मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्रीDownload Book
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
सातवाँ बयान
लाल पोशाक़वाली औरत की अद्भुत बातों ने नानक को हैरान कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ़ देखने लगा और डर के मारे उसकी अजब हालत हो गयी। वह उस कुएँ पर भी ठहर न सका और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ इस उम्मीद से गंगा जी की तरफ़ रवाना हुआ कि अगर हो सके तो किनारे-किनारे चलकर उस बजड़े तक पहुँच जाय मगर यह भी न हो सका क्योंकि उस जंगल में बहुत-सी पगडण्डियाँ थीं जिनपर चलकर वह रास्ता भूल गया और किसी दूसरी ही तरफ़ जाने लगा।
नानक लगभग आधा कोस के गया होगा कि प्यास के मारे बेचैन हो गया। वह जल खोजने लगा मगर उस जंगल में कोई चश्मा या सोता ऐसा न मिला जिससे प्यास बुझाता आख़िर घूमते-घूमते उसे पत्ते की एक झोपड़ी नज़र पड़ी, जिसे वह किसी फकीर की कुटिया समझकर उसी तरफ़ चल पड़ा मगर पहुँचने पर मालूम हुआ कि उसने धोखा खाया। उस जगह कई पेड़ ऐसे थे जिनकी डालियाँ झुककर और आपस में मिलकर ऐसी हो रही थीं कि दूर से झोपड़ी मालूम पड़ती थी, तो भी नानक के लिए वह जगह बहुत उत्तम थी क्योंकि उन्हीं पेड़ों में से एक चश्मा साफ़ पानी का बहता हुआ दिखायी पड़ा जिसेक दोनों तरफ़ खुशनुमा सायेंदार पेड़ लगे हुए थे, जिन्होंने एक तौर पर उस चश्मे को भी अपने साये के नीचे कर रक्खा था नानक खुशी-खुशी चश्मे के किनारे पर पहुँचा और हाथ मुँह धोने के बाद जल पीकर आराम से बैठ गया।
थोड़ी देर चश्मे के किनारे बैठे रहने के बाद दूर से कोई चीज़ पानी में बहकर इसी तरफ़ आती हुई नानक ने देखी। पास आने पर मालूम हुआ कि कोई कपड़ा है। वह जल में उतर गया और कपड़े को खैंच-लाकर गौर से देखने लगा क्योंकि यह वही कपड़ा था जो बजड़े से उतरते समय रामभोली ने अपने कमर में लपेटा था।
नानक ताज्जुब में आकर देर तक उस कपड़े को देखता रहा और तरह-तरह की बातें सोचता रहा। रामभोली उसके देखते-देखते घोड़े पर सवार हो चली गयी थी, फिर उसे क्योंकर विश्वास हो सकता था कि यह कपड़ा रामभोली का है। तो भी उसने कई दफे अपनी आँखें मलीं और उस कपड़े को देखा, आख़िर विश्वास करना ही पड़ा कि यह रामभोली की चादर है। रामभोली से मिलने की उम्मीद में वह चश्मे के किनारे-किनारे रवाना हुआ क्योंकि उसे इस बात का गुमान हुआ कि घोड़े पर सवार होकर चले जाने के बाद रामभोली ज़रूर कहीं पर इस चश्मे के किनारे पहुँची होगी और किसी सबब से यह कपड़ा जल में गिर गया होगा।
नानक चश्मे के किनारे-किनारे कोस भर के लगभग चला गया और चश्मे के दोनों तरफ़ उसी तरह सायेदार पेड़ मिलते गये, यहाँ तक कि दूर से उसे एक छोटे-से मकान की सुफेदी नज़र आयी। यह सोचकर खुश हुआ कि शायद इसी मकान में रामभोली से मुलाक़ात होगी, कदम बढ़ाता हुआ तेज़ी से जाने लगा और थोड़ी देर में उस मकान के पास जा पहुँचा।
वह मकान चश्मे के बीचोबीच में पुल के तौर पर बना हुआ था। चश्मा बहुत चौड़ा न था, उसकी चौड़ाई बीस-पच्चीस हाथ से ज़्यादे न होगी। चश्मे के दोनों पार की ज़मीन इस मकान के नीचे आ गयी थी और बीच में पानी बह जाने के लिए इस नहर की चौड़ाई के बराबर पुल की तरह का एक दर बना हुआ था, जिसके ऊपर छोटा-सा एक मंजिला मकान निहायत खूबसूरत बना हुआ था। नानक इस मकान को देखकर बहुत ही खुश हुआ और सोचने लगा कि यह ज़रूर किसी मनचले शौक़ीन का बनवाया हुआ होगा। इस मकान के अन्दर चलकर देखना चाहिए, खाली है या कोई इसमें रहता है। नानक उस मकान के सामने की तरफ़ गया। उसकी कुर्सी बहुत ऊँची थी, पन्द्रह सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद दरवाज़े पर पहुँचा। दरवाज़ा खुला हुआ था, बेधड़क अन्दर घुस गया।
इस मकान के चारों कोनों में चार कोठरियाँ और चारों तरफ़ चार दालान बरामदे की तौर पर थे जिसके आगे कमर बराबर ऊँचा जंगला लगा हुआ था अर्थात् हरएक दालान के दोनों बगल कोठरियाँ पड़ती थीं, और बीचोबीच में एक भारी कमरा था। इस मकान में किसी तरह की सजावट न थी मगर साफ़ था।
