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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


अब हम रोहतासगढ़ की तरफ़ चलते हैं और तहख़ाने में बेबस पड़ी हुई बेचारी किशोरी और कुँअर आनन्दसिंह इत्यादि की सुध लेते हैं।

जिस समय कुँअर आनन्दसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह, तहख़ाने के अन्दर गिरफ़्तार हो गये और राजा दिग्विजयसिंह के सामने लाये गये तो राजा के आदमियों ने उन तीनों का परिचय दिया जिसे सुनकर राजा हैरान रह गया और सोचने लगा कि ये तीनों यहाँ क्योंकर आ पहुँचे। किशोरी भी उसी जगह खड़ी थी। उसने सुना कि ये लोग फलाने हैं तो वह घबरा गयी, उसे विश्वास हो गया कि अब इनकी जान नहीं बचती। इस समय वह मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि जिस तरह हो सके इसकी जान बचाये इनके बदले में मेरी जान जाय तो कोई हर्ज़ नहीं परन्तु मैं अपनी आँखों से इन्हें मरते नहीं देखा चाहती, इसमें कोई शक नहीं कि ये मुझी को छुड़ाने आये थे नहीं तो इन्हें क्या मतलब था इतना कष्ट उठाते।

जितने आदमी तहख़ाने के अन्दर मौजूद थे सभों जानते थे कि इस समय तहख़ाने के अन्दर कुँअर आनन्दसिंह का मददगार कोई भी नहीं है परन्तु हमारे पाठक महाशय जानते हैं कि पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषीजी जो इस समय दारोग़ा बने यहाँ मौजूद हैं, कुँअर आनन्दसिंह की मदद ज़रूर करेंगे, मगर एक आदमी के किये होता ही क्या है? तो भी ज्योतिषीजी ने हिम्मत न हारी और वह राजा से बातचीत करने लगे। ज्योतिषीजी जानते थे कि मेरे अकेले के किये ऐसे मौके पर कुछ भी नहीं हो सकता और यहाँ की किताब पढ़ने से भी उन्हें यह मालूम हो गया था कि इस तहख़ाने के कायदे के मुताबिक ये लोग ज़रूर मारे जायेंगे, फिर भी ज्योतिषीजी को इनके बचने की उम्मीद कुछ-कुछ ज़रूर थी क्योंकि पण्डित बद्रीनाथ कह गये थे कि ‘आज इस तहख़ाने में आनन्दसिंह आवेंगे और उनके थोड़ी ही देर बाद कुछ आदमियों को लेकर हमभी आवेंगे। अब ज्योतिषीजी सिवाय इसके और कुछ नहीं कर सकते थे कि राजा को बातों में लगाकर देर करें जिसमें पण्डित बद्रीनाथ वग़ैरह आ जाँय और आख़िर उन्होंने ऐसा ही किया। ज्योतिषीजी अर्थात् दारोग़ा साहब राजा के सामने गये और बोले—

दारोग़ा : मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि आप-से-आप कुँअर आनन्दसिंह हम लोगों के कब्ज़े में आ गये।

राजा : (सर से पैर तक ज्योतिषीजी को अच्छी तरह देखकर) ताज्जुब है कि आप ऐसा कहते हैं। मालूम होता है कि आज आप की अक्ल चरने चली गयी है! छी :!

दारोग़ा : (घबड़ाकर और हाथ जोड़कर) सो क्या महाराज!

राजा : (रंज होकर) फिर भी आप पूछते हैं सो क्या? आप ही कहिए आनन्दसिंह आप-ही-आप यहाँ आ फँसे तो क्यों आप खुश हुए?

दारोग़ा : मैं यह सोचकर खुश हुआ कि जब इनकी गिरफ़्तारी का हाल राजा बीरेन्द्रसिंह सुनेंगे तो ज़रूर कहला भेजेंगे कि आनन्दसिंह को छोड़ दीजिए, इसके बदले में हम कुँअर कल्याणसिंह को छोड़ देंगे।

राजा : अब मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारी अक्ल सचमुच चरने गयी है या तुम वह दारोग़ा नहीं हो कोई दूसरे हो!

