीं है क्योंकि बहुत दिनों की लापरवाही में दीवान साहब ने तमाम रिआया और फौज को अपने कब्जे में कर लिया। तिलोत्तमा ने वहाँ पहुँचते ही माधवी से कहा—
तिलोत्तमा : अब क्या सोच रही है और क्यों रोती है। मैंने पहिले ही कहा था कि इन बखेड़ों में मत फँस, इसका नतीजा अच्छा न होगा! बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग बला की तरह जिसके पीछे पड़ते हैं उसका सत्यानाश कर डालते हैं, पर तूने मेरी बात न मानी, अब यह दिन देखने की नौबत पहुँची।
माधवी : बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार यहाँ नहीं आया इन्द्रजीतसिंह जबर्दस्ती मेरे हाथ से ताली छीनकर चले गये, मैं कुछ न कर सकी।
तिलोत्तमा : आख़िर तू उनका कर ही क्या सकती थी?
माधवी : अब उन लोगों का हाल है?
तिलोत्तमा : वे लोग लड़ते-भिड़ते तुम्हारे सैकड़ो आदमियों को यमलोक पहुँचाते निकल गये। किशोरी को आपके दीवान साहब उठा ले गये। जब उनके हाथ किशोरी लग गयी तब उन्हें लड़ने-भिड़ने की ज़रूरत ही क्या थी? किशोरी की सूरत देखकर तो आसमान की चिड़िएँ भी नीचे उतर आती हैं फिर दीवान साहब क्या चीज़ हैं? अब तो वह दुष्ट इस धुन में होगा कि तुम्हें मार पूरी तरह से राजा बन जाय और किशोरी को रानी बनाये, तुम उसका कर ही क्या सकती हो!
माधवी : हाय, मेरे बुरे कर्मों ने मुझे मिट्टी में मिला दिया। अब मेरी किस्मत में राज्य नहीं है, अब तो मालूम होता है कि मैं भिखमंगिनों की तरह मारी-मारी फिरूँगी।
तिलोत्तमा : हाँ अगर किसी तरह यहाँ से जान बचाकर निकल जाओगी तो भीख माँग-कर भी जान बचा लोगी नहीं तो बस यह भी उम्मीद नहीं है।
माधवी : क्या दीवान साहब मुझसे इस तरह की बेमुरौवती करेंगे?
तिलोत्तमा : अगर तुझे उन पर भरोसा है तो रह और देख कि क्या होता है, पर मैं तो अब एक-पल टिकनेवाली नहीं।
माधवी : अगर किशोरी उसके हाथ न पड़ गयी होती तो मुझे किसी तरह की उम्मीद होती और कोई बहाना भी कर सकती थी मगर अब तो...
इतना कह माधवी बेतरह रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गयी और वह तिलोत्तमा के पैर पर गिरकर बोली—‘‘तिलोत्तमा, मैं क़सम खाती हूँ कि आज से तेरे हुक़्म के खिलाफ कोई काम न करूँगी।’’
तिलोत्तमा : अगर ऐसा है तो मैं भी क़सम खाकर कहती हूँ कि तुझे फिर इसी दर्ज़े पर पहुँचाऊँगी और बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों और दीवान साहब से भी ऐसा बदला लूँगी कि वे भी याद करेंगे।
माधवी : बेशक मैं तुम्हारा हुक़्म मानूँगी और जो कहोगी सो करूँगी।
तिलोत्तमा : अच्छा ‘तो आज रात को यहाँ से निकल चलना और जहाँ तक जमा-पूँजी अपने साथ ले चलते बने ले लेना चाहिए।
माधवी : बहुत अच्छा मैं तैयार हूँ जब चाहे चलो, मगर यह तो कहो कि मेरी इन सखी-सहेलियों की क्या दशा होगी?
