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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा बयान


शिवदत्तगढ़ में महाराज शिवदत्त बैठा हुआ बेफिक्री का हलुआ नहीं उड़ाता। सच पूछिए तो तमाम ज़माने की फ़िक्र ने उसको आ घेरा है। वह दिन-रात सोचा ही करता है और उसके ऐयारों और जासूसों का दिन दौड़ते ही बीतता है। चुनार, गयाजी और राजगृही का हाल तो उसे रत्ती-रत्ती मालूम है क्योंकि इन तीनों जगहों की ख़बर पहुँचाने के लिए उसने पूरा बन्दोबस्त किया हुआ है। आज यह ख़बर पाकर कि गयाजी का राज्य राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्ज़े में आ गया, माधवी राज्य ही छोड़कर भाग गयी, और किशोरी, दीवान अग्निदत्त के हाथ फँसी हुई है, शिवदत्त घबड़ा उठा और तरह-तरह की बातें सोचने में इतना लीन हो गया कि तनोबदन की सुध जाती रही। किशोरी के ऊपर उसे इतना गुस्सा आया कि अगर वह यहाँ मौजूद होती तो अपने हाथ से उसके टुकड़्-टुकड़े कर डालता। इस समय भी यह प्रण करके उठा हुआ है कि ‘जब तक किशोरी के मरने की ख़बर न पाऊँगा अन्न न खाऊँगा’ और सीधा महल में चला गया, हुक़्म देता गया कि भीमसेन को हमारे पास भेज दो।

राजा शिवदत्त महल में जाकर अपनी रानी कलावती के पास बैठ गया। उसके चेहरे की उदासी और परेशानी का सबब जानने के लिए कलावती ने बहुत कुछ उद्योग किया मगर जब तक उसका लड़का भीमसेन महल में न गया उसने कलावती की बात का कुछ भी जवाब न दिया। माँ-बाप के पहुँचते ही भीमसेन ने प्रणाम किया और पूछा, ‘‘क्या आज्ञा होती है?’’

शिव : किशोरी के बारे में जो कुछ ख़बर आज पहुँची तुमने भी सुनी होगी?

भीम : जी हाँ।

शिव : अफ़सोस, फिर भी तुम्हें अपना मुँह दिखाते शर्म नहीं आती! न मालूम तुम्हारी बहादुरी किस दिन काम आयेगी और तुम किस दिन अपने को इस लायक बनाओगे कि मैं तुम्हें अपना लड़का समझूँ!!

भीम : मुझे जो आज्ञा हो तैयार हूँ।

शिव : मुझे उम्मीद नहीं कि तुम मेरी बात मानोगे!

भीम : मैं यज्ञोपवीत हाथ में लेकर क़सम खाता हूँ कि जब तक जान बाक़ी है उस काम के करने की पूरी कोशिश करूँगा जिसके लिए आप आज्ञा देंगे!

शिव : मेरा पहला हुक़्म यह है कि किशोरी का सर काटकर मेरे पास लाओ।

भीम : (कुछ सोच और ऊँची साँस लेकर) बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। और क्या हुक़्म होता है?

शिव : इसके बाद बीरेन्द्रसिंह या उनके लड़कों में से जब तक किसी को मार न लाओ यहाँ मत आओ। यह न समझना कि यह काम मैं तुम्हारे ही सुपुर्द करता हूँ। नहीं, मैं खुद आज इस शिवदत्तगढ़ को छोड़ूँगा और अपना कलेजा ठण्डा करने के लिए पूरा उद्योग करूँगा। बीरेन्द्रसिंह का चढ़ता प्रताप देखकर मुझे निश्चय हो गया कि लड़कर उन्हें किसी प्रकार नहीं जीत सकता, इसलिए आज से मैं उनके साथ लड़ने का ख़याल छोड़ देता हूँ और उस ढंग पर चलता हूँ जिसे ठग, चोर या डाकू लोग पसन्द करते हैं।

भीम : अख्तियार आपको है जो चाहें करें। मुझे आज्ञा हो तो इसी समय चला जाऊँ और जो हुक़्म हुआ है उसे पूरा करने का उद्योग करूँ!