दारोग़ा : (काँपकर) शायद आप इसलिए कहते हों कि मैंने जो कुछ अर्ज़ किया इस तहख़ाने के कायदे के खिलाफ़ किया।

राजा : हाँ, अब तुम राह पर आये! बेशक ऐसा ही है। मुझे इनके यहाँ आ फँसने का रंज है। अब मैं अपनी और अपने लड़के की ज़िन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया। बेशक अब यह रोहतासगढ़ उजाड़ हो गया। मैं किसी तरह कायदे के खिलाफ नहीं कर सकता, चाहे जो हो आनन्दसिंह को अवश्य मारना पड़ेगा और इसका नतीजा बहुत ही बुरा होगा। मुझे इस बात का भी विश्वास है कि कुँअर आनन्दसिंह पहिले-पहल यहाँ नहीं आये बल्कि इनके कई ऐयार इसके पहिले भी ज़रूर यहाँ आकर सब हाल देख गये होंगे। कई दिनों से यहाँ के मामले में जो विचित्रता दिखायी पड़ती है, यह सब उसी का नतीजा है। सच तो यह है कि इस समय की बातें सुनकर मुझे आप पर भी शक हो गया। यहाँ का दारोग़ा इस समय आनन्दसिंह के आ फँसने से कभी न कहता कि मैं खुश हूँ। वह ज़रूर समझता कि कायदे के मुताबिक इन्हें मारना पड़ेगा, इसके बदले में कल्याणसिंह मारा जायगा, और इसके अतिरिक्त बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग ऐयारी के कायदे को तिलांजलि देकर बेहोशी की दवा के बदले जहर का बर्ताव करेंगे और एक ही सप्ताह में रोहतासगढ़ को चौपट कर डालेंगे। इस तहख़ाने के दारोग़ा को ज़रूर इस बात का रंज होता।

राजा की बातें सुनकर ज्योतिषीजी की आँखें खुल गयीं। उन्होंने मन में अपनी भूल कबूल की और गर्दन नीची करके सोचने लगे। उसी समय राजा ने पुकारकर अपने आदमियों से कहा, ‘‘इस नकली दारोग़ा को भी गिरफ़्तार कर लो और अच्छी तरह आजमाओ कि यहाँ का दारोग़ा है या बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार!

बात-की-बात में दारोग़ा साहब की मुश्कें बाँध ली गयीं और राजा ने दो आदमियों को गरम पानी लाने का हुक़्म दिया। नौकरों ने यह समझकर कि यहाँ पानी गरम करने में देर होगी, ऊपर दीवानख़ाने में हरदम गरम पानी मौजूद रहता है वहाँ से लाना उत्तम होगा, महाराज से आज्ञा चाही। महाराज ने इसको पसन्द करके ऊपर दीवानखाने से पानी लाने का हुक़्म दिया।

दो नौकर पानी लाने के लिए दोड़े मगर तुरन्त लौट आकर बोले, ‘‘ऊपर जाने का रास्ता तो बन्द हो गया!’’

महाराज : सो क्या! रास्ता कैसे बन्द हो सकता है?

नौकर : क्या जाने ऐसा क्यों हुआ?

महाराज : ऐसा कभी नहीं हो सकता! (ताली दिखाई) देखो यह ताली मेरे पास मौजूद है, इस ताली के बिना कोई क्योंकर उन दरवाजों को बन्द कर सकता है?

नौकर : जो हो, मैं कुछ नहीं अर्ज़ कर सकता, सरकार खुद चलकर देख लें।

राजा ने स्वयं जाकर देखा तो ऊपर जाने का रास्ता अर्थात् रास्ता बन्द पाया। ताज्जुब हुआ और सोचने लगा कि दरवाज़ा किसने बन्द किया, ताली तो मेरे पास थी! आख़िर दरवाज़ा खोलने के लिए ताली लगायी मगर ताला न खुला। आज तक इसी ताली से बराबर उस तहख़ाने में आने-जाने का रास्ता खोला जाता था, लेकिन इस समय ताली कुछ काम नहीं करती। यह अनोखी बात जो राजा दिग्विजयसिंह के ध्यान में कभी न आयी थी आज यकायक पैदा हो गयी। राजा के ताज्जुब का कोई हद न रहा। उस तहख़ाने में और भी बहुत से दरवाज़े उसी ताली से खुला करते थे। दिग्विजयसिंह ने ताली ठोंक-पीटकर एक दूसरे दरवाज़े में लगायी, मगर वह भी न खुला। राजा की आँखों में आँसू भर आया और यकायक उसके मुँह से यह आवाज़ निकली, ‘‘अब इस तहख़ाने की और हम लोगों की उम्र पूरी हो गयी।’’