दरवाज़े के अन्दर पैर रखते ही बीचवाले कमरे में बैठे हुए एक साधू पर नानक की निगाह पड़ी। वह मृगछाले पर बैठा हुआ था। उसकी उम्र अस्सी वर्ष से भी ज़्यादे होगी। उसके बाद रुई की तरह सुफेद हो रहे थे, लम्बे-लम्बे सर के बाल सूखे और खुले रहने के सबब से खूब फैले हुए थे, और दाढ़ी नाभी तक लटक रही थी। कमर में मूँज की रस्सी के सहारे कोपीन थी, और कोई कपड़ा उसके बदन पर न था, गले में जनेऊ पड़ा हुआ था और उसके दमकते हुए चेहरे पर बुजुर्गी और तपोबल की निशानी पायी जाती थी। जिस समय नानक की निगाह उस साधू पर पड़ी वह पद्मासन बैठा हुआ ध्यान में मग्न था, आँखें बन्द थीं और हाथ जंघे पर पड़े हुए थे। नानक उसके सामने जाकर देर तक खड़ा रहा मगर उसे कुछ ख़बर न हुई। नानक ने सर उठाकर चारों तरफ़ अच्छी तरह देखा मगर सिवाय बड़ी-बड़ी दो तस्वीरों के जीन पर पर्दा पड़ा हुआ था और साधू के पीछे की तरफ़ दीवार के साथ लगी हुई थी और कुछ कहीं दिखायी न पड़ा।
नानक को ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि इस मकान में किसी तरह का समान नहीं है, फिर महात्मा का गुजर क्योंकर चलता होगा? और वे दोनों तस्वीरें कैसी हैं, जिनका रहना इस मकान में ज़रूरी समझा गया! इसी फ़िक्र में वह चारों तरफ़ घूमने और देखने लगा। उसने हर एक दालान और कोठरी की सैर की मगर कहीं एक तिनका भी नज़र न आया, हाँ एक कोठरी में वह जा न सका, जिसका दरवाज़ा बन्द था मगर ज़ाहिर में कोई ताला या जंजीर उसमें दिखायी न दी, मालूम नहीं वह क्योंकर बन्द था। घूमता-फिरता नानक बगल के दालान में आया और बरामदे में झाँककर नीचे की बहार देखने लगा और इसी में उसने घण्टा-भर बिता दिया।
घूम-घूमकर पुनः बाबाजी के पास गया मगर उन्हें उसी तरह आँखें बन्द किये बैठा पाया। लाचार इस उम्मीद में एक किनारे बैठ गया कि आख़िर कभी तो आँख खुलेगी। शाम होते-होते बगल की कोठरी में से जिसका दरवाज़ा बन्द था और जिसके अन्दर नानक जा न सका, शंख बजने की आवाज़ आयी। नानक को बड़ा ही ताज्जुब हुआ मगर उस आवाज़ ने साधू का ध्यान तोड़ दिया। आँख खुलते ही नानक पर उसकी नज़र पड़ी।
साधू : तू कौन है और यहाँ क्योंकर आया है?
नानक : मैं मुसाफ़िर हूँ, आफ़त का मारा, भटकता हुआ इधर आ निकला। यहाँ आपके दर्शन हुए, दिल में बहुत उम्मीदें पैदा हुईं।
साधू : मनुष्य से किसी तरह की उम्मीद न रखनी चाहिए, ख़ैर यह बता तेरा मकान कहाँ है और इस जंगल में जहाँ आकर वापस जाना मुश्किल है, कैसे आया?
नानक : मैं काशी का रहने वाला हूँ, कार्यवश एक औरत के साथ जो मेरे मकान के बगल ही में रहा करती थी, यहाँ आना हुआ, इस जंगल में उस औरत का साथ छूट गया और ऐसी विचित्र बातें देखने में आयीं जिनके डर से अभी तक मेरा कलेजा काँप रहा है।
साधू : ठीक है, तेरा कलेजा बहुत बड़ा मालूम होता है जिसके सुनने की अभी मुझे फुरसत नहीं, ज़रा ठहर मैं एक काम से छुट्टी पा लूँ तो तुझसे बात करूँ। घबराइयो नहीं, मैं ठीक एक घण्टे में आऊँगा।
इतना कहकर साधू वहाँ से चला गया। दरवाज़े की आवाज़ और अन्दाज़ से नानक को मालूम हुआ कि साधू उसी कोठरी में गया जिसका दरवाज़ा बन्द था और जिसके अन्दर नानक जा न सका था। लाचार नानक बैठा रहा मगर इस बात से कि साधू को आने में घण्टे-भर की देर लगेगी वह घबराया और सोचने लगा कि तब तक क्या करना चाहिए। यकायक उसका ध्यान उन दोनों तस्वीरों पर गया जो दीवार के साथ लगी हुई थीं। जी में आया कि इस समय यहाँ सन्नाटा है, साधू महाशय भी नहीं हैं, ज़रा पर्दा उटाकर देखें तो यह तस्वीर किसकी है।
नहीं-नहीं, कहीं ऐसा न हो कि साधू आ जाँय, अगर देख लेगें तो रंज होंगे, जिस तस्वीर पर पर्दा पड़ा हो, उसे बिना आज्ञा कभी न देखना चाहिए। लेकिन अगर देख ही लेंगे तो क्या होगा? साधू तो आप ही कह गये हैं कि हम घण्टे-भर में आवेंगे, फिर डर किसका है?
