लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

272 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

तीसरा बयान


आधी रात का समय है और सन्नाटे की हवा चल रही है। बिल्लौर की तरह खूबी पैदा करनेवाली चाँदनी आशिकमिज़ाजों को सदा ही भली मालूम होती है लेकिन आज की सर्दी ने उन्हें भी पस्त कर दिया है, यह हिम्मत नहीं पड़ती कि ज़रा मैदान में निकलें और इस चाँदनी की बहारलें मगर घर में बैठे दरवाज़े की तरफ़ देखा करने और उसाँसें लेने से होता ही क्या है। मर्दानगी कोई और ही चीज़ है, इश्क किसी दूसरी ही वस्तु का नाम है, तो भी इश्क के मारे हुए माशूक की नागिन-सी जुल्फों से अपने को डसाना ही जवाँमर्दी समझते हैं और दिलबर की तिरछी निगाहों से अपने कलेजे को बनाने ही में बहादुरी मानते हैं। मगर वे लोग जो सच्चे बहादुर हैं घर बैठे ‘ओफ’ करना पसन्द नहीं करते और समय पड़ने पर तलवार ही को अपना माशूक मानते हैं। देखिए इस सर्दी और ऐसे भयानक स्थान में भी एक सच्चे बहादुर को किसी पेड़ की आड़ में बैठ जाना भी बुरा मालूम होता है।

अब रात पहर-भर से भी कम बाक़ी है। एक पहाड़ी के ऊपर जिसकी ऊँचाई बहुत ज़्यादे नहीं तो इतनी कम भी नहीं है कि बिना दम लिये एक दौड़ में कोई ऊपर चढ़ जाय, एक आदमी मुँह पर नकाब डाले काले कपड़े से तमाम बदन को छिपाये इधर-उधर टहल रहा है। चारों तरफ़ सन्नाटा है, कोई उसे पहिचाननेवाला यहाँ मौजूद नहीं, शायद इसी ख़याल से उसने काब उलट दी और कुछ देर के लिए खड़े होकर मैदान की तरफ़ देखने लगा।

एक पहाड़ी के बगल में एक दूसरी पहाड़ी है जिसकी जड़ इस पहाड़ी से मिली हुई है। मालूम होता है कि एक पहाड़ी के दो टुकड़े हो गये हैं। बीच में डाकुओं और लुटेरों के आने-जाने लायक रास्ता है, जिसे भयानक दर्रा कहना मुनासिब जान पड़ता है। इस आदमी की निगाह घड़ी-घड़ी उसी दर्रे की तरफ़ दौड़ती और स्नाटा पाकर मैदान की तरफ़ घूम जाती है जिससे मालूम होता है कि उसकी आँखें किसी ऐसे को ढूँढ़ रही हैं, जिसके आने की इस समय पूरी उम्मीद है।

टहलते-टहलते उसे देर हो गयी, पूरब तरफ़ आसमान पर कुछ-कुछ सुफेदी फैलने लगी जिसे देख यह कुछ घबड़ाना-सा हो गया और दस कदम आगे बढ़कर मैदान की तरफ़ देखने लगा, साथ ही इसके चौंका और धीरे से बोल उठा, ‘‘आ पहुँचे!’’

उस आदमी ने धीरे से सीटी बजायी। इधर-उधर चट्टानों की आड़ में छिपे हुए दस बारह आदमी निकल आये जिन्हें देख वह हुकूमत के तौर पर बोला, ‘‘देखो वे लोग आ पहुँचे, अब बहुत जल्द नीचे उतर चलना चाहिए।’’

बात के अन्दाज़ से मालूम हो गया कि वह आदमी जो बहुत देर से पहाड़ी के ऊपर टहल रहा था, उन सभों का सरदार। अब उसने अपने चेहरे पर नकाब डाल ली और अपने साथियों को लेकर तेज़ी के साथ पहाड़ी के नीचे उतर आनेवालों का मुहाना रोक लिया।

कपड़े में लपेटी हुई एक लाश उठाये और उसे चारों तरफ़ से घेरे हुए कई आदमी उस दर्रे में घुसे। वे लोग कदम बढ़ाये जा रहे थे। उन्हें स्वप्न में भी यह गुमान न था कि हम लोगों के काम में बाधा डालने वाला इस पहाड़ के बीच में से कोई निकल जायेगा।

