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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान


हम ऊपर के बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा बीरेन्द्रसिंह कुँअर आनन्दसिंह और तेज़सिंह सेना सहित किसी तरफ़ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने ज़रूर किसी तरफ़ चढ़ाई की है और बेशक ऐसा ही है भी। राजा बीरेन्द्रसिंह ने यकायक माधवी के गयाजी पर धावा कर दिया जिसका लेना इस समय उन्होंने बहुत ही सहज समझ रक्खा था, क्योंकि माधवी के चाल-चलन की ख़बर उन्हें बखूबी लग गयी थी। वे जानते थे कि राज-काज पर ध्यान न दे दिन-रात ऐश में डूबे रहनेवाले राजा का राज्य कितना कमज़ोर हो जाता है। रैयत को ऐसे राजा से कितनी नफरत हो जाती है और किसी दूसरे नेक धर्मात्मा के आ पहुँचने के लिए वे लोग कितनी मिन्नतें मानते रहते हैं।

बीरेन्द्रसिंह का ख़याल बहुत ही ठीक था। गया दख़ल करने में उनको ज़रा भी तक़लीफ़ न हुई, किसी ने उनका मुक़ाबला न किया। एक तो उनका चढ़ा-बढ़ा प्रताप ही ऐसा था कि कोई मुक़ाबला करने का साहस भी नहीं कर सकता था, दूसरे बेदिल रियाया और फौज तो चाहती ही थी कि बीरेन्द्रसिंह के ऐसा कोई यहाँ का भी राजा हो। चाहे दिन-रात ऐश में डूबे और शराब के नशे में चूर रहने वाले मालिकों को कुछ भी ख़बर न हो पर बड़े-बड़े जमींदारों और राज-कर्मचारियों को माधवी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह के खिंचाखिंची की ख़बर लग चुकी थी और उन्हें मालूम हो चुका था कि आजकल बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग राजगृही में विराज रहे हैं।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने बेरोक-टोक शहर में पहुँचकर अपना दख़ल जमा लिया और अपने नाम की मुनादी करवा दी। वहाँ के दो एक राजकर्मचारी जो दीवान अग्निदत्त के दोस्त और ख़ैरख्वाह थे रंग-कुरंग देखकर भाग गये, बाक़ी फौजी अफ़सरों और रैयतों ने उनकी अमलदारी खुशी से कबूल कर ली, जिसका हाल राजा बीरेन्द्रसिंह को इसी से मालूम हो गया कि उन लोगों ने दरबार में बख़ौफ़ और हँसते हुए पहुँचकर मुबारकबादी के साथ नज़रें गुज़ारीं।

विजयदशमी के एक दिन पहिले गया का राज्य राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्ज़े में आ गया और विजयादशमी को अर्थात् दूसरे दिन प्रातःकाल उनके लड़के आनन्दसिंह को यहाँ की गद्दी पर बैठे हुए लोगों ने देखा तथा नज़रें दीं। अपने छोटे लड़के कुँअर आनन्दसिंह को गया की गद्दी दे दूसरे ही दिन राजा बीरेन्द्रसिंह चुनार लौट जाने वाले थे, मगर उनके रवाना होने के पहिले ही ऐयार लोग जख्मी और बेहोश कुअँर इन्द्रजीतसिंह को लिये हुए गयाजी पहुँच गये जिन्हें देख राजा बीरेन्द्रसिंह को अपना इरादा छोड़ देना पड़ा और बहुत दिन से बिछुड़े हुए प्यारे लड़के को आज इस अवस्था में पाकर अपने तन-बदन की सुध भुला देनी पड़ी।

