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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


दूसरे दिन सन्ध्या के समय राजा बीरेन्द्रसिंह अपने खेमें में बैठे रोहतासगढ़ के बारे में बातचीत करने लगे। पण्डित बद्रीनाथ, भैरोसिंह, तारासिंह, ज्योतिषीजी, कुँअर आननन्दसिंह और तेज़सिंह उनके पास बैठे हुए थे। अपने-अपने तौर पर सभों ने रोहतासगढ़ के तहख़ाने का हाल कह सुनाया और अन्त में बीरेन्द्रसिंह से बातचीत होने लगी।

बीरेन्द्र : रोहतासगढ़ के बारे में अब क्या करना चाहिए?

तेज़ : इसमें तो कोई शक नहीं कि रोहतासगढ़ के मालिक आप हो चुके। जब राजा और दीवान दोनों आपके कब्ज़े में आ गये तो अब किस बात की कसर रह गयी? हाँ अब यह सोचना है कि राजा दिग्विजयसिंह के साथ क्या सलूक करना चाहिए?

बीरेन्द्र : और किशोरी के लिए क्या बन्दोबस्त करना चाहिए?

तेज़ : जी हाँ यही दो बातें हैं। किशोरी के बारे में अभी तो मैं कुछ कह नहीं सकता, बाक़ी राजा दिग्विजयसिंह के बारे में पहिले आपकी राय सुनना चाहता हूँ।

बीरेन्द्र : मेरी राय तो यही है कि यदि वह सच्चे दिल से ताबेदारी कबूल करे तो रोहतासगढ़ पर खिराज (मालगुज़ारी) मुक़र्रर करके उसे छोड़ देना चाहिए।

तेज़ : मेरी भी यही राय है।

भैरो : यदि वह इस समय कबूल करने के बाद पीछे बेईमानी पर कमर बाँधे तो?

तेज़ : ऐसी उम्मीद नहीं है। जहाँ तक मैंने सुना है, वह ईमानदार, सच्चा और बहादुर जाना गया है, ईश्वर न करे यदि उसकी नीयत कुछ दिन बाद बदल जाय तो हमलोगों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।

बीरेन्द्र : इसका विचार, कहाँ तक किया जायेगा! (तारासिंह की तरफ़ देखकर) तुम जाओ दिग्विजयसिंह को ले आओ, मगर मेरे सामने हथकड़ी-बेड़ी के साथ मत लाना।

‘जो हुक़्म’ कहकर तारासिंह दिग्विजयसिंह को लाने के लिए चले गये और थोड़ी ही देर में उन्हें अपने साथ लेकर हाज़िर हुए, तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। दिग्विजयसिंह ने अदब के साथ राजा बीरेन्द्रसिंह को सलाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया।

बीरेन्द्र : कहिए, अब क्या इरादा है?

दिग्विजय : यही इरादा है कि जन्मभर आपके साथ रहूँ और ताबेदारी करूँ।

बीरेन्द्र : नीयत में किसी तरह का फ़र्क़ तो नहीं है?

दिग्विजय : आप ऐसे प्रतापी राजा के साथ खुटाई रखनेवाला पूरा कम्बख्त है। वह पूरा बेवकूफ है जो किसी तरह पर आपसे जीतने की उम्मीद रक्खे। इसमें कोई शक नहीं कि आपके एक-एक ऐयार दस-दस राज्य गारत कर देने की सामर्थ्य रखते हैं। मुझे इस रोहतासगढ़ किले की मज़बूती पर बड़ा भरोसा था, मगर अब निश्चय हो गया कि वह मेरी भूल थी। आप जिस राज्य को चाहें बिना लड़े फतह कर सकते हैं। मेरी तो अक्ल नहीं काम करती, कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हुआ और आपके ऐयारों ने क्या तमाशा कर दिया। सैकड़ों वर्षों से जिस तहख़ाने का हाल एक भेद के तौर पर छिपा चला आता था, बल्कि सच तो यह है कि जहाँ का ठीक-ठीक हाल अभी तक मुझे भी मालूम न हुआ उसी तहख़ाने पर बात-की-बात में आपके ऐयारों ने कब्जा कर लिया, यह करामात नहीं तो क्या है! बेशक ईश्वर की आप पर कृपा है और यह सब सच्चे दिल से उपासना का प्रताप है। आपसे दुश्मनी रखना अपने हाथ से अपना सिर काटना है।

