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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


अब हम अपने किस्से के सिलसिले को मोड़कर दूसरी तरफ़ झुकते हैं और पाठकों को पुण्यधाम काशी में ले चलकर सन्ध्या के समय गंगा के किनारे बैठी हुई एक नौजवान औरत की अवस्था पर ध्यान दिलाते हैं।

सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं, चारों तरफ़ अँधेरी घिरी आती है गंगाजी शान्त भाव से धीरे-धीरे बह रही हैं। आसमान पर छोटे-छोटे बादल के टुकड़े पूरब की तरफ़ से चले आकर पश्चिम की तरफ़ इकट्ठे हो रहे हैं। गंगा के किनारे एक नौजवान औरत जिसकी उम्र पन्द्रह वर्ष से ज़्यादे न होगी हथेली पर गाल रक्खे जल की तरफ़ देखती न मालूम क्या सोच रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह औरत नखसिख से दुरुस्त और खूबसूरत है मगर रंग इसका साँवला है, तो भी इसकी खूबसूरती और नजाकत में किसी तरह का बट्टा नहीं लगता। थोड़ी-थोड़ी देर पर यह औरत सर उठाकर चारों तरफ़ देखती और फिर उसी तरह हेथेली पर गाल रखकर कुछ सोचने लग जाती।

इसके सामने ही गंगाजी में एक छोटा-सा बजड़ा खड़ा है जिस पर चार-पाँच आदमी दिखायी दे रहे हैं और कुछ सफर का सामान और दो-चार हर्बे भी मौजूद हैं।

थोड़ी देर में अँधेरा हो जाने पर वह औरत उठी, साथ ही बजड़े पर से दो सिपाही उतर आये और उसे सहारा देकर बजड़े पर ले गये। वह छत पर जा बैठी और किनारे की तरफ़ इस तरह देखने लगी जैसे किसी के आने की राह देख रही हो। बेशक ऐसा ही था, क्योंकि उसी समय हाथ में गठरी लटकाये एक आदमी आया जिसे देखते ही दो मल्लाह किनारे पर उतर आये, एक ने उसके हाथ से गठरी लेकर बजड़े की छत पर पहुँचा दिया और दूसरे ने उस आदमी को हाथ का हल्का सा सहारा देकर बजड़े पर चढ़ा लिया। वह भी छत पर उस औरत के सामने खड़ा हो गया और तब इशारे से पूछा कि ‘अब क्या हुक़्म होता है’? जिसके जवाब में इशारे से ही उस औरत ने गंगा के उस पार की तरफ़ को चलने को कहा। उस आदमी ने जो अभी आया था माझियों को पुकारकर कहा कि बजड़ा उस पार ले चलो, इसके बाद अभी आये हुए आदमी और औरत में दो-चार बातें इशारे से हुईं जिसे हम कुछ नहीं समझे, हाँ इतना मालूम हो गया कि यह औरत गूँगी और बहरी है, मुँह से कुछ नहीं बोल सकती और न कान से सुन सकती है।

बजड़ा किनारे से खोला गया और पार की तरफ़ चला, चार माँझी डाँड़े लगाने लगे। वह औरत छत से उतरकर नीचे चली गयी और मर्द भी अपनी गठरी को जो लाया था, लेकर छत से नीचे उतर आया। बजड़े में नीचे दो कोठरियाँ थीं, एक में सुन्दर सुफेद फ़र्श बिछा हुआ था और दूसरी में एक चारपाई बिछी और कुछ असबाब पड़ा हुआ था। यह औरत हाथ के इशारे से कुछ इशारा करके फ़र्श पर बैठ गयी और मर्द ने एक पटिया लकड़ी की और छोटी-सी टुकड़ी खड़िया की उसके सामने रख दी और आप भी बैठ गया और दोनों में बातचीत होने लगी मगर उसी लकड़ी की पटिया पर खड़िया से लिखकर। अब उन दोनों में जो बातचीत हुई हम नीचे लिखते हैं परन्तु पाठक समझ रक्खें कि कुल बातचीत लिखकर हुई।