राजा बीरेन्द्रसिंह के मौजूद होने पर भी गयाजी का बड़ा भारी राजभवन सूना हो रहा था क्योंकि उसमें रहनेवाले माधवी और दीवान अग्निदत्त के रिश्तेदार लोग भाग गये थे और हुक़्म के मुताबिक किसी ने भी उनको भागते समय नहीं रोका था। इस समय राजा बीरेन्द्रसिंह उनके दोनों लड़के और ऐयारों के सिवाय सिर्फ़ थोड़े से फौजी अफसरों का डेरा इस महल में पड़ा हुआ है। ऐयारों में सिर्फ़ भैरोसिंह और तारासिंह यहाँ मौजूद हैं, बाक़ी के कुल ऐयार चुनार लौटा दिये गये थे। शहर के इन्तज़ाम में सबके पहिले यह किया गया कि चीठी या अरजी डालने के लिए एक बगल छेद करके दो बड़े-बड़े सन्दूक राजभवन के फाटक के दोनों तरफ़ लटका दिये गये और मुनादी करवा दी गयी कि जिसको अपना सुख-दुःख अर्ज़ करना हो दरबार में हाज़िर होकर अर्ज़ किया करे और जो किसी कारण से हाज़िर न हो सके वह अर्ज़ी लिखकर इन्हीं संदूको में डाल दिया करे। हुक़्म था कि बारी-बारी से ये सन्दूक दिन-रात में छः मर्तबे कुँअर आनन्दसिंह के सामने खोले जाया करें। इस इन्तज़ाम से गयाजी की रिआया बहुत प्रसन्न थी।

रात पहर-भर से ज़्यादे जा चुकी है। एक संजे हुए कमरे में जिसमें रोशनी अच्छी तरह हो रही है, छोटी-सी खूबसूरत मसहरी पर ज़ख्मी कुँअर इन्द्रजीतसिंह लेटे हुए हलकी दुलाई गर्दन तक ओढ़े हैं। आज कई दिनों पर उन्हें होश आयी है इससे अचम्भे में आकर इस नये कमरे में चारों तरफ़ निगाह दौड़ाकर अच्छी तरह देख रहे हैं। बगल में बायें हाथ का ढासना पलंगड़ी पर दिये हुए उनके पिता राजा बीरेन्द्रसिंह बैठे उनका मुँह देख रहे हैं, और कुछ पायताने की तरफ़ हटकर पाटी पकड़े कुँअर आनन्दसिंह बैठे बड़े भाई की तरफ़ देख रहे हैं। पायताने की तरफ़ पलंगड़ी के नीचे भैरोसिंह और तारासिंह धीरे-धीरे तलवा झँस रहे हैं। कुँअर आनन्दसिंह के बगल में देवीसिंह बैठे हैं। उनके अलावे वैद्य जर्राह और बहुत से सिपाही नंगी तलवार लिये पहरा दे रहे हैं।

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपने पिता की तरफ़ देखकर पूछा—

इन्द्र : यह कौन-सी जगह है? यह किसका मकान है?

बीरेन्द्र : यह चन्द्रदत्त की राजधानी गयाजी है। ईश्वर की कृपा से आज यह हमारे कब्ज़े में आ गयी है। मकान भी चन्द्रदत्त ही के रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दख़ल जमा चुके थे जब तुम यहाँ पहुँचाये गये।

यह सुन इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समाँ उनकी आँखों के आगे घूम गया और वे किशोरी को याद कर अफ़सोस करने लगे। इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ और किशोरी पर क्या बीती इसके जानने के लिए दिल बेचैन था मगर पिता का लेहाज कर भैरोसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ़ ऊँची साँस लेकर रह गये, मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गये और बिना पूछे ही कुछ कहने का मौका समझकर बोले, ‘‘राजगृहों में लड़ाई के समय जितने आदमी आपके साथ थे ईश्वर की कृपा से सब बच गये और अपने ठिकाने पर हैं, केवल आप ही को इतना कष्ट भोगना पड़ा।’’

देवीसिंह के इतना कहने से इन्द्रजीतसिंह की बेचैनी बिल्कुल ही जाती तो नहीं रही मगर कुछ कम ज़रूर हो गयी। इतने में दिल बहलाने का कुछ ठिकाना समझकर देवीसिंह पुनः बोल उठे।

देवी : अर्ज़ियोंवाला सन्दूक हाज़िर है, उसके देखने का समय भी हो गया है।

इन्द्र : कैसा सन्दूक?