दिग्विजयसिंह की बात सुनकर राजा बीरेन्द्रसिंह मुस्कुराये और उनकी तरफ़ देखने लगे। दिग्विजयसिंह ने जिस ढंग से ऊपर लिखी बातें कहीं उसमें सच्चाई की बू आती थी। बीरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए और दिग्विजयसिंह को अपने पास बैठाकर बोले—

बीरेन्द्र : सुनो दिग्विजयसिंह, हम तुम्हें छोड़ देते हैं और रोहतासगढ़ की गद्दी पर अपनी तरफ़ से तुम्हें बैठाते हैं मगर इस शर्त पर कि तुम हमेशे अपने को हमारा मातहत समझो और ख़िराज की तौर पर कुछ मालगुज़ारी दिया करो।

दिग्विजय : मैं तो अपने को आपका ताबेदार समझ चुका अब क्या समझूँगा, बाक़ी रही रोहतासगढ़ की गद्दी, सो मुझे मंजूर नहीं। इसके लिए आप कोई दूसरा नायब मुक़र्रर कीजिए और मुझे अपने साथ रहने का हुक़्म दीजिए।

बीरेन्द्र : तुमसे बढ़कर और कोई नायाब रोहतासगढ़ के लिए मुझे दिखायी नहीं देता।

दिग्विजय : (हाथ जोड़कर) बस मुझ पर कृपा कीजिए, अब राज्य का जंजाल मैं नहीं उठा सकता।

आधे घण्टे तक यही हुज्जत रही। बीरेन्द्रसिंह अपने हाथ से रोहतासगढ़ की गद्दी पर दिग्विजयसिंह को बैठाया चाहते थे और दिग्विजयसिंह इन्कार करते थे, लेकिन आख़िर लाचार होकर दिग्विजयसिंह को बीरेन्द्रसिंह का हुक़्म मंजूर करना पड़ा मगर साथ ही इसके उन्होंने बीरेन्द्रसिंह से इस बात का एकरार करा लिया कि महीने-भर तक आपको मेरा मेहमान बनना पड़ेगा और इतने दिनों तक रोहतासगढ़ में रहना पड़ेगा।

बीरेन्द्रसिंह ने इस बात को खुशी से मंजूर किया, क्योंकि रोहतासगढ़ के तहख़ाने का हाल उन्हें बहुत कुछ मालूम करना था। बीरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह को विश्वास हो गया था कि वह तहख़ाना ज़रूर कोई तिलिस्म है।

राजा दिग्विजयसिंह ने हाथ जोड़कर तेज़सिंह की तरफ़ देखा और कहा, ‘‘कृपा कर मुझे समझा दीजिए कि आप और आपके मातहत ऐयार लोगों ने रोहतासगढ़ में क्या किया, अभी तक मेरी अक्ल हैरान है।’’

तेज़सिंह ने सब हाल खुलासे तौर पर कह सुनाया। दीवान रामानन्द का हाल सुन दिग्विजयसिंह खूब हँसे बल्कि उन्हें अपनी बेवकूफी पर भी हँसी आयी और बोले, ‘‘आप लोगों से कोई बात दूर नहीं है।’’ इसके बाद दीवान रामानन्द भी उसी जगह बुलवाये गये और दिग्विजयसिंह के हवाले किये गये और दिग्विजयसिंह के लड़के कुँअर कल्याणसिंह को लाने के लिए कई आदमी चुनारगढ़ रवाना कर दिये गये।