नानक : एक तस्वीर के पास गया और डरते-डरते पर्दा उठाया। तस्वीर पर निगाह पड़ते ही वह ख़ौफ़ से चिल्ला उठा, हाथ से पर्दा गिर पड़ा, हाँफता हुआ पीछे हटा और अपनी जगह आकर बैठ गया, यह हिम्मत न पड़ी कि दूसरी तस्वीर देखे।
वह तस्वीर दो औरत और एक मर्द की थी, नानक उन तीनों को पहिचानता था। एक औरत तो रामभोली और दूसरी वह थी जिसके घोड़े पर सवार होकर रामभोली चली गयी थी और जो नानक के देखते-देखते कूएँ में कूद पड़ी थी, तीसरी तस्वीर नानक के पिता की थी। उस तस्वीर का भाव यह था कि नानक का पिता ज़मीन पर गिरा पड़ा हुआ था, दूसरी औरत उसके सर के बाल पकड़े हुए थी, रामभोली उसकी छाती पर सवार गले पर छूरी फेर रही थी।
इस तस्वीर को देककर नानक की अजब हालत हो गयी। वह एकदम घबड़ा उठा और बीती हुई बातें उसकी आँखों के सामने इस तरह मालूम होने लगीं जैसे आज हुई हैं। अपने बाप की हालत याद कर उसकी आँखें डबडबा आयीं और कुछ देर तक सिर नीचा किये कुछ सोचता रहा। आख़ीर में उसने एक लम्बी साँस ली और सिर उठाकर कहा, ‘‘ओफ! क्या मेरा बाप इन औरतों के हाथ से मारा गया? नहीं कभी नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मगर इस तत्वीर में ऐसी अवस्था क्यों दिखायी गयी है?
बेशक दूसरी तरफ़ वाली तस्वीर भी कुछ ऐसे ही ढंग की होगी और उसका भी सम्बन्ध मुझ ही से होगा! जी घबराता है, यहाँ बैठना मुश्किल है!’’ इतना कह नानक उठ खड़ा हुआ और बाहर बरामदे में जाकर टहलने लगा। सूर्य बिल्कुल अस्त हो गये, शाम की पहिली अँधेरी चारों तरफ़ फैल गयी और धीरे-धीरे अन्धकार का नमूना भी दिखाने लगी, इस मकान में भी अँधेरा हो गया और नानक सोचने लगा कि यहाँ रोशनी का कोई सामान दिखायी नहीं पड़ता, क्या बाबाजी अँधेरे ही में रहते हैं। ऐसा सुन्दर साफ़ मकान मगर बालने के लिए दीया तक नहीं और सिवाय एक मृछाला के जिस पर बाबाजी बैठते हैं एक चटायी तक नज़र नहीं आती। शायद इसका सबब यह हो कि यहाँ की ज़मीन बहुत साफ़, चिकनी और धोई हुई है।
इस तरह के सोच-विचार में नानक को दो घण्टे बीत गये। यकायक उसे याद आया कि बाबाजी एक घण्टे का वादा करके गये थे, अब वह अपने ठिकाने आ गये होंगे और वहाँ मुझे न देख न मालूम क्या सोचते होंगे। बिना उनसे मिले और बातचीत किये यहाँ का कुछ हाल मालूम न होगा, चलें देखें तो सही वे आ गये या नहीं।
नानक उठकर उस कमरे में गया जिसमें बाबाजी से मुलाक़ात हुई थी मगर वहाँ सिवाय अन्धकार के और कुछ दिखायी न पड़ा, थोड़ी देर तक उसने आँखें फाड़-फाड़कर अच्छी तरह देखा मगर कुछ मालूम न हुआ, लाचार उसने पुकारा—‘‘बाबाजी!’’ मगर कुछ जवाब न मिला, उसने और दो दफे पुकारा मगर कुछ फल न हुआ आख़िर टटोलता हुआ बाबाजी के मृगछाले तक गया मगर उसे खाली पाकर लौट आया और बाहर बरामदे में जिसके नीचे चश्मा बह रहा था आकर बैठ रहा।
घण्टे-भर तक चुपचाप सोच-विचार में बैठे रहने के बाद बाबाजी से मिलने की उम्मीद में वह फिर उठा और उस कमरे की तरफ़ चला। अबकी उसने दरवाज़ा का कमरा भीतर से बन्द पाया ताज्जुब और ख़ौफ़ में काँपता हुआ फिर लौटा और बरामदे में अपने ठिकाने आकर बैठ रहा। इसी फेर में पहर-भर से ज़्यादे रात गुज़र गयी और चारों तरफ़ से जंगल में बोलते हुए दरिन्दे जानवरों की आवाज़ें आने लगीं जिनके ख़ौफ़ से वह इस लायक न रहा कि मकान के नीचे उतरे बल्कि बरामदे में रहना भी उसने नापसन्द किया और बगलवाली कोठरी में घुसकर किवाड़ बन्द करके सो रहा। नानक आज दिन-भर भूखा रहा और इस समय भी उसे खाने को कुछ न मिला, फिर नींद क्यों आने लगी थी, इसके अतिरिक्त उसने दिन-भर में ताज्जुब पैदा करने वाली कई तरह की बातें देखीं और सुनी थीं जो अभी तक उसकी आँखों के सामने घूम रही थीं और नींद में बाधक हो रही थी। आधी रात बीतने पर उसने और भी ताज्जुब की बातें देखीं।
रात आधी से कुछ ज़्यादे जा चुकी थी जब नानक के कानों में दो आदमियों की बातचीत की आवाज़ आयी। वह गौर से सुनने लगा क्योंकि जो कुछ बात-चीत हो रही थी, उसे वह अच्छी तरह सुन और समझ सकता था। नीचे लिखी बातें उसने सुनीं—आवाज़ बारीक होने से नानक ने समझा कि वे दोनों औरतें हैं—
एक : नानक ने इश्क को दिल्लगी समझ लिया।
एक : इस कम्बख्त को सूझी क्या जो अपना घर-बार छोड़कर इस तरह एक औरत के पीछे निकल पड़ा!
दूसरी : यह तो उसी से पूछना चाहिए।
एक : बाबाजी ने उससे मिलना मुनासिब न समझा, मालूम नहीं इसका क्या सबब है।
दूसरी : जो हो मगर नानक आदमी बहुत ही होशियार और चालाक है, ताज्जुब नहीं कि उसने जो कुछ इरादा कर रक्खा है, उसे पूरा करे!