शिव : अच्छा जाओ मगर यह कहो अपने साथ किस-किसको ले जाते हो?

भीम : किसी को नहीं।

शिव : तब तुम कुछ न कर सकोगे। दो-तीन ऐयार और दस-बीस लड़ाकों को अपने साथ ज़रूर लेते जाओ।

भीम : आपके यहाँ ऐसा कौन ऐयार है जो बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुक़ाबला करे और ऐसा कौन बहादुर है जो उन लोगों के सामने तलवार उठा सके।

शिव : तुम्हारा कहना ठीक है मगर तुम्हारे साथ गये हुए ऐयारों की कार्रवाई तब तक बहुत अच्छी होगी, जब तक दुश्मनों को यह न मालूम हो जाय कि शिवदत्तगढ़ का कोई आया है!

सिवाय इसके मैं बहादुर नाहरसिंह को तुम्हारे साथ भेजता हूँ जिसका मुक़ाबला करने वाला बीरेन्द्रसिंह की तरफ़ कोई नहीं है।

भीम बेशक नाहरसिंह ऐसा ही है मगर मुश्किल तो यह है कि नाहरसिंह जितना बहादुर है उसे ज़्यादे इस बात को देखता है कि अपने कौल का सच्चा रहे। उसका कहना है, ‘‘कि जिस दिन कोई बहादुर द्वन्द्व-युद्ध में मुझे जीत लेगा उसी दिन मैं उसका हो जाऊँगा।’ ईश्वर न करे कहीं ऐसी नौबत पहुँची वह उसी दिन से हम लोगों का दुश्मन हो जायगा।

शिव : यह सब तुम्हारा ख़याल है, द्वन्द्व-युद्ध में उसे वहाँ कोई जीतने वाला नहीं है।

भीम : अच्छा जो आज्ञा।

शिव : (खड़े होकर) चलो मैं इसी वक्त चलकर तुम्हारे जाने का बन्दोबस्त कर देता हूँ।

शिवदत्त और भीमसेन के बाहर चले जाने के बाद रानी कलावती ने जो बहुत देर से इन लोगों की बातें सुन-सुनकर गरम-गरम आँसू गिरा रही थी सर उठाया और लम्बी साँस लेकर कहा, ‘हाय, अब तो ज़माने का उलट-फेर ही दूसरा हुआ चाहता है। बेचारी किशोरी का क्या कसूर! वह आप से आप तो चली ही नहीं गयी! उसने अपने आप तो कोई ऐसा काम किया ही नहीं जिससे उसकी इज्जत में फ़र्क़ आवे! हाय, किस कलेजे से भीमसेन ने अपनी बहन को मारने का इरादा करेगा! मेरी ज़िन्दगी अब व्यर्थ है क्योंकि बेचारी लड़की तो अब मारी ही जायगी, भीमसेन भी बीरेन्द्रसिंह से दुश्मनी करके अपनी जान नहीं बचा सकता, दूसरे उस लड़के का भरोसा ही क्या जो अपने हाथ से अपनी बहिन का सिर काटे! अगर इन सब बातों को भूल जाऊँ और यही सोचकर बैठ रहूँ कि मेरा सर्वस्व तो पति है मुझे लड़के-लड़कियों से क्या मतलब, तो भी नहीं बनता, क्योंकि वे भी डाकू वृत्ति लिया चाहते हैं। इस अवस्था में वे किसी प्रकार का सुख नहीं पा सकते। फिर जीते जी अपने पति को दुःख भोगते मैं कैसे देखूँगी? हाय, बीरेन्द्रसिंह वही बीरेन्द्रसिंह जिसकी बदौलत मेरी जान बची थी, न मालूम बुर्दफरोशों की बदौलत मेरी क्या दुर्दशा होती! वही बीरेन्द्रसिंह है, जिसने कृपा कर मुझे अपने पति के पास खोह में भिजवा दिया था और चुनार की गद्दी भी लौटा देने को तैयार था! किस-किस बात की तरफ़ देखूँ? बीरेन्द्रसिंह के बराबर धर्मात्मा तो कोई दुनिया में न होगा! फिर किसको दोष दूँ, अपने पति को? नहीं, कभी नहीं, यह मेरे किये न होगा! यह सब दोष तो मेरे कर्मों ही का है। फिर जब भाग्य ही बुरे हैं तो ऐसे भाग्य को लेकर दुनिया में क्यों रहूँ? अपनी छुट्टी तो आप ही कर लेती हूँ फिर मेरे पीछे क्या जाने क्या होगा, इसकी ख़बर ही किसे!’’

