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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौदहवाँ बयान


सूर्य भगवान के अस्त होने में अभी घण्टे-भर की देर है, फिर भी मौसिम के मुताबिक बाग़ में टहलने वाले हमारे कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को ठण्डी हवा सिहरावनदार मालूम हो रही है। रंग-बिरंग के खूबसूरत फूल खिले हुए हैं जिनके देखने से हर एक की तबीयत उमंग पर आ सकती है मगर इन दोनों के दिल की कली किसी तरह भी खिलने में नहीं आती। बाग़ में जितनी चीज़ें दिल खुश करने वाली हैं, वे सभों इस समय इन दोनों को बुरी मालूम होती हैं। बहुत देर से ये दोनों भाई बाग़ में टहल रहे हैं मगर ऐसी नौबत न आयी कि एक दूसरे से बात करें या हँसे क्योंकि दोनों के दिल चुटीले हो रहे हैं, दोनों ही अपनी-अपनी धुन में डूबे हुए हैं, दोनों ही को अपने-अपने माशूक की खोज है, दोनों ही सोच रहे हैं कि ‘हाय क्या ही आनन्द होता अगर इस समय वह मौजूद होता जिसे जी प्यार करता है या जिसके बिना दुनिया की सम्पत्ति तुच्छ मालूम होती है’! दिल बहलाने का बहुत कुछ उद्योग किया मगर न हो सका, लाचार दोनों भाई उस बारहदरी में पहुँचे जो बाग़ के दक्खिन तरफ़ महल के साथ सटी हुई है और जहाँ इस समय राजा बीरेन्द्रसिंह अपने मुसाहिबों के साथ जी बहलाने की बातें कर रहे थे। देवीसिंह भी उनके पास बैठे हुए थे जो कभी-कभी लड़कपन की बातें याद के दिलाने साथ ही गुप्त दिल्लगी भी करते जाते थे और जवाब भी पाते थे। दोनों लड़के भी वहाँ जा पहुँचे मगर उनके बैठते ही मजलिम का रंग बदल गया और बातों ने पलटा खाकर दूसरा ही ढँग पकड़ा जैसा कि अक्सर हँसी-दिल्लगी करते हुए बड़ों के बीच में समझदार लड़कों के आ बैठने से हो जाता है।

बीरेन्द्र : अब तो चुनार जाने को जी चाहता है मगर...

देवी : यहाँ आपकी ज़ररूत भी अब क्या है?

बीरेन्द्र : ठीक है, यहाँ मेरी ज़रूरत नहीं, लेकिन यहाँ की अद्भुत बातें देखकर विचार होता है कि मेरे चले जाने से कोई बखेड़ा न मचे और लड़कों को तक़लीफ़ न हो।

इन्द्र : (हाथ जोड़कर) इसकी चिन्ता आप न करें, हम लोग जब इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने को सम्हाल न सकेंगे तो आगे क्या करेंगे!

बीरेन्द्र : तो क्या तुम्हारा इरादा भी यहाँ रहने का है

इन्द्र : यदि आज्ञा हो!

बीरेन्द्र : (कुछ सोचकर) क्यों देवीसिंह!

देवी : क्या हर्ज़ है रहने दीजिए।

बीरेन्द्र : और तुम

देवी : मैं आपके साथ चलूँगा, यहाँ भैरो और तारा रहेंगे, वे दोनों होशियार हैं, कुछ हर्ज़ नहीं है!

भैरो : (हाथ जोड़कर) यहाँ की अद्भुत बातें हम लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं!

तारा : (हाथ जोड़कर) सरकार की मर्जी नहीं हो पायी नहीं तो ऐसी-ऐसी लीलाओं की तो मैं एक ही दिन में कायापलट कर देने की हिम्मत रखता हूँ।

भैरो : अगर मरज़ी हो तो इन अद्भुत बातों का आज ही निपटारा कर दिया जाय।

बीरेन्द्र : (मुस्कुराकर) नहीं ऐसी कोई ज़रूरत नहीं, हमें तुम लोगों के हौसले पर पूरा भरोसा है। (देवीसिंह की तरफ़ देखकर) ख़ैर तो आज दिन भी अच्छा है।

देवी : बहुत खूब! (एक मुसाहिब की तरफ़ देखकर) आप ज़रा तक़लीफ़ करें।

मुसाहिब : बहुत अच्छा, मैं जाता हूँ।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह यही चाहते थे कि किसी तरह बीरेन्द्रसिंह चुनार जायँ क्योंकि उनके रहते ये दोनों अपने मतलब की कार्रवाई नहीं कर सकते थे। इस बात को बीरेन्द्रसिंह भी समझते थे मगर इसके सिवाय भी न मालूम क्या सोचकर वे इस समय चुनार जा रहे हैं या गयाजी की सरहद छोड़कर क्या मतलब निकाला चाहते हैं!

राजा बीरेन्द्रसिंह का विचार कोई जान नहीं सकता था। वे किसी से यह नहीं कह सकते थे कि हम दो घण्टे बाद क्या करेंगे। कोई यह नहीं कह सकता था कि महाराज आज यहाँ तो हैं मगर कल कहाँ रहेंगे, या महाराज फलाना काम क्यों और किस इरादे से कर रहे हैं। पहिले दिल-ही-दिल में अपना इरादा मज़बूत कर लेते थे, जिसे कोई बदल नहीं सकता था, मगर अपने बाप की इज्जत बहुत करते थे और उनके मुक़ाबले में अपने दृढ़ विचार को भी हुक़्म के मुताबिक बदल देने में बुरा नहीं समझते थे, बल्कि उसे कर्तव्य और धर्म मानते थे।

दो घड़ी रात जाते-जाते बीरेन्द्रसिंह ने चुनार की तरफ़ कूच कर दिया और देवीसिंह को साथ लेते गये। अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह खुदमुख्तसर हो गये, मगर साथ ही इसके राजा हो गये तो क्या अपनी खुद मुख्तारी के सामने आनन्दसिंह अपने बड़े भाई के हुक़्म की नाकदरी नहीं कर सकते थे और यहाँ तो दोनों ही के इरादे दूसरे हैं जिसमें एक, दूसरे का बाधक नहीं हो सकता था।

कुअँर इन्द्रजीतसिंह बीमार थे इसलिए दोनों भाई एक ही कमरे में रहा करते थे, मगर अब दोनों ने अपने-अपने लिए अलग-अलग दो कमरे मुक़र्रर किये। जिस कमरे में वह विचित्र कोठरी थी और जिसका हाल ऊपर लिखा गया है आनन्दसिंह ने अपने लिए रक्खा। उससे कुछ दूर पर इन्द्रजीतसिंह का दूसरा कमरा था।


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