इन सब कामों से छुट्टी पाकर लाली के बारे में बातचीत होने लगी। तेज़सिंह ने दिग्विजयसिंह से पूछा कि लाली कौन है और आपके यहाँ कब से है? इसके जवाब में दिग्विजयसिंह ने कहा कि लाली को हम बखूबी नहीं जानते। महीने-भर से ज़्यादे न हुआ होगा कि चार-पाँच दिन के आगे पीछे लाली और कुन्दन दो नौजवान औरतें मेरे यहाँ पहुँची। उनकी चाल-ढ़ाल और पोशाक से मुझे मालूम हुआ कि किसी इज्जतदार घराने की लड़कियाँ हैं। पूछने पर उन दोनों ने अपने को इज्जतदार घराने की लड़की ज़ाहिर भी किया और कहा कि मैं अपनी मुसीबतों के दो-तीन महीने आपके यहाँ काटना चाहती हूँ। रहम खाकर मैंने उन दोनों को इज्जत के साथ अपने यहाँ रक्खा, बस इसके सिवाय और मैं कुछ नहीं जानता।

तेज़ : बेशक इसमें कोई भेद है, वे दोनों साधारण औरतें नहीं हैं।

ज्योतिषी : एक ताज्जुब की बात मैं सुनाता हूँ।

तेज़ : वह क्या?

ज्योतिषी : आपको याद होगा कि तहख़ाने का हाल कहते समय मैंने कहा था कि जब तहख़ाने में किशोरी और लाली को मैंने देखा था तो दोनों का नाम लेकर पुकारा, जिससे उन दोनों को आश्चर्य हुआ।

तेज़ : हाँ हाँ, मुझे याद है, मैं यह पूछने ही वाला था कि लाली को आपने कैसे पहिचाना?

ज्योतिषी : बस यही वह ताज्जुब की बात है जो अब मैं आपसे कहता हूँ।

तेज़ : कहिए, जल्द कहिए।

ज्योतिषी : एक दफे रोहतासगढ़ के तहख़ाने में बैठे-बैठे मेरी तबीयत घबराई तो मैं कोठरियों को खोल-खोलकर देखने लगा। उस ताली के झब्बे में जो मेरे हाथ लगा था एक ताली सबसे बड़ी है जो तहख़ाने की सब कोठरियों में लगती है मगर बाक़ी बहुत-सी तालियों का पता मुझे अभी तक नहीं लगा कि कहाँ की हैं।

तेज़ : ख़ैर तब क्या हुआ?

ज्योतिषी : सब कोठरियों में अँधेरा था, चिराग ले जाकर मैं कहाँ तक देखता, मगर एक कोठरी में दीवार के साथ चमकती हुई कोई चीज़ दिखायी दी। यद्यपि कोठरी में बहुत अँधेरा था तो भी अच्छी तरह मालूम हो गया कि यह कोई तस्वीर है। उस पर ऐसा मसाला लगा हुआ था कि अँधेरे में भी वह तस्वीर साफ़ मालूम होती थी, आँख, कान, नाक बल्कि बाल तक साफ़ मालूम होते थे, तस्वीर के नीचे ‘लाली’ ऐसा लिखा हुआ था। मैं बड़ी देर तक ताज्जुब से उस तस्वीर को देखता रहा, आख़िर कोठरी बन्द करके अपने ठिकाने चला आया, उसके बाद जब किशोरी के साथ मैंने लाली को देखा तो साफ़ पहिचान लिया कि वह तस्वीर इसी की है। मैंने तो सोचा था कि लाली उसी जगह की रहने वाली है इसीलिए उसकी तस्वीर यहाँ पायी गयी, मगर इस समय महाराज दिग्विजयसिंह की जुबानी उसका हाल सुनकर ताज्जुब होता है, लाली अगर वहाँ की रहनेवाली नहीं तो उसकी तस्वीर वहाँ कैसे पहुँची!

दिग्विजय : मैंने अभी तक वह तस्वीर नहीं देखी, ताज्जुब है।

बीरेन्द्र : अभी क्या जब मैं आपको साथ लेकर अच्छी तरह उस तहख़ाने की छानबीन करूँगा तो बहुत-सी बातें ताज्जुब की दिखायी पड़ेंगी।

दिग्विजय : ईश्वर करे जल्द ऐसा मौका आये, अब तो आपको बहुत जल्द रोहतासगढ़ चलना चाहिए।

बीरेन्द्र : (तेज़सिंह की तरफ़ देखकर) इन्द्रजीतसिंह के बारे में क्या बन्दोबस्त हो रहा है?