पहिले उस औरत ने गठरी खोली और देखने लगी कि उसमें क्या है। पीतल का एक कमलदान निकला जिसे उस औरत ने खोला। पाँच-सात चीठियाँ और पुर्जे निकले जिन्हें पढ़कर उसी तरह रख दिया और दूसरी चीज़ें देखने लगीं। दो-चार तरह के रुमाल और कुछ पुराने सिक्के देखने बाद टीन का एक बड़ा-सा डिब्बा खोला जिसके अन्दर कोई ताज्जुब की चीज़ थी। डिब्बा खोलने के बाद पहिले कुछ कपड़ा हटाया जो बेठन की तौर पर लगा हुआ था, इसके बाद झाँककर उस चीज़ को देखा जो उस डिब्बे के अन्दर थी।

न मालूम उस डिब्बे में क्या चीज़ थी जिसे देखते ही उस औरत की अवस्था बिल्कुल बदल गयी। झाँक के देखते ही वह हिचकी और पीछे की तरफ़ हट गयी। पसीने से तर हो गयी और बदन काँपने लगा, चेहरे पर हवाई उड़ने लगी और आँखें बन्द हो गयीं। उस आदमी ने फुर्ती से बेठन का कपड़ा डाल दिया और उस डिब्बे को उसी तरह बन्द कर उस औरत के सामने से हटा लिया। उसी समय बजड़े के बाहर से एक आवाज़ आयी, ‘‘नानकजी!’’

नानकप्रसाद उसी आदमी का नाम था जो गठरी लाया था। उसका कद न लम्बा और न बहुत नाटा था। बदन मोटा, रंग गोरा, और ऊपर के दाँत कुछ खुड़बुड़े से थे। आवाज़ सुनते ही वह आदमी उठा और बाहर आया, मल्लाहों ने डाँड लगाना बन्द कर दिया था, तीन सिपाही मुस्तैद दरवाज़े पर खड़े थे।

नानक : (एक सिपाही से) क्या है?

सिपाही : (पार की तरफ़ इशारा करके) मुझे मालूम होता है कि उस पार बहुत से आदमी खड़े हैं। देखिए कभी-कभी बादल हट जाने से जब चन्द्रमा की रोशनी पड़ती है तो साफ़ मालूम होता है कि वे लोग भी बहाव की तरफ़ हटे ही जाते हैं, जिधर हमारा बजड़ा जा रहा है।

नानक : (गौर से देखकर) हाँ ठीक तो है।

सिपाही : क्या ठिकाना शायद हमारे दुश्मन ही हों!

नानक : कोई ताज्जुब नहीं, अच्छा तुम नाव को बहाव की तरफ़ जाने दो, पार मत चलो।

इतना कहकर नानकप्रसाद अन्दर गया, तब तक औरत के भी हवास ठीक हो गये थे और वह उस टीन के डिब्बे की तरफ़ जो इस समय बन्द था, बड़े गौर से देख रही थी। नानक को देखकर इशारे से पूछा, ‘‘क्या है?’’

इसके जवाब में नानक ने लकड़ी की पटिया पर खड़िया से लिखकर दिखाया कि ‘पार की तरफ़ बहुत से आदमी दिखायी पड़ते हैं, कौन ठिकाना शायद हमारे दुश्मन हों’।

औरत : (लिखकर) बजड़े को बहाव की तरफ़ जाने दो। सिपाहियों को कहो बन्दूक लेकर तैयार रहें, अगर कोई जल में तैरकर यहाँ आता हुआ दिखायी पड़े तो बेशक गोली मार दें।

नानक : बहुत अच्छा।

नानक फिर बाहर आया और सिपाहियों को हुक़्म सुनाकर भीतर चला गया। उस औरत ने अपने आँचल से एक ताली खोलकर नानक के हाथ में दी और इशारे से कहा कि इस टिन के डिब्बे को हमारे सन्दूक में रख दो।

नानक ने वैसा ही किया, दूसरी कोठरी में जिसमें पलँग बिछा हुआ था और कुछ असबाब और सन्दूक रक्खा हुआ था, गया और उसी ताली से एक सन्दूक खोलकर वह टीन का डिब्बा रख दिया और उसी तरह ताला बन्द कर, ताली उस औरत के हवाले की। उसी समय बाहर से बन्दूक की आवाज़ आयी।

नानक ने तुन्त बाहर जाकर पूछा, ‘‘क्या है?’’

