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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

पन्द्रहवाँ बयान


रात आधी से ज़्यादे जा चुकी है। गयाजी में हर मोहल्ले के चौकीदार ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ कह-कहकर इधर-से-उधर घूम रहे हैं। रात अँधेरी है, चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ है। यहाँ का मुख्य स्थान विष्णु-पादुका है, उसके चारों तरफ़ की आबादी बहुत घनी है मगर इस समय हम गुञ्जान आबादी में न जाकर उस मुख्तसर आबादी की तरफ़ चलते हैं जो शहर के उत्तर रामशिला पहाड़ी के आबाद है और जहाँ के कुल मकान कच्चे और खपड़े की छावनी हैं। इसी आबादी में से दो आदमी स्याह कम्बल ओढ़े बाहर निकले और फलगू नदी की तरफ़ रवाना हुए।

रामशिला पहाड़ी से पूरब फलगू नदी के बीचोंबीच में एक बड़ा भयानक ऊँचा टीला है। उस टीले पर किसी महात्मा की समाधि है और उसी जगह पत्थर की मज़बूत बनी हुई कुटी में एक साधु भी रहते हैं। उस समाधि और कुटी को चारों तरफ़ बैर, मकोइचे, धौ इत्यादि जंगली पेड़ों से बड़ा ही गुन्जान हो रहा है और वहाँ ज़मीन पर पड़ी हुई हड्डियों की यह कैफ़ियत है कि बिना उन पर पैर रक्खे कोई आदमी समाधि या उस कुटी तक जा ही नहीं सकता। छोटी बड़ी, साबुत और टूटी सैकड़ों तरह की खोपड़ियाँ इधर-से-उधर लुढ़क रही थीं। न मालूम कब और क्योंकर इतनी हड्डियाँ चारों तरफ़ जमा हो गयीं। उस आबादी से निकले हुए दोनों आदमी इसी टीले की तरफ़ जा रहे हैं।

कोई साधारण आदमी ऐसी अँधेरी रात में उस टीले की तरफ़ जाने का साहस कभी नहीं कर सकता, मगर ये दोनों बिना किसी तरह की रोशनी साथ लिये अँधेरे में ही हड्डियों पर पैर रखते और कँटीली झाड़ियों में घुसते चले जा रहे हैं। आख़िर ये दोनों कुटी के पास जा पहुँचे और दरवाज़े पर खड़े होकर एक ने ताली बजायी।

भीतर से—कौन है?

एक : किवाड़ खोलो।

भीतर सेः किवाड़ क्यों खोलें?

एक : काम है।

भीतर से : तुम लोग हमें व्यर्थ तंग करते हो?

साधु ने उठकर किवाड़ खोला और वे दोनों अन्दर जाकर एक तरफ़ बैठ गये। भीतर धूनि के जलने से कुटी अच्छी तरह गर्म हो रही थी इसलिए उन दोनों ने कम्बल उतार कर रख दिया। अब मालूम हुआ कि ये दोनों औरते हैं और साथ ही इसके यह भी देखने में आया कि एक औरत की दाहिनी कलाई कटी है जिस पर वह कपड़ा लपेटे हुए है। एक औरत तो चुपचाप बैठी रही मगर बाबाजी से वह दूसरी औरत जिसकी कलाई कटी हुई थी यों बातचीत करने लगी :—

औरत : रहिए आप ने कुछ सोचा?

बाबाजी : जो काम मेरे किये हो ही नहीं सकता उसके लिए मैं क्या सोचूँ।

औरत : बेशक आपके किये वह काम हो सकता है, क्योंकि वह आपको गुरु के समान मानती है।

साधु : गुरु के समान मानती है तो क्या मेरे कहने से अपनी जान दे देगी? तुम लोग भी क्या अन्धेर करती हो!

औरत : इसमें जान देने की क्या ज़रूरत है?

साधु : तो तुम क्या चाहती हो?

औरत : बस इतना ही वह उस मकान को छोड़ दे।

साधु : उस बेचारी ने किसी को दुःख तो दिया नहीं, फिर उसके पीछे क्यों पड़ी हो?

औरत : क्या उसने मुझे और मेरे आदमियों को धोखा नहीं दिया?