रानी कलावती पागलों की तरह बहुत देर तक न जाने क्या-क्या सोचती रही, आख़िर उठ खड़ी हुई और ताली का गुच्छा उठाकर अपना एक सन्दूक खोला। न मालूम उसमें से क्या निकाल कर अपने मुँह में रख लिया और पास ही पड़ी हुई सोने की सुराही में से जल निकाल कर पीने के बाद कलम दवात और काग़ज़ लेकर कुछ लिखने बैठ गयी। लेख समाप्त होते-होते तक उसकी सखियाँ भी पहुँचीं। कलावती ने लिखे हुए काग़ज़ को लपेटकर एक सखी के हाथ में दिया और कहा, ‘‘जब महाराज मुझे पूछें तो यह काग़ज़ उनके हाथ में दे देना। बस अब तुम लोग जाओ अपना काम करो, मैं इस समय सोना चाहती हूँ, जब तक मैं खुद न उठूँ ख़बरदार मुझको कभी मत उठाना!’’

हुक़्म पाते ही उसकी लौंडियाँ वहाँ से हट गयीं और रानी कलावती ने पलँग पर लेटकर आँचल से मुँह ढाँप लिया।

दो ही पहर के बाद मालूम हो गया कि रानी कलावती सो गयीं, आज के लिए नहीं बल्कि वह हमेशा के लिए सो गयी, अब वह किसी के जगाये नहीं जाग सकती।

शाम के वक्त जब महाराज शिवदत्त फिर महल में आये तो महारानी का लिखा काग़ज़ उनके हाथ में दे दिया गया। पढ़ते ही शिवदत्त दौड़ा हुआ उस कमरे में गया जिसमें कलावती सोयी हुई थी। मुँह पर से कपड़ा हटाया, नब्ज देखी, और तुरन्त लौटकर बाहर चला गया।

अब तो उसकी सखियों लौंडियों को भी मालूम हो गया कि रानी कलावती हमेशा के लिए सो गयी। न मालूम बेचारी ने किन-किन बातों को सोचकर जान दे देना ही मुनासिब समझा। उसकी प्यारी सखियाँ जिन्हें वह जान से ज़्यादे मानती थीं पलँग के चारों तरफ़ जमा हो गयीं और उसकी आख़िरी सूरत देखनी लगीं। भीमसने चार घण्टे पहिले ही मुहिम पर रवाना हो चुका था। उसे अपनी प्यारी माँ के मरने की कुछ ख़बर ही नहीं और यह सोचकर कि वह उदास और सुस्त होकर अपना काम न कर सकेगा, शिवदत्त ने भी कलावती के मरने की ख़बर उसके कान तक पहुँचने न दी।