सिपाही : देखिए कई आदमी तैरकर इधर आ रहे हैं।

दूसरा : मगर बन्दूक की आवाज़ पाकर अब लौट चले।

नानक फिर अन्दर गया और बाहर का हाल पटिया पर लिखकर औरत को समझाया। वह भी उठ खड़ी हुई और बाहर आकर पार की तरफ़ देखने लगी। घण्टा-भर यों ही गुज़र गया और अब वे आदमी जो पार दिखायी दे रहे थे या तैरकर इस बजड़े की तरफ़ आ रहे थे, कहीं चले गये, दिखायी नहीं देते। नानकप्रसाद को साथ आने का इशारा करके, वह औरत फिर बजड़े के अन्दर चली गयी और पीछे नानक गया। उस गठरी में और जो-जो चीज़ें थीं वह गूँगी औरत देखने लगी। तीन-चार बेशक़ीमती मर्दाने कपड़ों के सिवाय और उस गठरी में कुछ भी न था। गठरी बाँधकर एक किनारे रख दी गयी और पटिया पर लिख-लिखकर दोनों में बातचीत होने लगी।

औरत : कमलदान में जो चीठियाँ हैं, वे तुमने कहाँ से पायीं?

नानक : उसी कमलदान में थीं।

औरत : और वह कमलदान कहाँ पर था?

नानक : उसकी चारपाई के नीचे पड़ा हुआ था, घर में सन्नाटा था और कोई दिखायी न पड़ा, जो कुछ जल्दी में पाया ले आया।

औरत : ख़ैर कोई हर्ज़ नहीं। हमें केवल उस टीन के डिब्बे से मतलब था यह कमलदान मिल गया तो इन चीठी-पुर्जों से भी बहुत काम चलेगा।

इसके अलावे और कई बातें हुईं जिनके लिखने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं। पहर रात से ज़्यादे जा चुकी थी, जब वह औरत वहाँ से उठी और शमादान जो जल रहा था बुझा, अपनी चारपायी पर लेट रही।

नानक भी एक किनारे फ़र्श पर सो रहा और रात-भर नाव बेखटक चली गयी, कोई बात ऐसी नहीं हुई कि जो लिखने योग्य हो।

जब थोड़ी रात बाक़ी रही, वह औरत अपनी चारपायी से उठी और खिड़की से बाहर झाँककर देखने लगी। इस समय आसमान बिल्कुल साफ़ था, चन्द्रमा के साथ-ही-साथ तारे भी समयानुसार अपनी चमक दिखा रहे थे और दो-तीन खिड़कियों की राह इस बजड़े के अन्दर भी चाँदनी आ रही थी। बल्कि जिस चारपाई पर वह औरत सोयी हुई थी, चन्द्रमा की रोशनी अच्छी पड़ रही थी। वह औरत धीरे से चारपाई के नीचे उतरी और उस सन्दूक को खोला, जिसमें नानक का लाया हुआ टिन का डिब्बा रखवा दिया था। डिब्बा उसमें से निकालकर चारपाई पर रक्खा और सन्दूक बन्द करने के बाद दूसरा सन्दूक खोलकर उसमें से एक मोम लेकर उसने टीन के डिब्बे के दरारों को अच्छी तरह बन्द किया और हर एक जोड़ में मोम लगाया, जिसमें हवा तक भी उसके अन्दर न जा सके। इस काम के बाद वह खिड़की के बाहर गर्दन निकालकर बैठी और किनारे की तर देखने लगी। दो माँझी धीरे-धीरे डाँड़ खे रहे थे, जब वे थक जाते तो दूसरे दो को उठाकर उसी काम पर लगा देते और आप आराम करते।