आनन्द : यहाँ महल के फाटक पर दो सन्दूक इसलिए रख दिये गये हैं कि जो लोग दरबार में हाज़िर होकर अपना दुख-सुख न कह सकें वे लोग अरजी लिखकर इस सन्दूक में डाल दिया करें।

इन्द्र : बहुत मुनासिब है, इससे रैयतों के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम हो सकता है। इस तरह के कई सन्दूक शहर में इधर-उधर भी रखवा देना चाहिए क्योंकि बहुत से आदमी ख़ौफ़ से फाटक तक आते भी हिचकेंगे।

आनन्द : बहुत खूब, कल इसका इन्तज़ाम हो जायगा।

बीरेन्द्र : हमने यहाँ की गद्दी पर आनन्दसिंह को बैठा दिया है।

इन्द्र : बड़ी खुशी की बात है, यहाँ का इन्तज़ाम ये बहुत ही अच्छी तरह कर सकेंगे क्योंकि यह तीर्थ का मुकाम है और इपका पुराणों से बड़ा प्रेम है और उन्हें अच्छी तरह समझते भी हैं। (देवीसिंह की तरफ़ देखकर) हाँ साहब वह सन्दूक मँगवाइए ज़रा दिल तो बहले।

हाथ-भर का चौखटा सन्दूक हाज़िर किया गया और उसे खोलकर बिल्कुल अर्ज़ियाँ जिनसे वह सन्दूक भरा था बाहर निकाली गयीं। पढ़ने से मालूम हुआ कि यहाँ की रिआया नये राजा की अमलदारी से बहुत प्रसन्न है और मुबारकबाद दे रही है, हाँ एक अर्ज़ी उसमें ऐसी भी निकली जिसके पढ़ने से सभों को तरद्दुद ने आ घेरा और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। पाठकों की दिलचस्पी के लिए हम उस अर्ज़ी की नकल नीचे लिखें देते हैं—

‘‘हम लोग मुद्दत से मनाते थे कि यहाँ की गद्दी पर हुजूर को या हुजूर के खानदान में से किसी को बैठा देखें। ईश्वर ने आज हम लोगों की आरजू पूरी की और कम्बख्त माधवी और अग्निदत्त का बुरा साया हम लोगों के सर से हटाया। चाहे उन दोनों दुष्टों का ख़ौफ़ अभी हम लोगों को बना हो, मगर फिर भी हुजूर के भरोसे पर हम लोग बिना मुबारकबाद दिये और खुशी मनाये नहीं रह सकते। वह डर इस बात का नहीं है कि यहाँ फिर उन दुष्टों की अमलदारी होगी तो कष्ट भोगना पड़ेगा। राम राम, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता, हम लोगों को यह गुमान तो स्वप्न में भी नहीं हो सकता, वह डर बिल्कुल दूसरा ही है जो हम लोग नीचे अर्ज़ करते हैं। आशा है कि बहुत जल्द उससे हम लोगों की रिहाई होगी, नहीं तो महीने भर में यहाँ की चौथाई रिआया यमलोक में पहुँच जायगी। मगर नहीं, हुजूर के नामी और अपनी आप नजीर रखनेवाले ऐयारों के हाथ से वे बेईमान हरामजादे कब बच सकते हैं जिनके डर से हम लोगों को पूरी नींद सोना नसीब नहीं होता।

‘‘कुछ दिनों से दीवान अग्निदत्त की तरफ़ से थोड़े बदमाश इस काम के लिए मुक़र्रर कर दिये हैं कि अगर कोई आदमी अग्निदत्त के खिलाफ नज़र आवे तो बेधड़क उसका सर चोरी से रात के समय काट डालें, या दीवान साहब को जब रुपये की ज़रूरत हो तो जिस अमीर या जमींदार के घर में चाहे डाका डाल दें या चोरी करके कंगाल बना दें। इसकी फरियाद कहीं सुनी नहीं जाती, इसी वजह से और अभी बाहरी चोरों को अपना घर भरने और हम लोगों को सताने का मौका मिलता है। हम लोगों ने भी उन दुष्टों की सूरत नहीं देखी और नहीं जानते कि वे लोग कौन हैं या कहाँ रहते हैं जिनके ख़ौफ़ से दिन-रात हम लोग काँपा करते हैं।’’