एक : यह ज़रा मुश्किल है, मुझे उम्मीद नहीं कि रानी इसे छोड़ दें क्यों कि वह इसके खून की प्यासी हो रही हैं, हाँ अगर यह उस बजड़े पर पहुँचकर वह डिब्बा अपने कब्ज़े में कर लेगा तो फिर इसका कोई कुछ न कर सकेगा।
दूसरी : (हँसकर जिसकी आवाज़ नानक ने अच्छी तरह सुनी) यह तो हो ही नहीं सकता।
एक : ख़ैर इन बातों से अपने को क्या मतलब? हम लौंडियों की इतनी अक्ल कहाँ कि इन बातों पर बहस करें!
दूसरी : क्या लौंडी होने से अक्ल में बट्टा लग जाता है?
एक : नहीं, मगर असली बातों की लौंडियों को ख़बर ही कब होती है!
दूसरी : मुझे तो ख़बर है।
एक : सो क्या?
दूसरी : यही कि दम-भर में नानक गिरफ़्तार कर लिया जायगा। बस अब बातचीत करना मुनासिब नहीं, हरिहर आता ही होगा।
इसके बाद नानक ने कुछ न सुना मगर इन बातों ने उसे परेशान कर दिया, डर के मारे काँपता हुआ उठ बैठा और चुपचाप यहाँ से भाग चलने पर मुस्तैद हुआ। धीरे से किवाड़ खोलकर कोठरी के बाहर आया, चारों तरफ़ सन्नाटा था। इस मकान के बाहर निकलकर जंगल में भालू, चीते या शेर के मिलने का डर ज़रूर था मगर इस मकान में रहकर उसने बचाव की कोई सूरत न समझी क्योंकि उन दोनों औरतों की बातों ने उसे हर तरह से निराश कर दिया था। हाँ बजड़े पर पहुँच उस डिब्बे पर कब्जा कर लेने के ख़याल ने उसे बेबस कर दिया था और जहाँ तक जल्द हो सके बजड़े तक पहुँचना उसने अपने लिए उत्तम समझा।
नानक बरामदे से होता हुआ सदर दरवाज़े पर आया और सीढ़ी के नीचे उतरना ही चाहता था कि दूसरे दालान में से झपटते हुए कई आदमियों ने आकर उसे गिरफ़्तार कर लिया। उन आदमियों ने जबर्दस्ती नानक की आँखें चादर से बाँध दी गयीं और कहा, ‘‘जिधर हम ले चलें चुपचाप चला चल नहीं तो तेरे लिए अच्छा न होगा।’’ लाचार नानक को ऐसा ही करना पड़ा।
नानक की आँखें बन्द थीं और हर तरह से लाचार था तो भी वह रास्ते की चलाई पर ख़ूब ध्यान दिये हुए थे। आधे घण्टे तक वह बराबर चला गया, पत्तों की खड़खड़ाहट और ज़मीन की नमी से उसने जाना कि वह जंगल-ही-जंगल जा रहा है। इसके बाद एक ड्यौढ़ी लाँघने की नौबत आयी और उसे मालूम हुआ कि वह किसी फाटक के अन्दर जाकर पत्थर पर या किसी पक्की ज़मीन पर चल रहा है। वहाँ से कई दफे बायीं ओर और दाहिनी तरफ़ घूमना पड़ा। बहुत देर बाद फिर एक फाटक लाँघने की नौबत आयी और फिर उसने अपने को कच्ची ज़मीन पर चलते पाया। कोस-भर जाने के बाद फिर एक चौखट लाँघकर पक्की ज़मीन पर चलने लगा। यहाँ पर नानक को विश्वास हो गया कि रास्ते का भुलावा देने के लिए हम बेफ़ायदे घुमाये जा रहे हैं, ताज्जुब नहीं कि यह वही जगह हो जहाँ पहिले आ चुके हैं।
थोड़ी दूर जाने के बाद नानर सीढ़ी पर चढ़ाया गया, बीस-पचीस सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद फिर नीचे उतने की नौबत आयी और सीढ़ियाँ खतम होने के बाद उसकी आँखें खोल दी गयीं।
नानक ने अपने को एक विचित्र स्थान में पाया। उसकी पीठ की तरफ़ एक ऊँची दीवार और सीढ़ियाँ थीं, सामने की तरफ़ खुशनुमा बाग़ था जिसके चारों तरफ़ ऊँची दीवारें थीं और उसमें रोशनी बखूबी हो रही थी। फलों के कलमी पेड़ों में लगी शीशे की छोटी-छोटी कन्दीलों में मोमबत्तियाँ जल रही थीं और बहुत-से आदमी भी घूमते-फिरते दिखायी दे रहे थे। बाग़ के बीचोबीच में एक आलीशान बँगला था, नानक वहाँ पहुँचाया गया और उसने आसमान की तरफ़ देखकर मालूम किया कि अब रात बहुत थोड़ी रह गयी है।
यद्यपि नानक बहुत होशियार था, चालाक, बहादुर और ढीठ था मगर इस समय बहुत ही घबराया हुआ था। उसके ज़्यादे घबराने का सबब यह था कि उसके हरबे छीन लिये गये थे और वह इस लायक न रह गया कि दुश्मनों के हमला करने पर उनका मुक़ाबला करे या किसी तरह अपने को बचा सके। हाँ, हाथ-पैर खुले रहने के सबब नानक इस ख़याल से भी बेफ़िक्र न था कि अगर किसी तरह भागने का मौका मिले तो भाग जाय।
बाहर ही से मालूम हुआ कि इस मकान में रोशनी बखूबी हो रही है। बाहर के सहन में कई दीवारगीरें जल रही थीं और चोबदार हाथ में सोने का आसा निये नौकरी अदा कर रहे थे। उन्हीं के पास नानक खड़ा कर दिया गया और वे आदमी जो उसे गिरफ़्तार कर लाये थे और गिनती में आठ थे, मकान के अन्दर चले गये, मगर चौबदारों से यह कहते गये कि इस आदमी से होशियार रहना, हम सरकार को ख़बर करने जाते हैं। नानक को आधे घण्टे तक वहाँ खड़ा रहना पड़ा।
जब वे लोग इसे गिरफ़्तार कर लाये थे और ख़बर करने के लिए अन्दर गये थे लौटे तो नानक की तरफ़ देखकर बोले, ‘‘इत्तिला कर दी गयी, अब तू अन्दर चला जा।’’
नानक : मुझे क्या मालूम है कि कहाँ जाना होगा और रास्ता कौन है?
