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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

तीसरा बयान


सुबह का सुहावना समय भी बड़ा ही मज़ेदार होता है। जबर्दस्त भी परले सिरे का है। क्या मजाल कि इसकी अमलदारी में कोई धूम तो मचावे, इसके आने की ख़बर दो घण्टे पहिले ही से हो जाती है। वह देखिए आसमान के जगमगाते तारे कितनी बेचैनी और उदासी के साथ हसरत-भरी निगाहों से ज़मीन की तरफ़ देख रहे हैं जिनकी सूरत और चलाचली की बेचैनी देख बागों की सुन्दर कलियों ने भी मुस्कुराना शुरू कर दिया है, अगर यही हालत रही तो सुबह होते तक ज़रूर खिलखिलाकर हँस पड़ेंगी।

लीजिए अब दूसरा ही रंग बदला। प्रकृति की न मालूम किस ताक़त ने आसमान की स्याही को धो डाला और इसकी हुक़ुमत की रात बीतते देख उदास तारों को भी बिदा देने का हुक़्म सुना दिया। इधर बेचैन तारों की घबराहट देख अपने हुस्न और जमाल पर भूली हुई खिलखिलाकर हँसने वाली कलियों को सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा ने खूब ही आड़े हाथों लिया और मारे थपेड़ों के उनके उस बनाव को बिगाड़ना शुरू कर दिया जो दो ही घण्टे पहिले प्रकृति की किसी भी लौंडी ने दुरुस्त कर दिया था।

मोतियों से ज़्यादे ओस की बूँदों को बिगड़ते और हँसती हुई कलियों का श्रृंगार मिटते देख उनकी तरफ़दार खुशबू से न रहा गया, झट फूलों से अलग हो सुबह की ठण्डी हवा से उलझ पड़ीं और इधर-उधर फैल धूम मचाना शुरू कर दिया। अपनी फरियाद सुनाने के लिए उन नौजवानों के दिमाग़ों में घुस-घुसकर उन्हें ठिकाने की फ़िक्र करने लगीं जो रात-भर जाग-जागकर इस समय खूबसूरत पलंगड़ियों पर सुस्त पड़ रहे थे। जब उन्होंने कुछ न सुना और करवट बदलकर रह गये तो मालियों को जा घेरा। ये झट उठ बैठे और कमर कसकर उस जगह पहुँचे जहाँ फूलों और उमंग भरे हवा के झपेटों से कहा-सुनी हो रही थी। कम्बख्त छोटे लोगों का यह दिमाग़ कहाँ कि ऐसों का फैसला करें, बस फूलों को तोड़-तोड़कर चंगेर भरने लगे। चलो छुट्टी हुई, न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। क्या अच्छा झगड़ा मिटाया है। इसके बदले में वे बड़े-बड़े दरख्त खुश हो हवा की मदद से झुक-झुककर मालियों को सलाम करने लगे जिनकी टहनियों में एक भी फूल दिखायी नहीं देता था। ऐसा क्यों न करें? उनमें था ही क्या जो दूसरों को महक देते, अपनी सूरत सभों को भाती है और अपना-सा होते देख सभों खुश होते हैं।

लीजिए उन परजीमालों ने भी पलँग का पीछा छोड़ा उठते ही आईने के मुकाबिल हो बैठीं जिनके बनाव को चाहनेवालों ने रात-भर में बिथोरकर रख दिया था। झटपट अपनी सम्बुली जुल्फों को सुलझा माहताबी चेहरों को गुलाबजल से साफ़ कर अलबेली चाल से अठखेलियाँ करती, चम्पई दुपट्टा सँभालतीं, रविशों पर घूमने और फूलों के मुकाबिले में रुक-रुककर पूछने लगीं कि ‘कहिए आप अच्छे हैं या हम’? जब जवाब न पाया हाथ बढ़ाकर तोड़ लिया और बालियों में झुमकी की जगह रख आगे बढ़ीं। गुलाब की पटरी तक पहुँची थीं कि काँटों ने आँचल पकड़ा और इशारे से कहा, ‘‘ज़रा ठहर जाइए, आपके इस तरह लापरवाह जाने से उलझन होती है, और नहीं तो आँखें चार ही करते और आँसू पोंछते जाइए!’’

जाने दीजिए ये सब घमण्डी हैं। हमें तो कुछ उन लोगों की कुलबुलाहट भरी मालूम होती है, जो सुबह होने के दो घण्टे पहिले ही उठ, हाथ-मुँह धो, ज़रूरी कामों से छुट्टी पा बगल में धोती दबा गंगाजी की तरफ़ लपके जाते हैं और वहाँ स्नान कर, भस्म या चन्दन लगा, पटरों पर बैठ सन्ध्या करते-करते सुबह के सुहावने समय का आनन्द पतितपावन श्रीगंगाजी की पापनाशिनी तरंगों से ले रहे हैं। इधर गुप्ती में घुसी उँगलियों ने प्रेमानन्द में मग्न मनराज की आज्ञा से गिरिजापति का नाम ले एक दाना पीछे हटाया और उधर तरनतारिनी भगवती जान्हवी की लहरें तख्तों ही से छू-छूकर दस-बीस जन्म का पाप बहा ले गयीं। सुगन्धित हवा के झपेटे कहते फिरते हैं—‘‘ज़रा ठहर जाइए, अर्घा न उठाइए, अभी भगवान् सूर्यदेव के दर्शन देर में होंगे, तब तक आप कमल के फूलों को खोलकर इस तरह पर श्रीगंगाजी को चढ़ाइए कि लड़ी टूटने न पावे, फिर देखिए देवता उसे खुद-ब-खुद मालाकार बना देते हैं या नहीं!!’’

