मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
दूसरा बयान
किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ तेज़ी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी, इन्द्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उसका दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में लीन हो रही थी। कभी सोचती कि जब इन्द्रजीतसिंह के सामने जाऊँगी तो किस तरह खड़ी होऊँगी क्या कहूँगी? अगर वे पूछ बैठेंगे कि तुम्हें किसने बुलाया तो क्या जवाब दूँगी? नहीं नहीं, वे ऐसा कभी न पूछेंगे क्योंकि मुझ पर प्रेम रखते हैं। मगर उनके घर की औरतें मुझे देखकर अपने दिल में क्या कहेंगी। वे ज़रूर समझेंगी कि किशोरी बड़ी बेहया औरत है। इसे अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का कुछ भी ध्यान नहीं है। हाय, उस समय तो मेरी बड़ी ही दुर्गति होगी, जिन्दगी जंजाल हो जायगी, किसी को मुँह न दिखा सकूँगी?
ऐसी ही बातों को सोचती, कभी खुश होती कभी इस तरह बेसमझे-बूझ चल पड़ने पर अफसोस करती थी। कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी, अँधेरे ही में रथ के बैल बराबर दौड़े जा रहे थे। चारो तरफ़ घेरकर चलनेवाले सवारों के घोड़ों के टापों की बढ़ती हुई आवाज़ दूर-दूर तक फैल रही थी! किशोरी ने पूछा, ‘‘क्यों कमला, क्या लौंडियाँ भी घोंड़ों ही पर सवार होकर साथ-साथ चल रही हैं?’’ जिसके जवाब में कमला सिर्फ़ ‘जी हाँ’ कहकर चुप हो रही।
अब रास्ता खराब और पथरीला आने लगा, पहियों के नीचे पत्थर के छोटे-छोटे ढोंकों के पड़ने से रथ उछलने लगा, जिसकी धमक से किशोरी के नाजुक बदन में दर्द पैदा हुआ!
किशोरी : ओफ़ ओह, अब तो बड़ी तक़लीफ़ होने लगी।
कमला : थोड़ी दूर का रास्ता ख़राब है, आगे हम अच्छी सड़क पर जा पहुँचेंगे।
किशोरी : मालूम होता है हम लोग सीधी और साफ़ सड़क छोड़ किसी दूसरी ही तरफ़ से जा रहे हैं।
कमला : जी नहीं।
किशोरी : नहीं क्या? ज़रूर ऐसा ही है।
कमला : अगर ऐसा भी है तो क्या बुरा हुआ? हम लोगों की खोज में जो निकलें वे पा तो न सकेंगे।
किशोरी : (कुछ सोचकर) ख़ैर जो किया अच्छा किया, मगर रथ का पर्दा तो उठा ज़रा हवा लगे और इधर-उधर की कैफ़ियत देखने में आवे, रात का तो समय है। लाचार होकर कमला ने रथ का पर्दा उठा दिया और किशोरी ताज्जुब भरी निगाहों से दोनों तरफ़ देखने लगी।
अब तक तो रात अँधेरी थी, मगर अब विधाता ने किशोरी को यह बताने के लिए कि देख तू किस बला में फँसी हुई है, तेरे रथ को चारों तरफ़ से घेरकर चलने वाले सवार कौन हैं, तू किस राह से जा रही है, यह पहाड़ी जंगल कैसा भयानक है—आसमान पर माहताबी जलायी। चन्द्रमा निकल आया और धीरे-धीरे ऊँचा होने लगा जिसकी रोशनी में किशोरी ने कुल सामान देख लिये और एकदम चौंक उठी। चारों तरफ़ की भयानक पहाड़ी और जंगल ने उसका कलेजा दहला दिया। उसने उन सवारों की तरफ़ अच्छी तरह देखा जो रथ घेरे हुए साथ-साथ जा रहे थे। वह बखूबी समझ गयी कि इन सवारों में, जैसा की कहा गया था, कोई भी औरत नहीं सब मर्द ही हैं। उसे निश्चय हो गया कि वह आफ़त में फँस गयी है और घबराहट में नीचे लिखे कई शब्द उसकी जुबान से निकल पड़े...
‘‘चूनार तो पूरब है, मैं दक्खिन की तरफ़ क्यों जा रही हूँ? इन सवारों में तो एक भी लौंडी नज़र नहीं आती। बेशक मुझे धोखा दिया गया। मैं निश्चय कह सकती हूँ कि मेरी प्यारी कमला कोई दूसरी ही है, अफसोस!’’
रथ में बैठी हुई कमला किशोरी के मुँह से इन बातों को सुनकर होशियार हो गयी और झट रथ के नीचे कूद पड़ी, साथ ही हलवान ने भी बैलों को रोका और सवारों ने बहुत पास आकर रथ घेर लिया।
कमला ने चिल्लाकर कुछ कहा जिसे किशोरी बिल्कुल न समझ सकी, हाँ एक सवार घोड़े के नीचे उतर पड़ा और कमला उसी घोड़े पर सवार हो तेज़ी के साथ पीछे की तरफ़ लौट गयी।
अब किशोरी को अपने धोखा खाने का और आफ़त मे फँस जाने का पूरा विश्वास हो गया और वह एकदम चिल्ला कर बेहोश हो गयी।
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