ऐयारों और थोड़े से लड़ाकों के सिवाय नाहरसिंह को साथ लिये हुए भीमसेन राजगृही की तरफ़ रवाना हुआ। उसका साथी नाहरसिंह बेशक लड़ाई के फन में बहुत ही जबर्दस्त था। उसे विश्वास था कि कोई अकेला आदमी लड़कर कभी मुझसे जीत नहीं सकता। भीमसेन भी अपने को ताकतवर और होशियार लगाता था मगर जब से लोभवश नाहरसिंह ने उसकी नौकरी कर ली और आजमाइश के तौर पर दो-चार दफे नाहरसिंह और भीमसेन से नकली लड़ाई हुई तब से भीमसेन को मालूम हो गया कि नाहरसिंह के सामने वह एक बच्चे के बराबर हैं। नाहरसिंह लड़ाई के फ़न में जितना होशियार और ताकतवर था उतना ही नेक और ईमानदार भी था और उसका यह प्रण करना बहुत ही मुनासिब था कि उसे जिस दिन जो कोई जीतेगा वह उसी दिन से उसकी ताबेदारी क़बूल कर लेगा।

ये लोग पहिले राजगृही में पहुँचे और एक गुप्त खोह में डेरा डालने के बाद भीमसेन ने ऐयारों को वहाँ का हाल मालूम करने के लिए मुस्तैद किया। दो ही दिन की कोशिश में ऐयारों ने कुल हाल वहाँ का मालूम कर लिया और भीमसेन ने जब यह सुना कि माधवी वहाँ मौजूद नहीं है, तब बिना छेड़छाड़ मचाये गयाजी की तरफ़ कूच किया।

इस समय राजगृही को अपने क़ब्ज़े में कर लेना भीमसेन के लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर इस ख्याल से कि गयाजी में राजा बीरेन्द्रसिंह की अमलदारी हो गयी है राजगृही दखल करने से कोई फ़ायदा न होगा और बीरेन्द्रसिंह के मुक़ाबले में लड़कर जीतना भी बहुत ही मुश्किल है उसने राजगृही का ख्याल छोड़ दिया। सिवाय इसके ज़ाहिर होकर वह किसी तरह किशोरी को अपने कब्ज़े में कर भी नहीं सकता था, उसे लुक-छिपकर पहिले किशोरी ही पर सफाई का हाथ दिखाना मंजूर था।

गयाजी के पास पहुँचते ही एक गुप्त और भयानक पहाड़ी में उन लोगों ने डेरा डाला और ख़बर लेने के लिए ऐयारों को रवाना किया। जिस तरह भीमसेन के ऐयार लोग घूम-घूमकर टोह लिया करते थे उसी तरह माधवी की सखी तिलोत्तमा भी अपना काम साधने के लिए भेष बदलकर चारों तरफ़ घूमा करती थी। इत्तिफाक से भीमसेन के ऐयारों की मुलाक़ात तिलोत्तमा से हो गयी और बहुत जल्द माधवी की ख़बर भीमसेन तो तथा भीमसेन की शबर माधवी को लग गयी।

भीमसेन के साथ जितने लड़ाके थे उन सभों को खोह में ही छोड़ सिर्फ़ भीमसेन और नाहरसिंह को उस मकान में बुला लिया जिसका हाल हम ऊपर लिख चुके हैं।

आज किशोरी के घर में घुसकर आफ़त मचाने वाले ये ही भीमसेन और नाहरसिंह हैं। अपने ऐयारों की मदद से उस मकान के बगल वाले खँडहर में घुसकर भीमसेन ने उस मकान में सेंध लगायी और उस सेंध की राह नाहरसिंह ने अन्दर जाकर जो कुछ किया पाठकों को मालूम ही है।

नाहरसिंह मकान के अन्दर घुसकर उसी सेंध की राह किशोरी को लेकर बाहर निकल आया और उस बेचारी को ज़मीन पर गिराकर मालिक के हुक़्म के मुताबिक उसे मार डालने पर मुस्तैद हुआ। मगर एक बेकसूर औरत पर इस तरह जुल्म करने का इरादा करते ही उस जवाँमर्द का कलेजा दहल गया। वह किशोरी को ज़मीन पर रख दूर जा खड़ा हुआ और भीमसेन से जो मुँह पर नकाब डाले उस जगह मौजूद था बोला, ‘‘लीजिए, इसके आगे जो कुछ करना है आप ही कीजिए। मेरी हिम्मत नहीं पड़ती! मगर मैं आपको भी...’’