राजा दिग्विजयसिंह घबड़ाया हुआ चारों तरफ़ घूमता और घड़ी-घड़ी दरवाज़ों में ताली लगाता था—इतने ही में उस काले रंग की भयानक मूर्ति के मुँह में से जिसके सामने एक औरत को बलि दी जा चुकी थी एक तरह की भयानक आवाज़ निकलने लगी। यह भी एक नयी बात थी। दिग्विजयसिंह और जितने आदमी वहाँ थे सब डर गये तथा उसी तरफ़ देखने लगे। काँपता हुआ राजा उस मूर्ति के पास जाकर खड़ा हो गया और गौर से सुनने लगा कि क्या आवाज़ आती है।

थोड़ी देर तक वह आवाज़ समझ में न आयी, इसके बाद यह सुनायी पड़ा—‘‘तेरी ताली केवल बारह नम्बर की कोठरी को खोल सकेगी। जहाँ तक जल्द हो सके किशोरी को उसमें बन्द कर दे नहीं तो सभों की जान मुफ्त में जायगी!’’

यह नयी अद्भुत और अनोखी बात देख-सुनकर राजा का कलेजा दहलने लगा मगर उसकी समझ में कुछ न आया कि यह मूरत क्योंकर बोली, आज तक कभी ऐसी बात न हुई थी। सैकड़ों आदमी इसके सामने बलि पड़ गये लेकिन ऐसी नौबत न आयी थी। अब राजा को विश्वास हो गया कि इस मूरत में कोई करामात ज़रूर है तभी तो बड़े लोगों ने बलि का प्रबन्ध किया। यद्यपि राजा ऐसी बातों पर विश्वास कम रखता था परन्तु आज उसे डर ने दबा लिया, उसने सोच-विचार में ज़्यादे समय नष्ट न किया और उसी ताली से बारह नम्बर वाली कोठरी खोलकर उसके अन्दर बन्द कर दिया।

राजा दिग्विजयसिंह ने अभी इस काम से छुट्टी न पायी थी कि बहुत से आदमियों को साथ लेकर पण्डित बद्रीनाथ उस तहख़ाने में आ पहुँचे। कुँअर आनन्दसिंह और तारासिंह को बेबस पाकर झपट पड़े और बहुत जल्द उनके हाथ-पैर खोल दिये। महाराज के आदमियों ने इनका मुक़ाबला किया, पण्डित बद्रीनाथ के साथ जो आदमी आये थे वे भी भिड़ गये। जब आनन्दसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह छूटे तो लड़ाई गहरी हो गयी, इन लोगों के सामने ठहरने वाला कौन था? केवल चार ऐयार ही उतने लोगों के लिए काफी थे। कई मारे गये, कई जख्मी होकर गिर पड़े, राजा दिग्विजयसिंह गिरफ़्तार कर लिया गया, बीरेन्द्रसिंह की तरफ़ का कोई न मरा। इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद किशोरी की खोज की गयी।

इस तहख़ाने में जो कुछ आश्चर्य की बात हुई थीं सभों ने देखी सुनी थीं। लाली और ज्योतिषीजी ने सब हाल आनन्दसिंह और ऐयार लोगों को बताया और यह भी कहा कि किशोरी बारह नम्बर की कोठरी में बन्द कर दी गयी है।

पण्डित बद्रीनाथ ने दिग्विजयसिंह की कमर से ताली निकाल ली और बारह नम्बर की कोठरी खोली मगर किशोरी को उसमें न पाया। चिराग़ लेकर अच्छी तरह ढ़ूँढ़ा परन्तु किशोरी न दिखायी पड़ी, न मालूम ज़मीन में समा गयी या दीवार खा गयी। इस बात का आश्चर्य सभों को हुआ कि बन्द कोठरी में से किशोरी कहाँ ग़ायब हो गयी। हाँ एक काग़ज़ का पुर्जा उस कोठरी में ज़रूर मिला जिसे भैरोसिंह ने उठा लिया और पढ़कर सभों को सुनाया। यह लिखा था—