सवेरा होते-होते वह नाव एक ऐसी जगह पहुँची जहाँ किनारे पर कुछ आबादी थी, बल्कि गंगा के किनारे ही एक ऊँचा शिवालय भी था और उतरकर गंगा जी में स्नान करने के लिए सीढ़ियाँ भी बनी हुई थीं। औरत ने उस मुकाम को अच्छी तरह देखा और जब वह बजड़ा, उस शिवालय के ठीक सामने पहुँचा तब उसने टीन का डिब्बा, जिसमें कोई अद्भुत वस्तु थी और जिसके सूराखों को उसने अच्छी तरह मोम से बन्द कर दिया था, जल में फेंक दिया और फिर अपनी चारपाई पर लेट रही। यह हाल किसी दूसरे को मालूम न हुआ। थोड़ी ही देर में वह आबादी पीछे रह गयी और बजड़ा दूर निकल गया।

जब अच्छी तरह सवेरा हुआ और सूर्य की लालिमा निकल आयी तो उस औरत के हुक़्म के मुताबिक बजड़ा एक जंगल के किनारे पहुँचा। उस औरत ने किनारे-किनारे चलने का हुक़्म दिया। यह किनारा इसी पार का था जिस तरफ़ काशी पड़ती है या जिस हिस्से से बजड़ा खोलकर सफर शुरू किया गया था।

बजड़ा किनारे-किनारे जाने लगा और वह औरत किनारे के दरख्तों को बड़े गौर से देखने लगी। जंगल गुंजान और रमणीक था, सुबह के सुहावने समय में तरह-तरह के पक्षी बोल रहे थे, हवा के झपेटों के साथ जंगली फूलों की मीठी खुशबू आ रही थी। वह औरत एक खिड़की में सिर रक्खे जंगल की शोभा देख रही थी। यकायक उसकी निगाह किसी चीज़ पर पड़ी जिसे देखते ही वह चौंकी और बाहर आकर बजड़ा रोकने और किनारे लगाने का इशारा करने लगी।

बजड़ा किनारे लगाया गया और वह गूँगी औरत अपने सिपाहियों को कुछ इशारा करके नानक को साथ लेकर नीचे उतरी।

घण्टे भर तक वह जंगल में घूमती रही, इस बीच में उसने अपने ज़रूरी काम और नहाने-धोने से छुट्टी पा ली और तब बजड़े में आकर कुछ भोजन करने के बाद, उसने अपनी मर्दानी सूरत बनायी। चुस्त पायजामा, घुटने के ऊपर तक का चकपन, कमरबन्द, सर से बड़ा-सा मुड़ासा बाँधा और ढाल-तलवार खंजर के अलावे एक छोटी-सी पिस्तौल, जिसमें गोली भरी हुई थी कमर में छिपा और थोड़ी-सी गोली-बारूद भी पास रख बजड़े से उतरने के लिए तैयार हुई।

नानक ने उसकी ऐसी अवस्था देखी तो सामने आकर खड़ा हो गया और इशारे से पूछने लगा कि अब हम क्या करें? इसके जवाब में उस औरत ने पटिया और खड़िया माँगी और लिख लिखकर दोनों में बातचीत होने लगी।

औरत : तुम इसी बजड़े पर अपने ठिकाने पर चले जाओ। मैं तुमसे आ मिलूँगी!

नानक : मैं किसी तरह तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता, तुम खूब जानती हो कि तुम्हारे लिए मैंने कितनी तक़लीफ़ें उठायी हैं और नीचे-से-नीचे काम करने को तैयार रहा हूँ।

औरत : तुम्हारा कहना ठीक हैं मगर मुझ गूँगी के साथ तुम्हारी ज़िन्दगी खुशी से नहीं बीत सकती, हाँ तुम्हारी मुहब्बत के बदले मैं तुम्हें अमीर किये देती हूँ और जिसके जरिये तुम खूबसूरत से खूबसूरत औरत ढूँढ़कर शादी कर सकते हो।

नानक : अफ़सोस, आज तुम इस तरह की नसीहत करने पर उतारू हुई और मेरी सच्ची मुहब्बत का कुछ ख़याल न किया। मुझे धन-दौलत की परवाह नहीं और न मुझे तुम्हारे गूँगी होने का रंज है, बस मैं इस बारे में ज़्यादे बातचीत नहीं करना चाहता, या तो मुझे कबूल करो या साफ़ जवाब दो ताकि मैं इसी जगह तुम्हारे सामने अपनी जान देकर हमेशा के लिए छुट्टी पाऊँ। मैं लोगों के मुँह से यह नहीं सुना चाहता कि ‘रामभोली के साथ तुम्हारी मुहब्बत सच्ची न थी और तुम कुछ न कर सके’।

