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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

बारहवाँ बयान


आज पाँच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आये हैं उसी में राजा बीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इन्द्रजीतसिंह की तबियत बहुत अच्छी है और वे चलने-फिरने लायक हो गये हैं। देवीसिंह को बहुत जल्द लौट आते देखकर सभों को विश्वास हो गया कि जिस काम पर मुस्तैद किये गये थे उसे कर चुके मगर ताज्जुब इस बात का था कि वे अकेले क्यों आये।

बीरेन्द्र : कहो देवीसिंह खुश तो हो?

देवी : खुशी तो मेरी खरीदी हुई है! (और लोगों की तरफ़ देखकर) अच्छा अब आप लोग जाइए बहुत विलम्ब हो गया।

दरबारियों और खुशामदियों के चले जाने के बाद बीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह से पूछा— बीरेन्द्र : कहो उस अर्ज़ी में जो कुछ लिखा था सच था या झूठ?

देवी : उसमें जो कुछ लिखा था बहुत ठीक था। ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उन दुष्टों का पता लग गया, मगर क्या कहें ऐसी ताज्जुब की बातें देखने में आयीं कि अभी तक बुद्धि चकरा रही है।

बीरेन्द्र : (हँसकर) उधर तुम ताज्जुब की बातें देखो इधर हम लोग अद्भुत बातें देखें।

देवी : सो क्या?

बीरेन्द्र: पहिले तुम अपना हाल कह लो यहाँ का सुनो!

देवी : बहुत अच्छा, फिर सुनिए। रामशिला पहाड़ी के नीचे मैंने एक काग़ज़ अपने हाथ से लिखकर चिपका दिया जिसमें यह लिखा था—

‘‘हम खूब जानते हैं कि जो अग्निदत्त के विरुद्ध होता है उसका तुम लोग सिर काट लेते हो, जिसका घर चाहते हो लूट लेते हो। मैं डंके की चोट से कहता हूँ कि अग्निदत्त का दुश्मन मुझसे बढ़के कोई न होगा और गयाजी में मुझसे बढ़कर मालदार भी कोई नहीं है, तिस पर मज़ा यह है कि मैं अकेला हूँ, अब देखा चाहिए तुम लोग क्या कर लेते हो?’’

आनन्द : अच्छा क्या हुआ?

देवी : उन दुष्टों के पता लगाने के उपाय तो मैंने और भी कई किये थे मगर काम इसी से चला। उस राह से आने-जाने वाले सभों उस काग़ज़ को पढ़ते थे और चले जाते थे। मैं उस पहाड़ी के कुछ ऊपर जाकर पत्थर की चट्टान की आड़ में छिपा हुआ हरदम उसकी तरफ़ देखा करता था। एक दफे दो आदमी एक साथ आये और उसे पढ़ मूँछों पर ताव देते शहर की तरफ़ चले गये। शाम को वे दोनों लौटे और फिर उस काग़ज़ को पढ़ सिर हिलाते बराबर की पहाड़ी की ओर चले गये। मैंने सोचा इनका पीछा ज़रूर करना चाहिए क्योंकि काग़ज़ के पढ़ने का असर सबसे ज़्यादे इन्हीं दोनों पर हुआ। आख़िर मैंने उनका पीछा किया और जो सोचा था वही ठीक निकला। वे लोग पन्द्रह-बीस आदमी हैं और हट्टे-कट्टे और मुसण्डे हैं। उसी झुण्ड में मैंने एक औरत को भी देखा। अहा ऐसी खूबसूरत औरत तो मैंने आज तक नहीं देखी। पहिले मैंने सोचा कि वह इन लोगों में से किसी की लड़की होगी क्योंकि उसकी अवस्था बहुत कम थी, मगर नहीं उसके हाव-भाव और उसकी हुकूमत-भरी बातचीत से मालूम हुआ कि वह उन सभों की मालिक है, पर सच तो यह है कि मेरा जी इस बात पर भी नहीं जमता। उसकी चाल-ढाल, उसकी बढ़िया पोशाक और उसके जड़ाऊ कीमती गहनों पर जिसमें सिर्फ़ खुशरंग मानिक ही ज़ड़े हुए थे ध्यान देने से दिल की कुछ विचित्र हालत हो जाती है।