‘‘धनपति  रंग  मचायो  साध्यो  काम।
भोली भलि मुड़ि ऐहैं यदि यहि टाम।।’’

इस बरवे का मतलब किसी की समझ में न आया, लेकिन इतना विश्वास हो गया कि अब इस जगह किशोरी का मिलना कठिन है। उधर लाली इस बरवे को सुनते ही खिलखिलाकर हँस पड़ी, लेकिन जब लोगों ने हँसने का सबब पूछा तो कुछ जवाब न दिया बल्कि सिर नीचा करके चुप हो रही, जब ऐयारों ने बहुत ज़ोर दिया तो बोली, ‘‘मेरे हँसने का कोई ख़ास सबब नहीं है। बड़ी मेहनत करके किशोरी को मैंने यहाँ से छुड़ाया था। (किशोरी को छुड़ाने के लिए जो-जो काम उसने किये थे सब कहने के बाद) मैं सोचे हुए थी कि इस काम के बदले में राजा बीरेन्द्रसिंह से कुछ इनाम पाऊँगी, लेकिन कुछ न हुआ, मेरी मेहनत चौपट हो गयी, मेरे देखते-ही-देखते किशोरी इस कोठरी में बन्द हो गयी थी। जब आप लोगों ने कोठरी खोली तो मुझे उम्मीद थी कि उसे देखूँगी और वही अपनी जुबान से मेरे परिश्रम का हाल कहेगी परन्तु कुछ नहीं। ईश्वर की भी क्या विचित्र गति, वह क्या करता है सो कुछ समझ में नहीं आता! यही सोचकर मैं हँसी थी और कोई बात नहीं है ।’’

लाली की बातों का और सभों को चाहें विश्वास हो गया हो लेकिन हमारे ऐयारों के दिल में उसकी बातें न बैठीं। देखा चाहिए अब वे लोग लाली के साथ क्या सलूक करते हैं।

पण्डित बद्रीनाथ की राय हुई कि अब इस तहख़ाने में ठहरना मुनासिब नहीं, जब यहाँ की अजायबातों से खुद यहाँ का राजा परेशान हो गया तो हम लोगों की क्या बात है, यह भी उम्मीद नहीं है कि इस समय किशोरी का पता लगे, अस्तु जहाँ तक जल्द हो सके यहाँ से चले-चलना ही मुनासिब है।

जितने आदमी मर गये थे, उसी तहख़ाने में गड़हा खोदकर गाड़ दिये गये; बाक़ी बचे हुए चार-पाँच आदमियों को राजा दिग्विजयसिंह के सहित क़ैदियों की तरह साथ लिया और सभों का मुँह चादर से बाँध दिया। ज्योतिषीजी ने भी ताली का झब्बा सम्हाला, रोज़नामचा हाथ में लिया, और सभों के साथ तहख़ाने से बाहर हुए। अबकी दफे तहख़ाने से बाहर निकलते हुए जितने दरवाज़े थे, सभों में ज्योतिषीजी ताला लगाते गये जिसमें उसके अन्दर कोई आने न पावे।

तहख़ाने से बाहर निकलने पर लाली ने कुँअर आनन्दसिंह से कहा, ‘‘मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गयी और किशोरी से मिलने की आशा न रही। अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने घर जाऊँ क्योंकि किशोरी ही की तरह मैं भी इस किले में क़ैद की गयी थी।’’

आनन्द : तुम्हारा मकान कहाँ है?

लाली : मथुराजी।

भैरो : (आनन्दसिंह से) इसमें कोई शक नहीं की लाली का किस्सा भी बहुत बड़ा और दिलचस्प होगा, इन्हें हमारे महाराज के पास अवश्य ले चलना चाहिए।

बद्री : ज़रूर ऐसा होना चाहिए, नहीं तो महाराज रंज होंगे।

ऐयारों का मतलब कुँअर आनन्दसिंह समझ गये और इसी जगह से लाली को बिदा होने की आज्ञा उन्होंने न दी। लाचार लाली को कुँअर साहब के साथ जाना ही पड़ा और ये लोग बिना किसी तरह की तक़लीफ़ पाये राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में पहुँच गये, जहाँ लाली इज्जत के साथ एक खेमे में रक्खी गयी।


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