एक : यह मकान तुझे आप ही रास्ता बतावेगा, पूछने की ज़रूरत नहीं!
लाचार नानक ने चौखट के अन्दर पैर रक्खा और अपने को तीन दर के दालान में पाया, फिरकर पीछे की तरफ़ देखा तो दरवाज़ा बन्द हो गया था, जिस राह से इस दालान में आया था। उसने सोचा कि वह इसी जगह क़ैद हो गया और अब नहीं निकल सकता, यह कार्रवाई केवल इसी के लिए थी। मगर नहीं, उसका विचार ठीक न था, क्योंकि तुरन्त ही उसके सामने का दरवाज़ा खुला और उधर रोशनी मालूम होने लगी। डरता हुआ नानक आगे बढ़ा औक चौखट के अन्दर पैर रक्खा ही था कि दो नौजवान औरतों पर नज़र पड़ी जो साफ़ और सुथरी पोशाक पहिरे हुए थीं, दोनों ने नानक के दोनों हाथ पकड़ लिये और ले चलीं। नानक डरा हुआ था मगर उसने अपने दिल को काबू में रक्खा, तो भी उसका कलेजा उछल रहा था और दिल में तरह-तरह की बातें पैदा हो रही थीं। कभी तो वह अपनी ज़िन्दगी से नाउम्मीद हो जाता, कभी यह सोचकर कि, मैंने कोई कसूर नहीं किया ढाढ़स होती, और कभी सोचता जो कुछ होना है, वह तो होवेहीगा मगर किसी तरह उन बातों का पता तो लगे जिनके जाने बिना जी बेचैन हो रहा है! कल से जो-जो बातें ताज्जुब की देखने में आयी हैं जब तक उनका असल भेद नहीं खुलता मेरे हवास दुरुस्त नहीं होते।
वे दोनों औरतें उसे कई दालानों और कोठरियों में घुमाती-फिराती एक बारहदरी में ले गयीं जिसमें नानक ने कुछ अजब ही तरह का समा देखा। यह बारहदरी अच्छी तरह से सजी हुई थी और यहाँ रोशनी भी बखूभी हो रही थी। दरबार का बिल्कुल सामान यहाँ मौजूद था। बीच में जड़ाऊ सिंहासन पर एक नौजवान औरत दक्षिण ढंग की बेशकामती पोशाक पहिरे सिर से पैर तक जड़ाऊ जेवरों से लदी हुई बैठी थी। उसकी खूबसूरती के बारे में इतना ही कहना बहुत है कि अपनी जिंदगी में नानक ने ऐसी खूबसूरत औरत कभी नहीं देखी थी। उसे इस बात का विश्वास होना मुश्किल हो गया कि यह औरत इस लोक की रहने वाली है। उसके दाहिने तरफ़ सोने की चौकी पर मृगछाला बिछाये हुए वही साधू बैठा था, जिसे नानक ने शाम को नहरवाले कमरे में देखा था। साधू के बाद बीस गोलाकार जड़ाऊ कुर्सियाँ और थीं, जिन पर एक-से-एक बढ़के खूबसूरत औरतें दक्षिण ढंग की पोशाक पहिरे ढाल-तलवार लगाये बैठी थी। सिंहासन के बायीं तरफ़, जड़ाऊ छोटे सिंहासन पर रामभोली को उन्हीं लोगों की-सी पोशाक पहिरे ढाल-तलवार लगाये बैठे देख नानक के ताज्जुब की कोई हद्द नहीं रही, मगर साथ ही इसके यह विश्वास भी हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं जाती। रामभोली के बगल में जड़ाऊ कुर्सी पर वह औरत बैठी थी, जिसने नानक के सामने रामभोली को भगा दिया था, उसके बाद बीस जड़ाऊ कुर्सियों पर, बीस नौजवान औरतें उसी ठीठ से बैठी हुई थीं, जैसी सिंहासन के दाहिने तरफ़ थीं।
सामने की तरफ़ बीस औरतें ढाल-तलवार लगाये जड़ाऊ आसा हाथ में लिये अदब से सिर झुकाये पर हुक़्म बजाने के लिए तैयार दुपट्टी खड़ी थीं, जिनके बीच में नानक को ले जाकर खड़ा कर दिया गया।
इस दरबार को देखकर नानक की आँखों में चकाचौंध-सी आ गयी। वह एकदम घबड़ा उठा और अपने चारों तरफ़ देखने लगा। इस बारहदारी की जिस चीज़ पर उसकी नज़र पड़ती उसे लासानी पाता। नानक एक बड़े अमीर बाप का लड़का था और बड़े-बड़े राजदरबारों को देख चुका था मगर उसकी आँखों ने यहाँ जैसी चीज़ें देखीं वैसी स्वप्न में भी न देखी थीं। आलों (ताकों) पर जो गुलदस्ते सजाये हुए थे वे बिल्कुल बनावटी थे और उनमें फूल-पत्तियों की जगह बेशक़ीमती जवाहिरात काम में लाये गये थे। केवल इन गुलदस्तों को ही देखकर नानक ताज्जुब करता था कि इतनी दौलत इन लोगों के पास कहाँ से आयी! इसके अतिरिक्त और जितनी चीज़ें सजावट की मौजूद थीं सभों इस योग्य थीं जिनका कि मिलना मनुष्यों को बहुत कठिन समझना चाहिए। उन औरतों की पोशाक और जेवरों का अंदाज करना तो ताक़त से बाहर था।