इस अर्ज़ी के नीचे कई मशहूर और नामी रईसों और ज़मींदारों के दस्तख़त थे। यह अर्ज़ी उसी समय देवीसिंह के हवाले कर दी गयी और देवीसिंह ने वादा किया कि एक महीने के अन्दर इन दुष्टों को जिन्दा या मरे हुए हुज़ूर में हाज़िर करेंगे।

इसके बाद ज़र्राहों ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह के ज़ख्मों को खोला और दूसरी पट्टी बदली, कविराज ने दवा खिलायी और हुक़्म पाकर सब अपने-अपने ठिकाने चले गये। देवीसिंह उसी समय विदा हो न मालूम कहाँ चले गये और राजा बीरेन्द्रसिंह भी वहाँ से हटकर अपने कमरे में चले गये।

इस कमरे के दोनों तरफ़ छोटी-छोटी दो कोठरियाँ थीं। एक में सन्ध्यापूजा का सामान दुरुस्त था और दूसरी में खाली फ़र्श पर एक मसहरी बिछी हुई थी जो उस मसहरी से कुछ छोटी थी जिस पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह आराम कर रहे थे। कोठरी से वह मसहरी बाहर निकाली गयी और कुँअर आनन्दसिंह के सोने के लिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह की मसहरी के पास बिछायी गयी। भैरोसिंह और तारासिंह ने भी दोनों मसहरियों के नीचे अपना बिस्तर जमाया। सिवाय इन चारों के उस कमरे में और कोई न रहा। इन लोगों ने रात-भर आराम से काटी और सबेरा होने पर आँख खुलते ही विचित्र तमाशा देखा।

सुबह के पहिले ही दोनों ऐयारों की आँखें खुलीं और हैरत-भरी निगाहों से चारों तरफ़ देखने लगे, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी जागे और फूलों की खुशबू जो इस कमरे में बहुत देर पहिले से ही भर रही थी लेने तथा दोनों ऐयारों की तरह ताज्जुब से चारों तरफ़ देखने लगे।

आनन्द : खुशबूदार फूलों के गजरे और गुलदस्ते इस कमरे में किसने सजाये हैं?

इन्द्र : ताज्जुब है, हमारे आदमी बिना हुक़्म पाये ऐसा कब कर सकते हैं?

भैरो : हम दोनों आदमी घण्टे-भर के पहिले से उठकर इस पर गौर कर रहे हैं मगर कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है।

आनन्द : गुलदस्ते भी बहुत खूबसूरत और बेशक़ीमती मालूम पड़ते हैं।

तारा : (एक गुलदस्ता उठाकर और पास लाकर) देखिए इस सोने के गुलदस्ते पर क्या उम्दा मीने का काम किया हुआ है! बेशक किसी बहुत बड़े शौक़ीन का बनवाया हुआ है, इसी ढंग के सब गुलदस्ते हैं।

भैरो : हाँ एक बात ताज्जुब की और भी है जो मैंने अभी तक आपसे नहीं कही।

इन्द्र : वह क्या?

भैरो : (हाथ का इशारा करके) ये दोनों दरवाज़े सिर्फ़ घुमाकर मैंने खुले छोड़ दिये थे मगर सुबह को और दरवाजों की तरह इन्हें भी बन्द पाया।

तारा : (आनन्दसिंह की तरफ़ देखकर) शायद रात को आप उठे हों?

आनन्द : नहीं!