ये सब तो सत्पुरुषों के काम हैं जो यहाँ भी आनन्द ले रहे हैं और वहाँ भी मजा लूटेंगे। आप ज़रा मेरे साथ चलकर उन दो दिलजलों की सूरत देखिए जो रात-भर जागते और इधर-उधर दौड़ते रहे हैं और सुबह के सुहावने समय में एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ चारों तरफ़ देखते हुए सोच रहे हैं कि किधर जाँय, क्या करें? चाहे वे कितने ही बेचैन क्यों न हों मगर पहाड़ों से टक्कर खाते सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा के झोंकों के डपटने और हिलाकर जताने से उन छोटे-छोटे जंगली फूलों के पौंधों की तरफ़ नज़र डाल ही देते हैं जो दूर तक कतार बाँधें मस्ती से झूम रहे हैं, उन क्यारियों की तरफ़ ताक ही देते हैं जिनके फूल ओस के बोझ से तंग हो टहनियाँ छोड़ पत्थर के ढोंकों का सहारा ले रहे हैं, उन साखू और शीशम के पत्तों की घनघनाहट सुन ही लेते हैं जो दक्खिन से आती हुई सुगन्धित हवा को रोक, रहे-सहे जहर को चूस, गुणकारी बना उन तक आने का हुक़्म देते हैं।

इन दो आदमियों में से एक तो लगभग बीस वर्ष की उम्र का बहादुर सिपाही है जो ढाल-तलवार के इलावे हाथ में तीर-कमान लिए बड़ी मुस्तैदी से खड़ा है, मगर दूसरे के बारे में हम कुछ नहीं सकते हैं कि वह कौन या किस दर्जे और इज्जत का आदमी है। इसकी उम्र चाहे पचास से ज़्यादे क्यों न हो मगर अभी तक इसके चेहरे पर बल का नाम निशान नहीं है, जवानों की तरह खूबसूरत चेहरा दमक रहा है, बेशक़ीमती पोशाक और हरबों की तरफ़ ख़याल करने से तो यही कहने को जी चाहता है कि किसी फौज का सेना पति है, मगर नहीं, उसका रोआबदार और गम्भीर चेहरा इशारा करता है कि यह कोई बहुत ही ऊँचे दर्जे का है जो कुछ देर से खड़ा एकटक वायुकोण की तरफ़ देख रहा है।

सूर्य की किरणों के साथ-ही-साथ लाल वर्दी के बेशुमार फौजी आदमी उत्तर से दक्खिन की तरफ़ जाते दिखायी पड़े जिससे इस बहादुर का चेहरा जोश में आकर और भी दमक उठा और यह धीरे से बोला, ‘‘लो हमारी फौज भी आ पहुँची!

थोड़ी ही देर में वह फौज इस पहाड़ी के नीचे आकर रुक गयी जिस पर ये दोनों खड़े थे और एक आदमी पहाड़ के ऊपर चढ़ता हुआ दिखायी दिया जो बहुत जल्द इन दोनों के पास पहुँचकर सलाम कर खड़ा हो गया।

इस नये आये हुए आदमी की उम्र भी पचास से कम न होगी। इसके सर और मूँछों के बाल चौथाई सफेद हो चुके थे। कद के साथ-साथ खूबसूरत चेहरा भी कुछ लम्बा था। इसका रंग सिर्फ़ गोरा ही नहीं था बल्कि अभी तक रंगो में दौड़ती हुई खून की सुर्खी इसके गालों पर अच्छी तरह उभड़ रही थी, बड़ी-बड़ी स्याह और जोश-भरी आँखों में गुलाबी डोरियाँ बहुत भली मालूम होती थीं। इसकी पोशाक ज़्यादे कीमती की या कामदार न थी, मगर कम दाम की भी न थी। उम्दे और मोटे स्याह मखमल की इतनी चुस्त थी कि उसके अंगों की सुडौली कपड़े के ऊपर से ज़ाहिर हो रही थी। कमर में सिर्फ़ एक खंजर और लपेटा हुआ कमन्द दिखायी देता था, बगल में सुर्ख मखमल का एक बटुआ भी लटक रहा था।

पाठकों को ज़्यादे देर तक हैरानी में न डालकर साफ़-साफ़ कह देना ही पसन्द करते हैं कि यह तेज़सिंह और इनके पहिले पहुँचे हुए दोनों आदमियों में एक राजा बीरेन्द्रसिंह और दूसरे उनके छोटे लड़के कुँअर आनन्दसिंह हैं, जिनके लिए हमें ऊपर बहुत कुछ फजूल बक जाना पड़ा।

राजा बीरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह कुछ देर तक सलाह करते रहे, इसके बाद तीनों बहादुर पहाड़ी के नीचे उतर अपनी फौज से मिल गये और दिल खुश करने के सिवाय बहादुरों को जोश में भर देने वाले बाजे की आवाज़ के तालों पर एक साथ कदम रखती हुई फौज दक्खिन की तरफ़ रवाना हुई।


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