हाथ में खंजर लेकर भीमसेन फौरन बेचारी किशोरी की छाती पर, जो उस समय डर के मारे बेहोश थी, जा चढ़ा, साथ ही इसके की किशोरी की बेहोशी भी जाती रही और उसने अपने को मौत के पंजे में फँसा हुआ पाया जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं।

भीमसेन ने खँजर उठाकर ज्यों ही किशोरी को मारना चाहा पीछे से किसी ने उसकी कलाई थाम ली और खंजर लिये उसके मज़बूत हाथ को बेबस कर दिया। भीमसेन ने फिरकर देखा तो एक साधु की सूरत नज़र पड़ी। वह किशोरी को छोड़ उठ खड़ा हुआ और उसी खंजर से उसने साधु पर वार किया।

यह साधु वही है जो रामशिला पहाड़ी के सामने फलगू नदी के बीच में भयानक टीले पर रहता था और जिसके पास मदद के लिए माधवी और तिलोत्तमा का जाना और उन्हीं के पास देवीसिंह का पहुँचना भी हम ऊपर लिख आये हैं। इस समय वह साधु इस बात पर मुस्तैद दिखायी देता है कि जिस तरह बने इन दुष्टों के हाथ से बेचारी किशोरी को बचाये।

चाँदनी रात में दूर खड़ा नाहरसिंह यह तमाशा देखता रहा मगर भीमसेन को साधु से जबर्दस्त समझकर मदद के लिए पास न आया। भीमसे के चलाये हुए खंजर ने साधु का कुछ भी नुकसान न किया और उसने खंजर का वार बचाकर फुर्ती से भीमसेन के पीछे जा उसकी टाँग पकड़कर इस ढंग से खैंची कि भीमसेन किसी तरह सम्हल न सका और धम्म से ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही साधु हट गया और बोला, ‘‘उठ खड़ा हो और फिर आकर लड़!’’

ग़ुस्से में भरा हुआ भीमसेन उठ खड़ा हुआ और खंजर ज़मीन पर फेंक साधु से लिपट गया क्योंकि वह कुश्ती के फन में अपने आपको बहुत होशियार समझता था, मगर साधु से कुछ पेश न गयी। थोड़ी ही देर में साधु ने भीमसेन को सुस्त कर दिया और कहा, ‘‘जा मैं तुझे छोड़ देता हूँ, अगर अपनी ज़िन्दगी चाहता है तो अभी यहाँ से भाग जा।’’

भीमसेन हैरान होकर साधु का मुँह देखता रह गया, कुछ जवाब न दे सका। ज़मीन पर पड़ी हुई बेचारी किशोरी यह कैफ़ियत देख रही थी मगर डर के मारे न तो उससे उठा जाता था और न वह चिल्ला ही सकती थी।

भीमसेन को इस तरह बेदम देखकर नाहरसिंह से न रहा गया। वह झपटकर साधु के पास आया और ललकारकर बोला, ‘‘अगर बहादुरी का दावा रखता है तो इधर आ। मैं समझ गया कि तू साधु नहीं बल्कि कोई मक्कार है।’’