तेज़ : मैं बेफ़िक्र नहीं हूँ, जासूस लोग चारों तरफ़ भेजे गये हैं? इस समय तक रोहतासगढ़ की कार्रवाई में फँसा हुआ था, अब स्वयं उनकी खोज में जाऊँगा, कुछ पता लगा भी है?

बीरेन्द्र : हाँ? क्या पता लगा है?

तेज़ : इसका हाल कल कहूँगा आज-भर और सब्र कीजिए।

राजा बीरेन्द्रसिंह अपने दोनों लड़कों को बहुत चाहते थे, इन्द्रजीतसिंह के गायब होने का रंज उन्हें बहुत था, मगर वह अपने चित्त के भाव को भी खूब छिपाते थे और समय का ध्यान उन्हें बहुत रहता था। तेज़सिंह का भरोसा उन्हें बहुत था और उन्हें मानते भी बहुत थे, जिस काम में उन्हें तेज़सिंह रोकते थे उसका नाम फिर वह जुबान पर तब तक न लाते थे, जब तक तेज़सिंह स्वयं उसका ज़िक्र न छेड़ते, यही सबब था कि इस समय वे तेज़सिंह के सामने इन्द्रजीतसिंह के बारे में कुछ न बोले।

दूसरे दिन महाराज दिग्विजयसिंह सेना सहित तेज़सिंह को रोहतासगढ़ किले में ले गये। कुँअर आनन्दसिंह के नाम का डंका बजाया गया। यह मौका ऐसा था कि खुशी के जलसे होते मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह के ख़याल से किसी तरह की खुशी न की गयी।

राजा दिग्विजयसिंह के बर्ताव और ख़ातिरदारी से बीरेन्द्रसिंह और उनके साथी लोग बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन दीवानख़ाने में थोड़े आदमियों की कमेटी इसलिए की गयी कि अब क्या करना चाहिए। इस कुमेटी में केवल नीचे लिखे बहादुर और ऐयार लोग इकट्ठे थे—राजा बीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह, तेज़सिंह, देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, ज्योतिषीजी, राजा दिग्विजयसिंह और रामानन्द। इनके अतिरिक्त एक और आदमी मुँह पर नकाब डाले मौजूद था जिसे तेज़सिंह अपने साथ लाये थे और उसे अपनी जमानत पर कमेटी में शरीक किया था।

बीरेन्द्र : (तेज़सिंह की तरफ़ देखकर) इस नकाबपोश आदमी के सामने जिसे तुम अपने साथ लाये हो, हम लोग भेद की बातें कर सकते हैं?

तेज़ : हाँ हाँ, कोई हर्ज़ की बात नहीं है।

बीरेन्द्र : अच्छा तो अब हम लोगों को एक तो किशोरी के पता लगाने का, दूसरे यहाँ के तहख़ाने में जो बहुत-सी बातें जानने और विचारने लायक हैं उनके मालूम करने का, तीसरे इन्द्रजीतसिंह के खोजने का बन्दोबस्त सबसे पहिले करना चाहिए। (तेज़सिंह की तरफ़ देखकर) तुमने कहा था कि इन्द्रजीतसिंह का हाल मालूम हो चुका है।

तेज़ : जी हाँ, बेशक मैंने कहा था और इसका खुलासा हाल इस समय आपको मालूम हुआ चाहता है, मगर इसके पहिले मैं दो-चार बातें राजा साहब से (दिग्विजयसिंह की तरफ़ इशारा करके) पूछा चाहता हूँ जो बहुत ज़रूरी हैं, इसके बाद अपने मामले में बातचीत करूँगा।