इसी तरह देर तक ये लोग ताज्जुब भरी बातें करते रहे मगर अकल ने कुछ गवाही न दी कि क्या मामला है। राजा बीरेन्द्रसिंह भी आ पहुँचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ जमे। सभों इस आश्चर्य की बात को सुनकर सोचने और गौर करने लगे। कई बुजदिलों को भूत-प्रेत और पिशाच का ध्यान आया मगर महाराज और दोनों कुमारों के ख़ौफ़ से कुछ बोल न सके, क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इस ख़याल के आदमी न थे और न ऐसे आदमियों को अपने साथ रखना ही पसन्द करते थे।

उन फूलों के गजरों और गुलदस्तों को किसी ने न छेड़ा और वे ज्यों के त्यों जहाँ के तहाँ लगे रह गये। रईसों की हाज़िरी और शहर के इन्तज़ाम में दिन बीत गया और रात को फिर कल ही की तरह दोनों भाई मसहरी पर सो रहे। दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में ज़मीन पर लेट गये, मगर आपुस में मिल-जुलकर बारी-बारी से जागते रहने का विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लम्बी छड़ी इसलिए रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुँह से बोले लकड़ी के इशारे से दूसरे को जगा दे। इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने भी कह रक्खा था कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना जिससे हम लोग भी देख लें कि कौन है और कहाँ से आता है।

आधी रात से कुछ ज़्यादे जा चुकी है। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े हैं। पहरे के मुताबिक लेटे-लेटे तारासिंह दरवाज़े की तरफ़ देख रहे हैं। यकायक पूरब तरफ़ वाली कोठरी में कुछ खटका हुआ। तारासिंह ज़रा-सा घूम गये और पड़े-पड़े ही उस कोठरी की तरफ़ देखने लगे। बारीक चादर पहिले ही से दोनों ऐयारों के मुँह पर पड़ी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी।

कोठरी का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा। तारासिंह ने लकड़ी के इशारे से भैरोसिंह को उठा दिया जो बड़ी होशियारी से घूमकर कोठरी की तरफ़ देखने लगे। कोठरी के दरवाज़े का एक पल्ला अब अच्छी तरह खुल गया और एक निहायत हसीन और कमसिन औरत किवाड़ पर हाथ रक्खे खड़ी दोनों मसहरियों की तरफ़ देखती नज़र पड़ी। भैरोसिंह और तारासिंह ने मसहरी के पावे पर हाथ का इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया।

इन्द्रजीतसिंह का रुख़ तो पहिले ही उस कोठरी की तरफ़ था मगर आनन्दसिंह उस तरफ़ पीठ किये सो रहे थे। जब उनकी आँखें खुलीं तो अपने सामने की तरफ़ जहाँ तक देख सकते थे कुछ भी न देखा, लाचार धीरे से उनको करवट बदलनी पड़ी और तब मालूम हुआ कि इस कमरे में क्या आश्चर्य की बात दिखायी दे रही है।

अब कोठरी का दोनों पल्ला खुल गया और वह हसीन औरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखायी देने लगी क्योंकि उसके तमाम बदन पर बखूबी रोशनी पड़ रही थी। वह औरत नखसिख से ऐसी दुरुस्त थी कि उसकी तरफ़ चारों की टकटकी बँध गयी। बेशक़ीमती सुफेद साड़ी और जड़ाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मालूम हो रही थी। जेवरों में सिर्फ़ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुर्ख़ी उसके गोरे रंग पर पड़कर उसके हुस्न को हद्द से ज़्यादे रौनक दे रही थी। उसकी पेशानी (माथे) पर एक दाग था जिसके देखने से विश्वास होता था कि बेशक इसने कभी तलवार या किसी हर्बे की चोट खायी है। यह दो अंगुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था। उसे देख ये चारों आदमी यही सोचते होंगे कि इससे बढ़कर खूबसूरत रम्भा और उर्वशी अप्सरा भी न होंगी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह तो किशोरी पर मोहित हो रहे थे, उसकी तस्वीर इनके दिल में खिंच-रही थी, उन पर चाहे इसके हुस्न ने ज़्यादे असर न किया हो मगर आनन्दसिंह की क्या हालत हो गयी यह वे ही जानते होंगे। बहुत बचाते रहने पर भी उनके दिल ने उनकी ठण्डी साँसें उनसे न रुक सकीं जिससे हम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी ठण्डी साँसों के साथ ही बाहर निकलकर कह दिया कि अब हम तुम्हारे कब़्जे में नहीं हैं।