साधु महाशय नाहरसिंह से भी उलझने को तैयार हो गये मगर ऐसी नौबत न आयी क्योंकि उसी समय ढूँढ़ते हुए सींध की राह से कुँअर इन्द्रजीतसिंह और तारासिंह भी खँडहर में आ पहुँचे और उनके पीछे-पीछे किन्नरी और कमला भी आ मौजूद हुईं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह को देखते ही वे साधुराम तो हट गये और खँडहर की दीवार फाँद न मालूम कहाँ चले गये। उधर एक पेड़ के पास गड़े हुए अपने नेजे को नाहरसिंह ने उठा लिया और उसी इन्द्रजीतसिंह से मुक़ाबला किया। तारासिंह ने उछलकर एक लात भीमसेन को ऐसी लगायी कि वह किसी तरह सम्हल न सका, तुरन्त ज़मीन पर लोट गया। भीमसेन एक लात खाकर ज़मीन पर लोट जाने वाला न था मगर साधु के साथ लड़कर वह बदहवास और सुस्त हो रहा था इस लिए तारासिंह की लात से सम्हल न सका। तारासिंह ने भीमसेन की मुश्कें बाँध लीं और उसे एक किनारे रखके नाहरसिंह की लड़ाई का तमाशा देखने लगा।

आधे घण्टे तक नाहरसिंह और इन्द्रजीतसिंह के बीच लड़ाई होती रही। इन्द्रजीतसिंह की तलवार ने नाहरसिंह के नेजे को दो टुकड़े कर दिया और नाहरसिंह की ढाल पर बैठकर कुअँर इन्द्रजीतसिंह की तलवार कब्ज़े से अलग हो गयी। थोड़ी देर के लिए दोनों बहादुर ठहर गये। कुअँर इन्द्रजीतसिंह की बहादुरी देख नाहरसिंह बहुत खुश हुआ और बोला—

नाहर : शाबाश! तुम्हारे ऐसा बहादुर मैंने आज तक नहीं देखा।

इन्द्र : ईश्वर की सृष्टि में एक-से-एक बढ़ के पड़े हैं, तुम्हारे या हमारे ऐसों की बात ही क्या है!

नाहर : आपका कहना बहुत ठीक है, मेरा प्रण क्या है आप जानते हैं?

इन्द्र : कह जाइए, अगर नहीं जानता तो अब मालूम हो जायगा।

नाहर : मैंने प्रण किया है कि जो कोई लड़कर मुझे जीतेगा मैं उसकी ताबेदारी कबूल करूँगा।

इन्द्र : तुम्हारे ऐसे बहादुर का यह प्रण बेमुनासिब नहीं है। फिर आइए कुश्ती से निपटारा कर लिया जाय।

नाहर : बहुत अच्छा आइए!

दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने नाहरसिंह को ज़मीन पर दे मारा और पूछा, ‘‘कहो अब क्या इरादा है?’’

नाहर : मैं आपकी ताबेदारी कबूल करता हूँ।

इन्द्रजीतसिंह उसकी छाती पर से उठ खड़े हुए और इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ़ सन्नाटा था। किशोरी, किन्नरी, और कमला का कहीं पता नहीं, भीमसेन और उसके साथियों का भी (अगर कोई वहाँ हो) नाम-निशान नहीं, यहाँ तक कि अपने ऐयार तारासिंह की सूरत भी उन्हें दिखायी न दी।

इन्द्र : यह क्या! चारों तरफ़ सन्नाटा क्यों छा गया?

नाहर : ताज्जुब है! इसके पहिले तो यहाँ कई आदमी थे, न मालूम वे सब कहाँ चले गये?

इन्द्र : तुम कौन हो और तुम्हारे साथ कौन था?

नाहर : मैं आपका ताबेदार हूँ, मेरे साथ शिवदत्तसिंह का लड़का भीमसेन था और इसके पहिले मैं उसका नौकर था, आशा है कि आप भी अपना परिचय मुझे देंगे।

इन्द्र : मेरा नाम इन्द्रजीतसिंह है।

नाहर : हाँ!!

नाम सुनते ही नाहरसिंह उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला, ‘‘मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे आपकी ताबेदारी में सौंपा! यदि किसी दूसरे की ताबेदारी कबूल करनी पड़ती तो मुझे बड़ा दुःख होता!’’