बीरेन्द्र : कोई हर्ज़ नहीं।

दिग्विजय : हाँ-हाँ, पूछिए।

तेज़ : आपके यहाँ शेरसिह* नाम का कोई ऐयार था? (* शेरसिंह कमला का चाचा, जिसका हाल इस सन्तति के तीसरे भाग के तेरहवें बयान में लिखा गया है।)

दिग्विजय : हाँ था, बेचारा बहुत ही नेक, ईमानदार और मेहनती आदमी था और ऐयारी के फन में पूरा ओस्ताद था, रामानन्द और गोविन्दसिंह उसी के चेले हैं। उसके भाग जाने का मुझे बहुत ही रंज है। आज के दो-तीन दिन के पहिले दूसरे तरह का रंज था मगर आज और तरह का अफ़सोस है।

तेज़ : दो तरह के रंज और अफ़सोस का मतलब मेरी समझ में नहीं आया, कृपा कर साफ़-साफ़ कहिए।

दिग्विजय : पहिले उसके भाग जाने का अफ़सोस क्रोध के साथ था मगर आज इस बात का अफ़सोस है कि जिन बातों को सोचकर वह भागा था, वे बहुत ठीक थीं, उसकी तरफ़ से मेरा रंज होना अनुचित था, यदि इस समय वह होता तो बड़ी खुशी से आपके काम में मदद करता।

तेज़ : उससे आप क्यों रंज हुए थे और वह क्यों भाग गया था?

दिग्विजय : इसका सबब यह था कि जब मैंने किशोरी को अपने कब्ज़े में कर लिया तो उसने मुझे बहुत कुछ समझाया और कहा कि, ‘‘आप ऐसा काम न कीजिए बल्कि किशोरी को राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ भेज दीजिए।’ यह बात मैंने मंजूर न की बल्कि उससे रंज होकर मैंने इरादा कर लिया कि उसे क़ैद कर लूँ। असल बात यह है कि मुझसे और रणधीरसिंह से दोस्ती थी, शेरसिंह मेरे यहाँ रहता था और उसका छोटा भाई गदाधरसिंह जिसकी लड़की कमला है, आप उसे जानते होंगे।

तेज़ : हाँ हाँ, हम सब कोई उसे अच्छी तरह जानते हैं।

दिग्विजय : ख़ैर तो गदाधरसिंह, रणधीरसिंह के यहाँ रहता था। गदाधरसिंह को मरे बहुत दिन हो गये, इस बीच में मुझसे और रणधीरसिंह से भी कुछ बिगड़ गयी, इधर जब मैंने रणधीरसिंह की नतिनी किशोरी को अपने लड़के के साथ ब्याहने का बन्दोबस्त किया तो शेरसिंह को बहुत बुरा मालूम हुआ। मेरी तबीयत भी शेरसिंह से फिर गयी। मैंने सोचा कि शेरसिंह की भतीजी कमला हमारे यहाँ से किशोरी को निकाल ले जाने का ज़रूर उद्योग करेगी और इस काम में अपने चाचा शेरसिंह से मदद लेगी। यह बात मेरे दिल में बैठ गयी और मैंने शेरसिंह को क़ैद करने का विचार किया। उसे मेरा इरादा मालूम हो गया और वह चुपचाप न मालूम कहाँ भाग गया।

तेज़ : अब आप क्या सोचते हैं! उसका कोई कसूर था या नहीं।

दिग्विजय : नहीं नहीं, वह बिल्कुल बेकसूर था बल्कि मेरी ही भूल थी जिसके लिए आज मैं अफ़सोस करता हूँ, ईश्वर करे उसका पता लग जाय तो मैं उससे अपना कसूर माफ कराऊँ।

तेज़ : आप मुझे कुछ इनाम दें तो मैं शेरसिंह का पता लगा दूँ।

दिग्विजय : आप जो माँगेंगे मैं दूँगा और इसके अतिरिक्त आपका भारी अहसान मुझपर होगा।

तेज़ : बस मैं यही इनाम चाहता हूँ कि यदि शेरसिंह को ढूँढ़कर ले आऊँ तो उसे आप हमारे राजा बीरेन्द्रसिंह के हवाले कर दें! हम उसे अपना साथी बनाना चाहते हैं।