कुँअर आनन्दसिंह अपने को सम्हाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पल्ला थामे खड़ी थी। उनकी यह हालत देख तीनों आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायगी, मगर नहीं, वह इनको उठकर बैठते देख ज़रा भी न हिचकी, ज्यों-की-त्यों खड़ी रही, बल्कि इनकी तरफ़ देख ज़रा-सा हँस दिया, जिससे ये और भी बेचैन हो गये।

कुँअर आनन्दसिंह यह सोचकर कि उस कोठरी में किसी दूसरी तरफ़ निकल जाने के लिए दूसरा दरवाज़ा नहीं है मसहरी पर से उठ खड़े हुए और उस औरत की तरफ़ चले। इनको अपनी तरफ़ आते देख वह औरत कोठरी में चली गयी और फुर्ती से उसका दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लिया।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गयी हो मगर कमज़ोरी अभी तक मौजूद है, बल्कि सब ज़ख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं, इसलिए अभी घूमने फिरने लायक नहीं हुए। उस परीजमाल को भीतर से किवाड़ बन्द कर लेते देख सब उठ खड़े हुए, कुँअर इन्द्रजीतसिंह भी तकिए का सहारा लेकर बैठ गये और बोले, ‘‘इस कोठरी में किसी तरफ़ निकल जाने का रास्ता तो नहीं है।’’

भैरो : जी नहीं।

आनन्द: (किवाड़ में धक्का देकर) इसे खोलना चाहिए।

तारा : मुश्किल तो कुछ नहीं, (इन्द्रजीतसिंह की तरफ़ देखकर) क्या हुक़्म होता है?

इन्द्र : जब इस कोठरी में दूसरी तरफ़ निकल जाने का रास्ता ही नहीं है तो जल्दी क्यों करते हो?

इन्द्रजीतसिंह के इतना कहते ही आनन्दसिंह वहाँ से हटे और अपने भाई के पास आकर बैठ गये। भैरोसिंह और तारासिंह भी पास आकर बैठ गये और यों बातचीत होने लगी—

इन्द्रजीत : (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ़ देखकर) तुममें से कोई जागता भी रहा या दोनों सो गये थे?

भैरो : नहीं सो क्या जायेंगे? हम लोग बारी-बारी से बराबर जागते और महीन चादर से मुँह ढाँके दरवाज़े की तरफ़ देखते रहे।

इन्द्र : तो क्या इसी दरवाज़े में से इस औरत को आते देखा था?

आनन्द : बेशक इसी तरफ़ से आयी होगी!

तारा : जी नहीं, यही तो ताज्जुब है कि कमरे के दरवाज़े ज्यों-के-त्यों भिड़ के रह गये और यकायक कोठरी का दरवाज़ा खुला और वह नज़र आयी।

इन्द्र : यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस कोठरी में और कोई दरवाज़ा नहीं है?

भैरो : जी हाँ अच्छी तरह जानते हैं, और कोई दरवाज़ा नहीं है।

तारा : क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुड़ैल थी?

आनन्द : राम राम, यह भी कोई बात है!

इन्द्र : ख़ैर जो हो, मेरी राय यही है कि पिताजी के आने तक कोठरी का दरवाज़ा न खोला जाय।

आनन्द : जो हुक़्म, मगर मैं तो यह चाहता था कि पिताजी के आने तक दरवाज़ा खोलकर सब कुछ दरियाफ्त कर लिया जाता।

इन्द्र : ख़ैर खोलो।

हुक़्म पाते ही कुँअर आनन्दसिंह उठ खड़े हुए, खूँटी से लटकती हुई एक भुजाली उतार ली और उस दरवाज़े के पास जा एक-एक हाथ दोनों कुलाबों पर मारी जिससे कुलाबे कट गये। तारासिंह ने दोनों पल्ले उतार अलग रख दिये। भैरोसिंह ने एक जलता हुआ शमादान उठा लिया और चारों आदमी उस कोठरी के अन्दर गये मगर वहाँ एक चूहे का बच्चा भी नज़र न आया।