सब तरफ़ से घूम-फिरकर नानक की आँखें रामभोली की तरफ़ जाकर अटक गयीं और एकटक उसकी सूरत देखने लगा।
उस औरत ने जो बड़े रौब के साथ जड़ाऊ सिंहासन पर बैठी हुई थी एक नज़र सिर से पैर तक नानक को देखा और फिर रामभोली की तरफ़ आँखें फेरीं। रामभोली तुरन्त अपनी जगह से उठ खड़ी हुई और सामने की तरफ़ हटकर सिंहासन के बगल में खड़ी हो हाथ जोड़कर बोली, ‘‘यदि आज्ञा हो तो हुक़्म के मुताबिक कार्रवाई की जाय?’’ इसके जवाब में उस औरत ने जिसे महारानी कहना उचित है, बड़े गुरूर के साथ सिर हिलाया अर्थात् मना कर दिया और उस दूसरी तरफ़ देखा जो रामभोली के बग़ल में थी।
यह बात नानक के लिए बड़े ताज्जुब की थी। आज उसके कानों ने एक ऐसी आवाज़ सुनी जो कभी सुनी न थी और न सुनने की उम्मीद थी। एक तो यही ताज्जुब की बात थी जो रामभोली उसके पड़ोस में रहती थी, जिसे नानक लड़कपन से जानता था और सिवाय उस दिन के जिस दिन बजड़े पर सवार हो सफर पर निकली, जिसे कभी अपना घर छोड़ते नहीं देखा था और न कभी जिसके माँ-बाप ने उसे अपनी आँखों से दूर किया था, आज इस जगह ऐसी अवस्था और ऊँचे दर्ज़े पर दिखायी दी। दूसरे जो रामभोली जन्म से गूँगी थी, जिसके बाप-माँ ने भी उसे बोलते नहीं सुना, आज इस तरह उसके मुँह से मीठी आवाज़ निकल रही है! इस आवाज़ ने नानक के दिल के साथ क्या काम किया, इसे वही जानता होगा। इस बात को नानक क्योंकर समझ सकता था कि जिस रामभोली ने कभी घर से बाहर पैर न निकाला, वह इन लोगों में आपस के तौर पर क्यों पायी जाती है और ये सब औरतें कौन हैं!
नानक को इन सब बातों को अच्छी तरह सोचने का मौका न मिला। वह दूसरी औरत जो रामभोली के बगल में कुर्सी पर बैठी हुई थी और जिसके नानक ने पहिले भी देखा था, इशारा पाते ही उठ खड़ी हुई और कुछ आगे नानक से बातचीत करने लगी।
औरत : नानकप्रसाद, इसके कहने की तो ज़रूरत नहीं कि तुम मुजरिम बनाकर यहाँ लाये गये हो और तुम्हें किसी तरह की सज़ा दी जायगी।
नानक : हाँ, बेशक मैं मुजरिम बनाकर लाया गया हूँ मगर असल में मुजरिम नहीं हूँ और न मैंने कोई कसूर ही किया है।
औरत : तुम्हारा कसूर यही है कि तुमने वह बड़ी तस्वीर जो बाबाजी के कमरे में थी और जिस पर पर्दा पड़ा हुआ था बिना आज्ञा के देखी। क्या तुम यह नहीं जानते कि जिस तस्वीर पर पर्दा पड़ा हो, उसे बिना आज्ञा के देखना ना चाहिए?
नानक : (कुछ सोचकर) बेशक यह कसूर तो हुआ।
औरत : हमारे यहाँ कानून यही है कि जो ऐसा कसूर करे उसका सिर काट लिया जाय।
नानक : अगर ऐसा कानून है तो इसे जुल्म कहना चाहिए!
औरत : जो हो, मगर अब तुम किसी तरह नहीं बच सकते।
नानक : ख़ैर, मैं मरने से नहीं डरता और खुशी से मरना कबूल करता हूँ यदि आप कुछ सवालों का जवाब दे दें!
औरत : तुम मरने से तो किसी तरह इनकार कर नहीं सकते मगर मेहरबानी करके तुम्हारे एक सवाल का जवाब मिल सकता है, एक से ज़्यादे सवाल तुम नहीं पूछ सकते, पूछो क्या पूछते हो?
नानक : (कुछ देर सोचकर) ख़ैर जब एक ही सवाल का जवाब मिल सकता है तो मैं यह पूछता हूँ कि (रामभोली की तरफ़ इशारा करके) यह यहाँ क्योंकर आयी और इन्हें यहाँ इतनी बड़ी इज्जत क्योंकर मिली?
औरत : ये तो दो सवाल हुए! अच्छा इनमें से एक सवाल का जवाब यह दिया जाता है कि जिनके बारे में तुम पूछते हो, वह हमारी महारानी की छोटी बहिन हैं और यही सबब है कि उनके बगल में सिहांसन के ऊपर बैठी हैं।
नानक : मुझे क्योंकर विश्वास हो गया कि तुम सच कहती हो?