साधु : तुम अपना राज्य दूसरे को देकर आप भाग गयीं, अब तो वही मालिक है, इसलिए वे लोग उसी के नौकर गिने जायँगे।

औरत : मैं अपना राज्य फिर अपने कब्ज़े में किया चाहती हूँ।

साधु : जो तुमसे हो सके करो पर मैं किसी तरह की मदद नहीं दे सकता। तुम लड़कपन से मुझे जानती हो, तुम्हारे पिता, तुमको गोद में लेकर यहाँ आया करते थे, कभी मैं किसी के भले-बुरे का साथी नहीं हुआ।

औरत : जो हो मगर आपको वह काम करना ही पड़ेगा जो मैं कहती हूँ और याद रखिए कि अगर आप इन्कार करेंगे तो इसका नतीजा अच्छा न होगा, मैं साधु और महात्मा समझकर छोड़ न दूँगी।

साधु : (कुछ देर सोचने के बाद) अच्छा आज-भर तुम मुझे और मोहलत दो, कल इसी समय यहाँ आना।

औरत : ख़ैर एक दिन और सही।

ये दोनों औरतें उठकर वहाँ से रवाना हुईं। न मालूम कब से एक आदमी कुटी के पीछे छिपा हुआ था जो इस समय नज़र बचाकर उन दोनों के पीछे-पीछे तब तक चला ही गया था जब तक वे दोनों आबादी में पहुँचकर अपने मकान के अन्दर न घुस गयीं। जब उन दोनों औरतों ने मकान के अन्दर जाकर दरवाज़ा बन्द कर लिया जो खुला छोड़ गयी थीं, तब वह आदमी वहाँ से लौटकर और फिर उसी कुटी में पहुँचा जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। कुटी का दरवाज़ा खुला हुआ था और साधु बेचारे उसी तरह बैठे कुछ सोच रहे थे। वह आदमी कुटी के अन्दर बेधड़क चला गया और दण्डवत करके किनारे बैठ गया।

साधु : कहिए देवीसिंहजी, आप आ गये!

देवी : (हाथ जोड़कर) जी महाराज, मैं तभी से यहाँ हूँ जब ये दोनों आयी भी न थीं, अब उन दोनों को उनके घर पहुँचाकर लौटा आ रहा हूँ।

साधु : हाँ!

देवी : जी हाँ, आपने बड़ी कृपा की जो उसका हाल मुझे बता दिया, कई दिनों से हम हैरान हो रहे थे। क्या कहूँ आपकी आज्ञा न हुई नहीं तो मैं इसी जगह से उन दोनों को अपने कब्ज़े में कर लेता।

साधु : नहीं भैया ऐसा करने से यह हमारे गुरु की कुटिया बदनाम होती, अब तुमने उसका घर देख ही लिया है सब काम बना लोगे। बीरेन्द्रसिंह बड़े प्रतापी और धर्मात्मा राजा हैं, ऐसे को कभी कोई सता नहीं सकता। देखो इस दुष्टा माधवी ने अपने चाल-चलन को कैसा खराब किया और प्रजा को कितना दुःख दिया, आख़िर उसी की सजा भोग रही है। अच्छा अब ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। बीरेन्द्रसिंह से मेरा आशीर्वाद कहना। अहा, कैसा भक्त धर्मात्मा और नीति पर चलने वाला राजा है।

देवी : अच्छा तो मुझे आज्ञा है न?

साधु : हाँ जाओ, मगर देखो मैं तुम्हें पहिले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि माधवी को जान से मत मारना और बेचारी कामिनी पर दया रखना। मैं उसे अपनी पुत्री ही मानता हूँ। बीरेन्द्रसिंह से कह देना कि वे कामिनी को अपनी लड़की समझें और आनन्दसिंह के साथ उसका संबन्ध करने में कुछ सोच-विचार न करें, क्या हुआ अगर उसका बाप आपके सामने खड़ा होने लायक नहीं है।

देवी : (हाथ जोड़कर) बहुत अच्छा कह दूँगा, राजा बीरेन्द्रसिंह कदापि आपकी आज्ञा न टालेंगे, मगर फिर भी एक दफे मैं आपकी सेवा में आऊँगा।

साधु : नहीं अब मुझसे मुलाक़ात नहीं होगी, मैं आज ही इस कुटी को छोड़ दूँगा। हाँ ईश्वर चाहेगा तो मैं एक दिन स्वयं तुम लोगों से मिलूँगा।

देवी : जैसी आज्ञा।

साधु : हाँ बस अब जाओ यहाँ मत अटको।

पाठक सोचते होंगे कि देवीसिंह तो बीरेन्द्रसिंह के साथ चुनार चले गये थे, यहाँ कैसे आ पहुँचे! मगर नहीं, लोगों के जानने में बीरेन्द्रसिंह देवीसिंह को अपने लाथा ले गये थे परन्तु वास्तव में ऐसा न था। राजा बीरेन्द्रसिंह की गुप्त नीति साधारण नहीं।


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