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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


अब हम फिर उस महारानी के दरबार का हाल लिखते हैं, जहाँ से नानक निकाला जाकर गंगा के किनारे पहुँचाया गया था।

नानक को कोठरी में ढकेलकर बाबाजी लौटे तो महारानी के पास न जाकर दूसरी ही तरफ़ रवाना हुए और एक बारहदरी में पहुँचे जहाँ कई आदमी बैठे कुछ काम कर रहे थे। बाबाजी के देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए। बाबाजी ने उन लोगों की तरफ़ देखकर कहा, ‘‘नानक को मैं ठिकाने पहुँचा आया हूँ, बड़ा भारी ऐयार निकला, हम लोग उसका कुछ न कर सके। ख़ैर उसे गंगा के किनारे उसी जगह पहुँचा दो, जहाँ बजड़े से उतरा था, उसके लिए कुछ खाने की चीज़ें भी वहाँ रख देना।’’ इतना कहकर बाबाजी वहाँ से लौटे और महारानी के पास पहुँचे। इस समय महारानी का दरबार उस ढंग का ना था और न भीड़भाड़ ही थी। सिंहासन और कुर्सियों का नाम-निशान न था केवल फ़र्श बिछा हुआ था, जिस पर महारानी, रामभोली और वह औरत जिसके घोड़े पर सवार हो रामभोली नानक से जुदा हुई थी, बैठी आपुस में कुछ बातें कर रही थीं। बाबाजी ने पहुँचते ही कहा, ‘‘मैं नहीं समझता था कि नानक इतना बड़ा धूर्त और चालाक निकलेगा। धनपति ने कहा था कि वह बहुत सीधा है, सहज ही में काम निकल जायगा, व्यर्थ इतना आडम्बर करना पड़ा!’’

पाठक याद रक्खें की, धनपति उसी औरत का नाम था, जिसके घोड़े पर सवार होकर रामभोली नानक के सामने से भागी थी। ताज्जुब नहीं कि धनपति के नाम से बारीक ख़याल करने वाले पाठक चौंके और सोचें कि ऐसी औरत का नाम धनपति क्यों हुआ! यह सोचने की बात है आगे चलकर यह नाम कुछ रंग लावेगा।

धनपति : ख़ैर जो होना था सो हो चुका, इतना तो मालूम हुआ कि हम लोग नानक के पंजे में फँस गये। अब कोई ऐसी तरकीब करना चाहिए जिससे जान बचे और नानक के हाथ से छुटकारा मिले।

बाबाजी : मैं तो फिर भी नसीहत करूँगा कि आप लोग इस फेर न पड़ें। कुँअर इन्ध्रजीतसिंह और आनन्दसिंह बड़े प्रतापी हैं, उन्हें अपने आधीन करना और उनके हिस्से की चीज़ छीन लेना कठिन है, सहज नहीं। देखा, पहिली ही सीढ़ी में आप लोगों ने कैसा धोखा खाया। ईश्वर न करे यदि नानक मर जाय या उसे कोई मार डाले और वह किताब उसी के कब्ज़े में रह जाय और पता न लगे तो क्या आप लोगों के बचने की कोई सूरत निकल सकती है?

रामभोली : कभी नहीं, बेशक हम लोग बुरी मौत मारे जायेंगे!

बाबाजी : मैं बेशक ज़ोर देता और ऐसा कभी न होने देता मगर सिवाय समझाने के और कुछ नहीं कर सकता।

महारानी : (बाबाजी की तरफ़ देखकर) एक दफे और उद्योग करूँगी, अगर काम न चलेगा तो फिर जो कुछ आप कहेंगे, वही किया जायगी।

बाबाजी : मर्जी तुम्हारी, मैं कुछ कह नहीं सकता।

महारीनी : (धनपति और रामभोली की तरफ़ देखकर) सिवाय तुम दोनों के इस काम के लायक और कोई भी नहीं है।

धनपति : मैं जान लड़ाने से कब बाज आने वाली हूँ।

रामभोली : जो हुक़्म होगा करूँगी ही।

महारानी : तुम दोनों जाओ और जो कुछ करते बने करो!

रामभोली : काम बाँट दीजिए।

महारानी : (धनपति की तरफ़ देखके) नानक के कब्ज़े से किताब निकाल लेना तुम्हारा काम और (रामभोली की तरफ़ देख के) किशोरी को गिरफ़्तार कर लाना तुम्हारा काम।

बाबाजी : मगर दो बातों का ध्यान रखना नहीं तो जीती न बचोगी!

दोनों : वह क्या?

बाबाजी : एक तो कुँअर इन्द्रजीतसिंह या आनन्दसिंह को हाथ न लगाना, दूसरे ऐसे काम करना, जिसमें नानक को तुम दोनों का पता न लगे, नहीं तो वह बिना जान लिये कभी न छोड़ेगा और तुम लोगों के किये कुछ न होगा। (रामभोली की तरफ़ देख के) यह न समझना कि अब वह तुम्हारा मुलाहिजा करेगा, अब उसे असल हाल मालूम हो गया, हम लोगों को जड़ बुनियाद से खोदकर फेंक देने का उद्योग करेगा।

महारानी : ठीक है, इसमें कोई शक नहीं। मगर ये दोनों चालाक हैं, अपने को बचावेंगी (दोनों की तरफ़ देखकर) ख़ैर तुम लोग जाओ, देखो ईश्वर क्या करता है। खूब होशियार और अपने को बचाये रहना।

दोनों : कोई हर्ज़ नहीं!


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