इस कोठरी में तीन तरफ़ मज़बूत दीवारें थीं और एक तरफ़ वही दरवाज़ा था जिसका कुलाबा काट ये लोग अन्दर आये थे, हाँ सामने की तरफ़वाली अर्थात् बिचली दीवार में काठ की एक अलमारी जड़ी हुई थी। इन लोगों का ध्यान उस आलमारी पर गया और सोचने लगे कि शायद यह आलमारी इस ढंग की हो जो दरवाज़े का काम देती हो और इसी राह से वह औरत आयी हो, मगर उन लोगों का यह ख्याल भी तुरन्त ही जाता रहा और विश्वास हो गया कि यह आलमारी किसी तरह दरवाज़ा नहीं हो सकती और न इस राह से वह औरत आयी ही होगी, क्योंकि उस आलमारी में भैरोसिंह ने अपने हाथ से कुछ ज़रूरी असबाब रखकर ताला लगा दिया था जो अभी तक ज्यों-का-त्यों बन्द था। यह कब हो सकता है कि कोई ताला खोलकर इस आलमारी के अन्दर घुस गया हो और बाहर का ताला जैसा-का-तैसा दुरुस्त कर दिया हो! लेकिन तब फिर क्या हुआ! यह औरत क्योंकर आयी और किस राह से चली गयी? उन लोगों ने लाख सिर धुना और गौर किया मगर कुछ समझ में न आया।

ताज्जुब भरी बातों में ही रात बीत गयी। सुबह को जब राजा बीरेन्द्रसिंह अपने लड़के को देखने के लिए उस कमरे में आये तो जर्राह वैद्य तथा और मुसाहिब लोग भी उनके साथ थे। बीरेन्द्रसिंह ने इन्द्रजीतसिंह से तबीयत का हाल पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘अब तबीयत अच्छी है मगर एक ज़रूरी बात अर्ज़ किया चाहता हूँ जिसके लिए तखलिया (एकान्त) हो जाना बेहतर होगा।’’

बीरेन्द्रसिंह ने भैरोसिंह की तरफ़ देखा। उसने तखलिया हो जाने में महाराज की रज़ामन्दी जानकर सभों को हट जाने का इशारा किया। बात-की-बात में सन्नाटा हो गया और सिर्फ़ वही पाँच आदमी उस कमरे में रह गये।’’

बीरेन्द्र : कहो क्या बात है?

इन्द्र : आज रात एक अजीब बात देखने में आयी।

बीरेन्द्र : वह क्या?

इन्द्र : (तारासिंह की तरफ़ देखकर) तारासिंह तुम्हीं सब हाल कह जाओ क्योंकि उस समय तुम्हीं जागते थे, हम लोग तो पीछे जगाये गये हैं।

तारा : बहुत खूब।

तारासिंह ने रात का पूरा-पूरा हाल राजा बीरेन्द्रसिंह से कह सुनाया जिसे सुनकर उन्होंने बहुत ताज्जुब किया और घण्टों तक गौर में डूबे रहने बाद बोले, ‘‘ख़ैर यह बात किसी और को न मालूम हो नहीं तो मुसाहिबों और अहलकारों में खलबली पैदा हो जायगी और सैकड़ों तरह की गप्पें उड़ने लगेंगी। देखो तो क्या होता है और कब तक पता नहीं लगता, आज हम भी इसी कमरे में सोयेंगे।’’

एक दिन क्या कई दिनों तक राजा बीरेन्द्रसिंह उस कमरे में सोये मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर कोई बात ही देखने में आयी, आख़िर उन्होंने हुक़्म दिया कि उस कोठरी का दरवाज़ा नया कुलाबा लगाकर फिर से उसी तरह बन्द कर दिया जाय।


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