मानिक के जड़ाऊ ज़ेवरों का नाम सुनते ही कुँअर आनन्दसिंह चौंक पड़े, इन्द्रजीतसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया और उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबड़ाने लगे, क्योंकि उस रात को इन चारों ने इस कमरे में या यों कहिए कोठरी में जिस औरत की झलक देखी थी वह भी मानिक के जड़ाऊ जेवरों से ही अपने को सजाये हुए थी। आख़िर आनन्दसिंह से रहा न गया, देवीसिंह को बात कहते-कहते रोककर पूछा—

आनन्द : उस औरत का नखसिख ज़रा अच्छी तरह कह जाइए।

देवी : सो क्या?

बीरेन्द्र : (लड़कों की तरफ़ देखकर) तुम लोगों को ताज्जुब किस बात का है, तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छा गयी?

भैरो : जी वह औरत भी जिसे हमलोगों ने देखा था ऐसे ही गहने पहिरे हुए थी जैसा चाचाजी कह रहे हैं*। (* भैरोंसिह और देवीसिंह का रिश्ता तो मामा भाँजे का था मगर भैरोंसिह उन्हें चाचाजी कहा रहते थे।)

बीरेन्द्र : हाँ!

भैरो : जी हाँ।

देवी : तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी?

बीरेन्द्र : सो पीछे सुनना, पहिले जो ये पूछते हैं उसका जवाब दे लो।

देवी : नखसिख सुन के क्या कीजिएगा, सबसे ज़्यादे पक्का निशान तो यह कि उसके ललाट में दो-ढाई अंगुल का एक आड़ा दाग है, मालूम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खायी हो!

आनन्द : बस बस बस!

इन्द्रजीत : बेशक वही औरत है।

तारा : कोई शक नहीं कि वही है।

भैरो : अवश्य वही है!

बीरेन्द्र : मगर आश्चर्य है, कहाँ उन दुष्टों का संग और कहाँ हम लोगों के साथ आपुस का बरताव।

भैरो : हम लोग तो उसे दुश्मन नहीं समझते।

देवी : अब हम न बोलेंगे, जब तक यहाँ का खुलासा हाल न सुन लेंगे, न मालूम आप लोग क्या कह रहे हैं?

बीरेन्द्र : ख़ैर यही सही, अपने लड़के से पूछिए कि यहाँ क्या हुआ।

तारा : जी हाँ सुनिये मैं अर्ज़ करता हूँ।

तारासिंह ने यहाँ का बिल्कुल हाल अच्छी तरह कहा था। फूल तो फेंक दिये मगर गुलदस्ते अभी तक मौजूद हैं, वे भी दिखाये। देवीसिंह हैरान थे कि यह क्या मामला है, देर तक सोचने के बाद बोले, ‘‘मुझे तो विश्वास नहीं होता कि यहाँ वही औरत आयी होगी जिसे मैंने वहाँ देखा है।’’

बीरेन्द्र : यह शक भी मिटा डालना चाहिए।

देवी : उन लोगों का जमाव वहाँ रोज़ ही होता है, जहाँ मैं देख आया हूँ, आज तारा या भैरव को अपने साथ ले चलूँगा, ये खुद ही देख लें कि वही औरत है या दूसरी।