तिलोत्तमा : बुरों की संगत करने से जो फल सब भोगते हैं सो ये भी भोगेंगी। मैं इसका कहाँ तक ख़याल करूँगी? जब अपने पर आ बनती है तो कोई किसी की ख़बर नहीं लेता।
दीवान अग्निदत्त किशोरी को लेकर भागे तो सीधे अपने घर में आ घुसे। ये किशोरी की सूरत पर ऐसे मोहित हुए कि तनोबदन की सुध जाती रही। सिपाहियों ने इन्द्रजीतसिंह और उनके ऐयारों को गिरफ़्तार किया या नहीं अथवा उनकी बदौलत सभों की क्या दशा हुई इसकी परवाह तो उन्हें ज़रा न रही, असल तो यह है कि इन्द्रजीतसिंह को वे पहिचानते भी न थे।
बेचारी किशोरी की क्या दशा थी और वह किस तरह रो-रोकर अपने सिर के बाल नोच रही थी इसके बारे में इतना ही कहना बहुत है कि अगर दो दिन तक उसकी यही दशा रही तो किसी तरह जीती न बचेगी और ‘हा इन्द्रजीतसिंह, हा इन्द्रजीतसिंह’ कहते-कहते प्राण छोड़ देगी।
दीवान साहब के घर में उनकी ज़ोरू और किशोरी ही के बराबर की एक कुँआरी लड़की थी जिसका नाम कामिनी था और वह जितनी खूबसूरत थी उतनी ही स्वभाव की भी अच्छी थी। दीवान साहब की स्त्री का भी स्वभाव और चाल चलन अच्छा था, मगर वह बेचारी अपने पति के दुष्ट स्वभाव और बुरे व्यवहारों से बराबर दुःखी रहा करती थी और डर के मारे कभी किसी बात में कुछ रोक-टोक न करती, तिस पर भी आठ-दस दिन पीछे वह अग्निदत्त के हाथ से ज़रूर मार खाया करती।
बेचारी किशोरी को अपनी ज़ोरू और लड़की के हवाले कर हिफ़ाजत करने के अतिरिक्त समझाने-बुझाने की भी ताकीद कर दीवान साहब बाहर चले आये और अपने दीवानख़ाने में बैठ सोचने लगे कि किशोरी को किस तरह राजी करना चाहिए। यह औरत कौन और किसकी लड़की है जिन लोगों के साथ यह थी वे लोग कौन हैं, और यहाँ आकर धूम-फ़साद मचाने की उन्हें क्या ज़रूरत थी? चाल-ढाल और पोशाक से तो वे लोग ऐयार मालूम पड़ते थे मगर यहाँ उन लोगों के आने का क्या सबब था? इसी सब सोच-विचार में अग्निदत्त को आज स्नान तक करने की नौबत न आयी। दिन-भर इधर-उधर घूमते तथा लाशों को ठिकाने पहुँचाते और तहकीकात करते बीत गया मगर किसी तरह इस बखेड़े का ठीक पता न लगा, हाँ महल के पहरेवालों ने इतना कहा कि, दो तीन दिन से तिलोत्तमा हम लोगों पर सख्त ताकीद रखती थी और हुक़्म दे गयी थी कि जब मेरे चलाये बम के गोले की आवाज़ तुम लोग सुनो तो फौरन मुस्तैद हो जाओ और जिसको आते देखो गिरफ़्तार कर लो।’
अब दीवान साहब का शक माधवी और तिलोत्तमा के ऊपर हुआ और देर तक सोचने-विचारने के बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस बखेड़े का हाल बेशक ये दोनों पहिले ही से जानती थीं मगर यह भेद मुझसे छिपाये रखने का कोई विशेष कारण अवश्य है।
चिराग जलने के बाद अग्निदत्त अपने घर पहुँचा। किशोरी के पास न जाकर निराले में अपनी स्त्री को बुलाकर उसने पूछा, ‘‘उस औरत की जुबानी उसका कुछ हाल-चाल तुम्हें मालूम हुआ या नहीं?’’