औरत : मैं धर्म की क़सम खाकर कहती हूँ कि यह बात झूठ नहीं है, मानने, न मानने का तुम्हें अखित्यार है!
नानक : ख़ैर अगर ऐसा होता है तो मैं किसी प्रकार मरना पसन्द नहीं करता।
औरत : (हँसकर) मरना पसन्द करने से क्या तुम्हारी जान छोड़ दी जायगी।
नानक : बेशक ऐसा ही है, जब तक मैं मरना मंजूर न करूँगा, तुम लोग मुझे मार नहीं सकतीं।
औरत : यह तो हम लोग जानते हैं कि तुम एक भारी कुदरत रखते हो और उसके सबब से बड़े-बड़े काम कर सकते हो मगर इस जगह तुम्हारे किये कुछ नहीं हो सकता, हाँ एक बात अगर तुम कबूल करो तो तुम्हारी जान छोड़ दी जायगी बल्कि इनाम के तौर पर तुम जो माँगोगे सो दिया जायगा।
नानक : वह क्या?
औरत : कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की जान तुम्हारे कब्ज़े में है, वह महारानी के कब्ज़े में दे दो।
नानक : (क्रोध के मारे लाल आँखें निकाल के) कम्बख्त, ख़बरदार! फिर ऐसी बात जुबान पर न लाइयो! मैं नहीं जानता था कि ऐसी खूबसूरत मण्डली कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की दुश्मन निकलेगी। तुझ जैसी हज़ारों को मैं उन पर न्यौछावर करता हूँ! बस मालूम हो गया कि तुम लोग खेल की कठपुतलियाँ हो। किसकी ताक़त है जो मुझे मार या मेरे साथ किसी तरह की जबर्दस्ती करे!!
उस औरत का चेहरा नानक की यह बात सुनकर क्रोध के मारे लाल हो गया, बल्कि और औरतें भी जो वहाँ मौज़ूद थीं नानक की दबंगता देख क्रोध के मारे काँपने लगीं, मगर महारानी के चेहरे पर क्रोध की निशानी न थी।
औरत : (तलवार खींचकर) बेशक अब तुम मारे जाओगे! बीस-बीस मर्दों की ताक़त (कुर्सियों की तरफ़ इशारा करके) इन एक-एक औरतों में हैं। यह न समझना कि तुम्हारे हाथ-पैर खुले हैं तो कुछ कर सकोगे। क्या भूल गये कि मैंने तुम्हारे हाथ से तलवार गिरा दी थी?
नानक : इतनी ही ताक़त अगर तुम लोगों में है तो दोनों कुमारों की जान मुझसे क्यों माँगती हो, खुद जाकर उन लोगों का सिर नहीं काट लातीं?
औरत : कोई सबब है कि हम लोग अपने हाथ से इस काम को नहीं करते, कर भी सकते हैं मगर देर होगी, इसलिए तुमसे कहते हैं। अब भी मंजूर करो नहीं तो मैं जान लिये बिना नहीं छोड़ूँगी।
नानक : (रामभोली की तरफ़ इशारा करके) उस औरत की जान जिसे तुम महारानी की बहिन बताती हो, मेरे कब्ज़े में है ज़रा इसका भी ख़याल करना।
इतना सुनते ही रामभोली अपनी जगह से उठी और बोली, ‘‘यह कभी न समझना कि वह डिब्बा जिसे तुम लाये थे मैं बजड़े में छोड़ आयी और वह तुम्हारे या तुम्हारे सिपाहियों के कब्ज़े में है, मैंने उसे गंगाजी में फेंक दिया था और अब मँगा लिया (हाथ का इशारा करके) देखो, उस कोने में छत से लटक रहा है।’’
नानक ने घूमकर देखा और छत से उस डिब्बे को लटकता पाया। यह देख वह एकदम घबड़ा गया, उसके होश-हवास जाते रहे, उसके मुँह से एक चीख की आवाज़ निकली और वह बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़ा।
आधी खड़ी तक नानक बेहोश रहा, इसके बाद होश में आया, मगर उसमें खड़े होने की ताक़त न थी। वह बैठा-बैठा इस तरह सोचने लगा जैसे कि वह ज़िन्दगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो चुका हो। वह औरत नंगी तलवार लिये अभी तक उसके पास खड़ी थी। एकाएक नानक को कोई बात याद आयी जिससे उसकी हालत बिल्कुल ही बदल गयी, गयी हुई ताक़त बदन में फिर से लौट आयी और वह यह कहता हुआ कि मैं व्यर्थ सोच में पड़ा हुआ हूँ’ उठ खड़ा हुआ तथा उस औरत से फिर बातचीत करने लगा।
नानक : नहीं नहीं, मैं कभी नहीं मर सकता।
औरत : अब तुम्हें बचाने वाला कौन है?
नानक : (रामभोली की तरफ़ देख के) उस कोठरी की ताली जिसमें किसी के खून से लिखी हुई पुस्तक रक्खी है।
इतना सुनते ही रामभोली चौंकी, उसका चेहरा उतर गया, सिर घूमने लगा, और वह यह कहती हुई सिंहासन के बगल में झुक गयी, ‘‘आह ग़ज़ब हो गया। भूल हुई, वह ताली तो उसी जगह छूट गयी! कम्बख्त तेरा बुरा हो, मुझे जबर्दस्ती अ...प...ने...हा...थ!’’