रामभोली : (गूँगी औरत) अभी मैं अपने कामों से निश्चिन्त नहीं हुई, जब आदमी बेफ़िक्र होता है तो शादी-ब्याह और हँसी-खुशी की बातें सूझती हैं, मगर इसमें शक नहीं कि तुम्हारी मुहब्बत सच्ची है और मैं तुम्हारी कद्र करती हूँ।

नानक : जब तक तुम अपने कामों से छुट्टी नहीं पाती मुझे अपने साथ रक्खो, मैं हर काम में तुम्हारी मदद करूँगा और जान तक दे देने को तैयार रहूँगा।

रामभोली : ख़ैर इस बात को मैं मंजूर करती हूँ, सिपाहियों को समझा दो कि बजड़े को ले जायें और इसमें जो कुछ चीज़ें हैं, अपनी हिफ़ाजत में रक्खे, क्योंकि वह लोहे का डिब्बा भी जो तुम कल लाये थे मैं इसी नाव में छोड़े जाती हूँ।

नानकप्रसाद खुशी के मारे ऐंठ गये। बाहर आकर सिपाहियों को बहुत-कुछ समझाने-बुझाने के बाद आप भी हर तरह से लैस हो बदन पर हर्बे लगा, साथ चलने को तैयार हो गये। रामभोली और नानक बजड़े के नीचे उतरे। इशारा पाकर माँझियों ने बजड़ा खोल दिया और वह फिर बहाव की तरफ़ जाने लगा।

नानक को साथ लिये रामभोली जंगल में घुसी। थोड़ी ही दूर जाकर वह एक ऐसी जगह पहुँची, जहाँ बहुत-सी पगडण्डियाँ थीं, खड़ी होकर चारों तरफ़ देखने लगी। उसकी निगाह एक कटे हुए साखू के पेड़ पर पड़ी, जिसके पत्ते सूखकर गिर चुके थे। वह उस पेड़ के पास जाकर खड़ी हो गयी और इस तरह चारों तरफ़ देखने लगी, जैसे कोई निशानी ढूँढ़ती हो। उस जगह की ज़मीन बहुत पथरीली और ऊँची नीची थी। लगभग पचास गज की दूरी पर एक पत्थर का ढेर नज़र आया जो आदमी के हाथ का बनाया हुआ मालूम होता था। वह उस पत्थर के ढेर के पास गयी और दम लेने या सुस्ताने के लिए बैठ गयी। नानक ने अपना कमरबन्द खोला और एक पत्थर की चट्टान झाड़कर उसे बिछा दिया, रामभोली उसी पर जा बैठी और नानक को अपने पास बैठने का इशारा किया।

ये दोनों आदमी अभी सुस्ताने भी न पाये थे कि सामने से एक सावर सुर्ख पोशाक पहिरे इन्हीं दोनों की तरफ़ आता हुआ दिखायी पड़ा। पास आने पर मालूम हुआ कि यह एक नौजवान औरत है, जो बड़े ठाठ के साथ हर्बे लगाये, मर्दों की तरह घोड़े पर बैठी बहादुरी का नमूना दिखा रही है। यह रामभोली के पास आकर खड़ी हो गयी और उस पर एक भेद वाली नज़र डालकर हँसी। रामभोली ने भी उसकी हँसी का जवाब मुस्कुराकर दिया और कनखियों से नानक की तरफ़ इशारा किया। उस औरत ने रामभोली को अपने पास बुलाया और जब वह घोड़े के पास जाकर खड़ी हो गयी तो आप घोड़े से नीचे उतर पड़ी। कमर से एक छोटा-सा बटुआ खोल, एक चीठी और एक अँगूठी निकाली, जिसपर एक सुर्ख नगीना जड़ा हुआ था और रामभोली के हाथ में रख दिया।