नाहरसिंह ने सच्चे दिल से कुमार की ताबेदारी कबूल की। इसके बाद बड़ी देर तक दोनों बहादुर चारों तरफ़ घूम-घूमकर लोगों को ढूँढ़ते रहे मगर किसी का पता न लगा, हाँ एक पेड़ के नीचे भीमसेन दिखायी पड़ा जिसके हाथ-पैर कमन्द से मज़बूत बँधे हुए थे। भीमसेन ने पुकारकर कहा, ‘‘क्यों नाहरसिंह! क्या मेरी मदद न करोगे?’’

नाहर : अब मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ।

इन्द्र : (भीमसेन से) तुम्हें किसने बाँधा?

भीमसेन : मैं पहिचानता तो नहीं मगर इतना कह सकता हूँ कि आपके साथी ने।

इन्द्र : और वह बाबाजी कहाँ चले गये?

भीम : क्या मालूम!

इतने में ही खँडहर की दीवार फाँदकर आते हुए तारासिंह भी दिखायी पड़े। इन्द्रजीतसिंह घबड़ाये हुए उनकी तरफ़ बढ़े और पूछा, ‘‘तुम कहाँ चले गये थे?’’

तारा : जिस समय हम लोग यहाँ आये थे एक बाबाजी भी इस जगह मौजूद थे मगर न मालूम कहाँ चले गये! मैं एक आदमी की मुश्कें बाँध रहा था कि उसी समय (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी में छिपे कई आदमी बाहर निकले और किशोरी को जबर्दस्ती उठाकर उसी तरफ़ चले। उन लोगों को जाते देख किन्नरी और कमला भी उसी तरफ़ लपकीं। मैंने यह सोचकर कि कहीं ऐसा न हो कि आपको लड़ाई के समय धोखा देकर यह आदमी पीछे से आप पर वार करे, झटपट उसके मुश्कें बाँधीं और फिर मैं भी उसी तरफ़ लपका जिधर वे लोग गये थे। वहाँ कोने में एक खुली हुई खिड़की नज़र आयी, मैं यह सोच उस खिड़की के बाहर गया कि बेशक इसी राह से वे लोग निकल गये होंगे।

इन्द्र : फिर कुछ पता लगा।

तारा : कुछ भी नहीं, न मालूम वे लोग किधर गायब हो गये! मैं आपको लड़ते हुए छोड़ गया था इसलिए तुरन्त लौट आया। अब आप घर चलिए, आपको पहुँचाकर मैं उन लोगों को खोज निकालूँगा। (नाहरसिंह की तरफ़ इशारा करे) इनसे क्या निपटेरा हुआ।

इन्द्र : इन्होंने मेरी ताबेदारी क़बूल कर ली।

तारा : सो तो ठीक है, मगर दुश्मन का...

नाहर : आप सब इन बातों को न सोचिए, ईश्वर चाहेगा तो आप मुझे बेईमान कभी न पायेंगे!

तारा : ईश्वर ऐसा ही करे!

रात की अँधेरी बिल्कुल जाती रही और अच्छी तरह सवेरा हो गया। मुहल्ले के कई आदमी उस खिड़की की राह खँडहर में चले आये और अपने राजा को वहाँ पा हैरान हो देखने लगे। कुँअर इन्द्रजीतसिंह, तारासिंह और नाहरसिंह अपने साथ भीमसेन को लिये हुए महल में पहुँचे और इन्द्रजीतसिंह ने सब हाल अपने छोटे भाई आनन्दसिंह से कहा।

आज रात की वारदात दोनों कुमारों को हद से ज़्यादे तरद्दुद में डाल दिया। किन्नरी और किशोरी के इस तरह मिलकर भी पुनः गायब हो जाने से दोनों ही पहिले से ज़्यादे उदास और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।


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