केवल रामभोली ही की ऐसी दशा नहीं हुई बल्कि वहाँ जितनी औरतें थीं सभों का चेहरा पीला पड़ गया, खून की लाली जाती रही और सब-की-सब एकटक नानक की तरफ़ देखने लगीं। अब नानक को भी विश्वास हो गया कि उसकी जान बच गयी और जो कुछ उसने सोचा था, ठीक निकला, कुछ देर ठहरकर नानक फिर बोला—
नानक : उस किताब को मैं पढ़ भी चुका हूँ बल्कि एक दोस्त को भी इस काम में अपना साथी बना चुका हूँ। यदि तीन दिन के अन्दर मैं उससे न मिलूँगा तो वह ज़रूर कोई काम शुरू कर दूँगा।
नानक की इस बात ने सभों की बेचैनी और बढ़ा दी। महारानी ने आँखों में आँसू भरकर अपने बगल में बैठे बाबाजी की तरफ़ इस ढंग से देखा जैसे वह अपनी ज़िंदगी से निराश हो चुकी हो। बाबाजी ने इशारे से उसे ढाढ़स दिया और नानक की तरफ़ देखकर कहा—
बाबा शाबाश बेटे, तुमने खूब काम किया! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, चेला बनाने के लिए, मैं भी किसी ऐसे चतुर को ढूँढ़ रहा था!
इतना कहकर बाबाजी उठे और नानक का हाथ पकड़कर दूसरी तरफ़ ले चले। बाबाजी का हाथ इतना कड़ा था कि नानक की कलाई दर्द करने लगी, उसे मालूम हुआ मानो लोहे के हाथ ने उसकी कलाई पकड़ी हो, जो किसी तरह नर्म या ढीला नहीं हो सकता। साफ़ सवेरा हो चुका था बल्कि सूर्य की लालिमा ने बाग़ को खुशनुमा पेड़ों की ऊपर वाली टहनियों पर अपना दखल जमा लिया था जब बाबाजी नानक को लिये एक कोठरी के दरवाज़े पर पहुँचे जिसमें ताला लगा हुआ था। बाबाजी ने दूसरे हाथ से एक ताली निकाली जो उनकी कमर में थी और उस कोठरी का ताला खोलकर उसके अन्दर ढकेल दिया और फिर दरवाज़ा बन्द करके ताला लगा दिया।
चाहे दिन निकल चुका हो मगर उस कोठरी के अन्दर नानक को रात ही का समा नज़र आया। बिल्कुल अँधेरा था, कोई सूराख भी ऐसा नहीं था, जिससे किसी तरह की रोशनी पहुँचती। नानक को यह भी नहीं मालूम हो सकता था कि यह कोठरी कितनी बड़ी है, हाँ उस कोठरी की पत्थर की ज़मीन इतनी सर्द थी कि घण्टे-ही भर में नानक के हाथ-पैर बेकार हो गये। घण्टे-भर के बाद नानक को चारों तरफ़ दीवार दिखायी देने लगी। मालूम हुआ कि दीवारों में से किसी तरह की चमक निकल रही है और वह चमक धीरे-धीरे बढ़ रही है, यहाँ तक कि थोड़ी देर में वहाँ अच्छी तरह उजाला हो गया और उस जगह की हर एक चीज़ साफ़ दिखयी देने लगीं।
यह कोठरी बहुत बड़ी न थी, इसके चारों कोनों में हड्डयों के ढेर लगे थे, चारों तरफ़ दीवारों में पुरसे-भर ऊँचे चार मोखे (छेद) थे जो बहुत बड़े न थे मगर इस लायक थे कि आदमी का सर उसके अन्दर जा सके। नानक ने देखा कि उसके सामने की तरफ़ वाले (मोखे) में कोई चीज़ चमकती हुई दिखायी दे रही है। बहुत गौर करने पर थोड़ी देर बाद मालूम हुआ कि बड़ी-बड़ी दो आँखें हैं जो उसी तरफ़ देख रही हैं।
उस अँधेरी कोठरी में धीरे-धीरे चमक पैदा होने और उजाला हो जाने ही से नानक को डरा दिया था, अब उन आँखों ने और भी डरा दिया। धीरे-धीरे नानक का डर बढ़ता ही गया क्योंकि उसने कलेजा दहलाने वाली और भी कई बातें यहाँ पायीं।
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कोठरी की ज़मीन पत्थर की थी। धीरे-धीरे यह ज़मीन गर्म होने लगी जिससे नानक के बदन में हरारत पहुँची और वह सर्दी जिसके सबब से वह लाचार हो गया था जाती रही। आख़िर वहाँ की ज़मीन यहाँ गर्म हुई कि नानक को अपनी जगह से उठना पड़ा मगर कहाँ जाता! उस कोठरी की तमाम ज़मीन एक-सी गरम हो रही थी, वह जिधर जाता उधर ही पैर जलता था। नानक का ध्यान फिर मोखे की तरफ़ गया जिसमें चमकती हुई आँखें दिखायी दी थीं, क्योंकि इस समय उसी मोखे में से एक हाथ निकल कर नानक की तरफ़ बढ़ रहा था। नानक दबकर एक कोने में हो रहा, जिससे वह हाथ उस तक न पहुँचे मगर हाथ बढ़ता ही गया, यहाँ तक कि उसने नानक की कलाई पकड़ ली।
न मालूम हाथ कैसा था जिसने नानक की कलाई मज़बूती से थाम ली। बदन के छूते ही एक तरह की झुनझुनी पैदा हुई और बात-की-बात में इतनी बढ़ी कि नानक अपने को किसी तरह सम्हाल न सका और न उस हाथ से अपने को छुड़ा ही सका, यहाँ तक कि वह बेहोश होकर अपने आपको बिल्कुल भूल गया।
जब नानक होश आया उसने अपने आपको गंगा के किनारे उसी जगह पाया, जहाँ रामभोली के साथ बजड़े से उतरा था। बगल में पक्के केले का एक घौद भी देखा। दिन बहुत कम बाक़ी था और सूर्य भगवान अस्ताचल की तरफ़ जा रहे थे।
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