रामभोली का चेहरा गवाही दे रहा था कि वह इस अँगूठी को पाकर हद्द से ज़्यादे खुश हुई है। रामभोली ने इज्जत देने के ढंग पर उस अँगूठी को सिर से लगाया और इसके बाद अपनी अँगुली में पहिर लिया, चीठी कमर में खोंसकर फुर्ती से उस घोड़े पर सवार हो गयी और देखते-ही-देखते जंगलों में घुसकर नज़रों से ग़ायब हो गयी।

नानकप्रसाद यह तमाशा देख भौचक-सा रह गया, कुछ करते-धरते बन न पड़ा। न मुँह से कोई आवाज़ निकली और न हाथ के इशारे ही से कुछ पूछ सका, पूछता भी तो किससे? रामभोली ने तो नज़र उठाके उसकी तरफ़ देखा तक नहीं। नानक बिल्कुल नहीं जानता था कि वह सुर्ख पोशाक वाली औरत है कौन जो यकायक यहाँ आ पहुँची और जिसने इशारेबाजी करके रामभोली को अपने घोड़े पर सवार कर भगा दिया। वह औरत नानक के पास गयी और हँसकर बोली—

औरत : वह औरत जो तेरे साथ थी, मेरे घोड़े पर सावर होकर चली गयी, कोई हर्ज़ नहीं, मगर तू उदास क्यों हो गया? क्या तुझसे और उससे कोई रिश्तेदारी थी?

नानक : रिश्तेदारी थी तो नहीं मगर होनेवाली थी, तुमने सब चौपट कर दिया!

औरत : (मुस्कुराकर) क्या उससे शादी करने की धुन समायी थी?

नानक : बेशक ऐसा ही था। वह मेरी हो चुकी थी, तुम नहीं जानती कि मैंने उसके लिए कैसी-कैसी तक़लीफ़ें उठायीं। अपने बाप-दादे की जमींदारी चौपट की और उसकी गुलामी करने पर तैयार हुआ।

औरत : (बैठकर) किसकी गुलामी?

नानक : उसी रामभोली की जो तुम्हारे घोड़े पर सवार हो चली गयी।

औरत : (चौंककर) क्या नाम लिया, ज़रा फिर तो कहो?

नानक : (रामभोली)।

औरत : (हँसकर) बहुत ठीक, तू मेरी सखी अर्थात् उस औरत को कब से जानता है!

नानक : (कुछ चिढ़कर और मुँह बनाकर) मैं उसे लड़कपन से जानता हूँ मगर तुम्हें सिवाय आज के कभी नहीं देखा, वह तुम्हारी सखी क्योंकर हो सकती है?

औरत : तू झूठा बेवकूफ और उल्लू बल्कि उल्लू का इत्र है! तू मेरी सखी को क्या जाने, जब तू मुझे नहीं जानता तो उसे क्योंकर पहिचान सकता है?

उस औरत की बातों ने नानक को आपे से बाहर कर दिया। वह एकदम चिढ़ गया और गुस्से में आकर म्यान से तलवार निकालकर बोला—

नानक : कम्बख्त औरत, तैं मुझे बेवकूफ बनाती है! जली-कटी बातें कहती है और मेरी आँखों में धूल डाला चाहती है? अभी तेरा सिर काट के फेंक देता हूँ!!

औरत : (हँसकर) शाबाश, क्यों न हो, आप जवाँमर्द जो ठहरे! (नानक के मुँह के पास चुटकियाँ बजाकर) चेत ऐंठासिंह, ज़रा होश की दवा कर!

अब नानकप्रसाद बर्दाश्त न कर सका और यह कहकर कि ‘ ॉले अपने किये का फल भोग’! उसने तलवार का वार उस औरत पर किया। औरत ने फुर्ती से अपने को बचा लिया और हाथ बढ़ा नानक की कलाई पकड़, ज़ोर से ऐसा झटका दिया कि तलवार उसके हाथ से निकलकर दूर जा गिरी और नानक आश्चर्य में आकर, उसका मुँह देखने लगा। औरत ने हँसकर कहा, ‘‘बस इसी जवाँमर्दी पर मेरी सखी से ब्याह करने का इरादा था! बस जा और हिजड़ों में मिलकर नाचा कर!’’