अग्निदत्त की स्त्री ने कहा, ‘‘हाँ उसका हाल मालूम हो गया। वह महाराज शिवदत्त की लड़की है और उसका नाम किशोरी है। राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़के इन्द्रजीतसिंह पर रानी माधवी मोहित हो गयी थी और उनको अपने यहाँ किसी तरह से फँसा लाकर खोह में रख छोड़ा था। इन्द्रजीतसिंह का प्रेम किशोरी पर था इसलिए उसने ललिता को भेजकर धोखा दे किशोरी को भी अपने फन्दे में फँसा लिया था। वह भी कई दिनों से यहाँ क़ैद थी और बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग भी कई दिनों से इसी शहर में टिके हुए थे। किसी तरह मौका मिलने पर इन्द्रजीतसिंह किशोरी को ले खोह से बाहर निकल आये और यहाँ तक नौबत आ पहुँची।’’
राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों का नाम सुन मारे डर के अग्निदत्त काँप उठा, बदन के रोंगटे खड़े हो गये, घबड़ाया हुआ बाहर निकल आया और अपने दीवानख़ाने में पहुँच मसनद के ऊपर गिर भूखा-प्यासा आधी रात तक यही सोचता रह गया कि अब क्या करना चाहिए।
अग्निदत्त समझ गया कि कोतवाल साहब को ज़रूर बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने पकड़ लिया है और अब किशोरी को अपने यहाँ रखने से किसी तरह जान न बचेगी, तिस पर भी वह किशोरी को छोड़ना न चाहता था और सोचते-विचारते जब उसका जी ठिकाने आता तब यही कहता कि ‘चाहे जो हो, किशोरी को कभी न छोड़ूँगा’!
किशोरी को अपने यहाँ रखकर सलामत रहने की सिवाय इसके इसे कोई तरकीब न सूझी कि वह माधवी को मार डाले और स्वयं राजा हो बैठे। आख़िर इसी सलाह को उसने ठीक समझा और अपने घर से निकल माधवी से मिलने के लिए महल की तरफ़ रवाना हुआ, मगर वहाँ पहुँचकर बिल्कुल बातें मामूल के खिलाफ़ देख और भी ताज्जुब में हो गया। उसे उम्मीद थी कि खोह का दरवाज़ा बन्द होगा मगर नहीं, खोह का दरवाज़ा खुला हुआ था और माधवी की कुल सखियाँ जो खोह के अन्दर रहती थीं, महल में ऊपर-नीचे चारों तरफ़ फैली हुई थीं और रोती हुई इधर-उधर माधवी को खोज रही थीं।
रात आधी से ज़्यादे जा चुकी थी, बाक़ी रात भी दीवान साहब ने माधवी की सखियों का इज़हार लेने में बिता दी और दिन-रात का पूरा अखण्ड व्रत किये रहे। देखना चाहिए इसका फल उन्हें क्या मिलता है।
शुरू से लेकर माधवी के भाग-जाने तक का हाल उसकी सखियों ने दीवान साहब को कह सुनाया। आखीर में कहा, ‘‘सुरंग की ताली माधवी अपने पास रखती थी इसलिए हम लोग लाचार थीं, यह सब हाल आपसे कह न सकीं।’’
अग्निदत्त दाँत पीसकर रह गया। आख़िर यह निश्चय किया कि कल दशहरा विजयदशमी) है, गद्दी पर खुद बैठ राजा बन और किशोरी को रानी बना नज़रें लूँगा, फिर जो होगा देखा जायगा। सुबह को वह जब अपने घर पहुँचा और पलँग पर जाकर लेटना चाहा वैसे ही तकिए के पास तह किये हुए काग़ज़ पर उसकी नज़र पड़ी। खोलकर देखा तो उसी की तस्वीर मालूम पड़ी, छाती पर चढ़ा हुआ एक भयानक सूरत का आदमी उसके गले में खंजर फेर रहा था। इसे देखते ही वह चौंक पड़ा। डर और चिन्ता ने उसे ऐसा पटका कि बुखार चढ़ आया, मगर थोड़ी ही देर में चंगा हो घर के बाहर निकल फिर तहकीकात करने लगा।
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