बीरेन्द्र : ठीक है, आज ऐसा ही करना, हाँ अब तुम अपना हाल और आगे कहो।

देवी : मुझे यह भी मालूम हुआ कि उन दुष्टों ने हमेशे के लिए अपना डेरा उसी पहाड़ी में कायम किया है और बातचीत से यह भी जाना गया कि लूट और चोरी का माल भी वे लोग उसी ठिकाने कहीं रखते हैं। मैंने अभी बहुत खोज उन लोगों की नहीं की, जो कुछ मालूम हुआ था आपसे कहने चला आया। अब उन लोगों को गिरफ़्तार करना कुछ मुश्किल नहीं है, हुक़्म हो तो थोड़े से अपने साथ ले जाँऊ और आज ही उन लोगों को उस औरत के सहित गिरफ़्तार कर लाऊँ।

बीरेन्द्र : आज तो तुम भैरो या तारा को अपने साथ ले जाओ, फिर कल उन लोगों की गिरफ़्तारी की फ़िक्र की जायगी।

आख़िर भैरोसिंह को अपने साथ लेकर देवीसिंह बराबर के पहाड़ पर गये और जो गयाजी से तीन-चार कोस की दूरी पर होगा। घूमघूमौवा और पेचीली पगडण्डियों को तै करते हुए पहर रात जाते-जाते ये दोनों उस खोह के पास पहुँचे जिसमें वे बदमाश डाकू रहते थे। उस खोह के पास ही एक छोटी-सी गुफा थी जिसमें मुश्किल से दो आदमी बैठ सकते थे। इस गुफा में एक बारीक दरार ऐसी पड़ी हुई थी जिसमें ये दोनों ऐयार उस लम्बी-चौड़ी गुफा का हाल बखूबी देख सकते थे जिसमें वे डाकू लोग रहते थे। इस समय वे सब-के-सब वहाँ मौजूद भी थे, बल्कि वह औरत भी सरदारी के तौर पर छोटी-सी गद्दी लगाये मौजूद थी। ये दोनों ऐयार उस दरार से उन लोगों की बातचीत तो नहीं सुन सकते थे मगर सूरत शक्ल भाव और इशारे अच्छी तरह देख सकते थे। इन लोगों ने इस समय वहाँ पन्द्रह डाकुओं को बैठे हुए पाया और उस औरत को देखकर भैरोसिंह ने पहिचान लिया कि यही वह औरत है जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह के कमरे में आयी थी। आज वह वैसी पोशाक या उन जेवरों को पहिरे हुए न थी, तो भी सूरत शक्ल में किसी तरह का फ़र्क़ न था।

इन दोनों ऐयारों के पहुँचने के बाद दो घण्टे तक वे डाकू लोग आपुस में कुछ बातचीत करते रहे, इस बीच में कई डाकुओं ने दो-तीन दफे हाथ जोड़कर उस औरत से कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया जिससे मालूम हुआ कि मंजूर नहीं किया। इतने ही में एक दूसरी हसीन, कमसिन और फुर्तीली औरत लपकी हुई वहाँ आ मौजूद हुई। उसके हाँफने और दम फूलने से मालूम होता था कि वह बहुत दूर से दौड़ती हुई आ रही है।

उस नयी आयी औरत ने न मालूम उस सरदार औरत के कान में झुककर क्या कहा जिसके सुनते ही उसकी हालत बदल गयी। बड़ी-बड़ी आँखें सुर्ख हो गयीं, खूबसूरत चेहरा तमतमा उठा और वह तुरत उस नयी औरत को साथ ले उस खोह के बाहर चली गयी। वे डाकू दोनों औरतों का मुँह देखते ही रह गये मगर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।

जब दो घण्टे तक दोनों औरतों में से कोई न लौटी तो डाकू लोग भी उठ खड़े हुए और खोह के बाहर निकल गये। उन लोगों के इशारे और आकृति से मालूम होता था कि वे दोनों औरतों के यकायक इस तरह पर चले से ताज्जुब कर रहे हैं। यह हालत देखकर देवीसिंह भी वहाँ से चल पड़े और सुबह होते-होते राजमहल आ पहुँचे।


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