इतना कहकर औरत हट गयी और पश्चिम की तरफ़ रवाना हुई। नानक का क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ था। उसने अपनी तलवार जो दूर पड़ी हुई थी उठाकर म्यान में रख ली और कुछ सोचता और दाँत पीसता हुआ उस औरत के पीछे-पीछे चला। वह औरत इस बात से भी होशियार थी कि नानक पीछे से आकर धोखे में तलवार न मारे, वह कनखियों से पीछे की तरफ़ देखती जाती थी।

थौड़ी दूर जाने के बाद वह औरत एक कूँए पर पहुँची जिसका संगीन चबूतरा एक पुर्से से कम ऊँचा न था। चारों तरफ़ देखने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। कुआँ बहुत बड़ा और खूबसूरत था। वह औरत कुएँ पर चली गयी और बैठकर धीरे-धीरे कुछ गाने लगी।

समय दोपहर का था, धूप खूब कली थी, मगर इस जगह कुएँ के चारों तरफ़ घने पेड़ों की ऐसी छाया थी और ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी कि नानक की तबियत खुश हो गयी, क्रोध, रंज और बदला लेने का ध्यान बिल्कुल ही जाता रहा, तिस पर उस औरत की सुरीली आवाज़ ने और भी रंग जमाया। वह उस औरत के सामने जाकर बैठ गया और उसका मुँह देखने लगा। दो ही तीन तान लेकर वह औरत चुप हो गयी और नानक से बोली—

औरत : अब तू मेरे पीछे-पीछे क्यों घूम रहा है? जहाँ तेरा जी चाहे जा और अपना कम कर, व्यर्थ समय क्यों नष्ट करता है? अब तुझे तेरी रामभोली किसी तरह नहीं मिल सकती, उसका ध्यान अपने दिल से दूर कर दे।

नानक : रामभोली झक मारेगी और मेरे पास अवेगी, वह मेरे कब्ज़े में है उसकी एक चीज़ मेरे पास है, जिसे वह जीतेजी कभी नहीं छोड़ सकती।

औरत : (हँसकर) इसमें कोई शक नहीं कि तू पागल है, तेरी बातें सुनने से हँसी आती है ख़ैर तू जान तेरा कम जाने, मुझे इससे क्या मतलब!

इतना कहकर उस औरत ने कुँए में झाँका और पुकारकर कहा, ‘‘कूपदेव मुझे प्यास लगी है, ज़रा पानी तो पिलाना।’’

औरत की बात सुनकर नानक घबराया और जी में सोचने लगा कि यह अजब औरत है। कूएँ पर हुकूमत चलाती है और कहती है कि मुझे पानी पिला। यह औरत मुझे पागल कहती है मगर मैं इसी को पागल समझता हूँ, भला कूँआ इसे क्योंकर पानी पिलावेगा? जो हो, मगर यह औरत खूबसूरत है और इसका गाना भी बहुत उम्दा है।

नानक इन बातों को सोच ही रहा था कि कोई चीज़ देखकर चौंक पड़ा बल्कि घबड़ाकर उठ खड़ा हुआ और काँपते हुए तथा डरी हुई सूरत से कुँए की तरफ़ देखने लगा। वह एक हाथ था, जो चाँदी के कटोरे में साफ़ और ठण्डा जल लिये हुए कुएँ के अन्दर से निकला और इसी को देखकर नानक घबड़ा गया था।

वह हाथ किनारे आया, उस औरत ने कटोरा ले लिया और जल पीने के बाद कटोरा उसी हाथ पर रख दिया, हाथ कुएँ के अन्दर चला गया और वह औरत फिर उसी तरह गाने लगी। नानक ने अपने जी में कहा, ‘‘नहीं-नहीं, यह औरत पागल नहीं बल्कि मैं ही पागल हूँ, क्योंकि इसे अभी तक न पहिचान सका। बेशक यह कोई गन्धर्व या अप्सरा है, नहीं नहीं, देवनी है जो रूप बदलकर आयी है तभी तो इसके बदन में इतनी ताक़त है कि मेरी कलाई पकड़ और झटका देकर इसने तलवार गिरा दी। मगर रामभोली से इसका परिचय कहाँ हुआ?’’

गाते-गाते वह औरत उठ खड़ी हुई और बड़े ज़ोर से चिल्लाकर उसी कूएँ में कूद पड़ी।

 

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