जब लाश उठाये हुए वो लोग उस दर्रे के बीच में घुसे बल्कि उन लोगों ने जब आधा दर्रा तय कर लिया, तब यकायक चारों तरफ़ से छिपे हुए कई आदमी उन लोगों पर टूट पड़े और हर तरह से उन्हें लाचार कर दिया। वे लोग किसी तरह भी लाश को न ले जा सके और तीन-चार आदमियों के घायल होने तथा एक के मर जाने पर उसी जगह उस लाश को छोड़ आख़िर सभों को भाग ही जाना पड़ा।

दुश्मनों के भाग जाने पर उस सरदार ने जो पहिले ही से उस पहाड़ी पर मौजूद था, जिसका ज़िक्र हम कर आये हैं, अपने साथियों को पुकारकर कहा, ‘‘पीछा करने की कोई ज़रूरत नहीं, हमारा मतलब निकल गया, मगर यह देख लेना चाहिए कि यह किशोरी है या नहीं!’’

एक ने बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी और उस लाश के मुँह पर से कपड़ा हटाकर देखने के बाद कहा, ‘‘किशोरी ही तो है।’’ सरदार ने किशोरी की नब्ज पर हाथ रक्खा और कहा—

सरदार : ओफ! इसे बहुत तेज़ बेहोशी दी गयी है, देखो तुम भी देख लो!

एक : (नब्ज़ देखकर) बेशक बहुत ज़्यादे बेहोशी दी गयी है, ऐसी हालत में अकसर जान निकल जाती है!

दूसरा : इसे कुछ कम करना चाहिए।

सरदार ने अपने बटुए में से एक डिबिया निकाली तथा खोलकर किशोरी को सुँघाने के बाद फिर नब्ज पर हाथ रक्खा और कहा, ‘‘बस इससे ज़्यादे बेहोशी कम करने से यह होश में आ जायगी, चलो उठाओ, अब यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं।’’

किशोरी को उठाकर वे लोग उसी दर्रे की राह घूमते हुए पहाड़ी के पार हो गये और न मालूम किस तरफ़ चले गये। इनके जाने बाद उसी जगह जहाँ पर लड़ाई हुई थी छिपा हुआ एक आदमी बाहर निकला और चारों तरफ़ देखने लगा। जब वहाँ किसी को मौजूद न पाया तो धीरे से बोल उठा— ‘‘मेरा पहिले ही से यहाँ आ पहुँचना कैसा मुनासिब हुआ! मैं न लोगों को खूब पहिचानता हूँ जो लड़-भिड़कर किशोरी को ले गये। खैर, क्या मुजायका है, मुझसे भागकर ये लोग कहाँ जायेंगे। मेरे लिए तो दोनों ही बराबर हैं, वे ले जाते तब भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती, और ये लोग ले गये हैं, तब भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी। ख़ैर, हरि-इच्छा, अब बाबाजी को ढूँढ़ना चाहिए। उन्होंने ने भी इसी जगह मिलने का वादा किया था’’

इतना कह, वह आदमी चारों तरफ़ घूमने लगा और बाबाजी को ढूँढ़ने लगा। इस समय इस आदमी को यदि माधवी देखती तो तुरन्त पहिचान लेती क्योंकि यह वही साधु है जो रामशिला पहाड़ी के सामने टीले पर रहता था, जिसके पास माधवी गयी थी, या जिसने भीमसेन के हाथ से उस समय किशोरी की जान बचायी थी, जब खँडहर के बीच में वह उसकी छाती पर सवार हो खंजर उसके कलेजे के आर-पार किया चाहता था। साफ़ सवेरा हो चुका था बल्कि पूरब तरफ़ सूर्य की लालिमा ने चौथाई आसमान पर अपना दखल जमा लिया था। वह साधु इधर-उधर घूमता फिरता एक जगह अटक गया और सोचने लगा कि किधर जाय या क्या करे, इतने ही में सामने से इसी की सूरत शक्ल के एक-दूसरे बाबाजी आते हुए दिखायी पड़े। देखते ही यह उनकी तरफ़ बढ़ा और बोला, ‘‘मैं बड़ी देर से आपको ढूँढ़ता रहा हूँ क्योंकि इसी जगह मिलने का आपने वादा किया था!’’

अभी आये हुए बाबाजी ने कहा, ‘‘मैं भी वादा पूरा करने के लिए आ पहुँचा। (हँसकर) बहुत ख़ासे! यदि इस समय कोई देखे तो अवश्य बावला हो जाय और कहे कि एक ही रंग के और सूरत शक्ल के दो बाबाजी कहाँ से आ पैदा हो गये? अच्छा हमारे पीछे-पीछे चले आओ।’’

दोनों बाबाजी ने एक तरफ़ का रास्ता लिया और देखते-देखते न मालूम किधर गायब हो गये या किस खोह में जा छिपे’


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book