दिग्विजय : मैं खुशी से इस बात को मंजूर करता हूँ, वादा करने की क्या ज़रूरत है जब मैं स्वयं राजा बीरेन्द्रसिंह का ताबेदार हूँ।

इसके बाद तेज़सिंह ने उस नकाबपोश की तरफ़ देखा जो उनके पास बैठा हुआ था और जिसे वह अपने साथ इस कमेटी में लाये थे। नकाबपोश ने अपने मुँह से नकाब उतारकर फेंक दिया और यह कहता हुआ राजा दिग्विजयसिंह के पैरों पर गिर पड़ा कि ‘आप मेरा कसूर माफ करें’। राजा दिग्विजयसिंह ने शेरसिंह को पहिचाना, बड़ी खुशी से उठाकर गले लगा लिया और कहा, ‘‘नहीं नहीं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं बल्कि मेरा कसूर है जो मैं तुमसे क्षमा कराया चाहता हूँ।’’

शेरसिंह, तेज़सिंह के पास जा बैठे। तेज़सिंह ने कहा, ‘‘सुनो शेरसिंह, अब तुम हमारे हो चुके!’’

शेर : बेशक मैं आपका हो चुका हूँ, जब आपने महाराज से वचन ले लिया तो अब क्या उज्र हो सकता है?

राजा बीरेन्द्रसिंह ताज्जुब से ये बातें सुन रहे थे, अन्त में तेज़सिंह की तरफ़ देखकर बोले, ‘‘तुम्हारी मुलाक़ात शेरसिंह से कैसे हुई?’’

तेज़ : शेरसिंह ने मुझसे स्वयं मिलकर सब हाल कहा, असल तो यह है कि हम लोगों पर भी शेरसिंह ने भारी अहसान किया है।

बीरेन्द्र : वह क्या?

तेज़ : कुँअर इन्द्रजीतसिंह का पता लगाया है और अपने कई आदमी उनकी हिफ़ाजत के लिए तैनात कर चुके हैं, इस बात का भी निश्चय दिला दिया है कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह को किसी तरह की तक़लीफ़ न होने पावेगी।

बीरेन्द्र : (खुश होकर और शेरसिंह की तरफ़ देखकर) हाँ, कहाँ पता लगा और किस हालत में हैं?

शेर : यह सब हाल जो कुछ मुझे मालूम था मैं दीवान साहब (तेज़सिंह) से कह चुका हूँ, वह आप से कह देंगे, आप उसके जानने की जल्दी न करें। मैं इस समय जिस काम के लिए यहाँ आया था मेरा वह काम हो चुका, अब मैं यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं समझता। आप लोग अपने मतलब की बातचीत करें क्योंकि मदद के लिए मैं बहुत जल्द कुँअर इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँचा चाहता हूँ। हाँ यदि आप कृपा करके अपना एक ऐयार मेरे साथ कर दें तो उत्तम हो और काम शीघ्र भी हो जाय।

बीरेन्द्र : (खुश होकर) अच्छी बात है, आप जाइये और मेरे जिस ऐयार को चाहें लेते जाइए।

शेर : अगर आप मेरी मर्जी पर छोड़ते हैं तो मैं देवीसिंह को अपने साथ के लिए माँगता हूँ।

तेज़ : हाँ आप खुशी से उन्हें ले जायँ। (देवीसिंह की तरफ़ देखकर) आप तैयारी कीजिए।

देवी : मैं हरदम तैयार ही रहता हूँ। (शेरसिंह से) चलिए अब इन लोगों का पीछा छोड़िए।

देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिंह रवाना हुए और इधर इन लोगों में विचार होने लगा कि अब क्या करना चाहिए। घण्टे-भर में यह निश्चय हुआ कि लाली से कुछ विशेष पूछने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वह अपना हाल ठीक-ठीक कभी न कहेगी, हाँ, उसे हिफ़ाजत में रखना चाहिए और तहख़ाने को अच्छी तरह देखना और वहाँ का हाल मालूम करना चाहिए।


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