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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

सत्रहवाँ बयान


भैरोसिंह को राजगृही गये आज तीसरा दिन है। वहाँ का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलँग पर लेटे हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की ख़याली तस्वीर उनकी आँखों के सामने आ-आकर गायब हो जाती है। इससे उन्हें और भी दुःख होता है, घबराकर लम्बी साँस ले उठते हैं। कभी-कभी जब बेचैनी बहुत बढ़ जाती है तो पलँग को छोड़ कमरे में टहलने लगते हैं।

इसी हालत में इन्द्रजीतसिंह कमरे में टहल रहे थे, इतने में पहरे ने एक सिपाही ने अन्दर की तरफ़ झाँककर देखा और इनको टहलते देख हट गया, थोड़ी देर बाद वह दरवाज़े के पास इस उम्मीद से आकर खड़ा हो गया कि कुमार उसकी तरफ़ देखकर पूछें तो वह कुछ कहे मगर कुमार तो अपने ध्यान मं डूबे हुए हैं, उन्हें ख़बर ही क्या है कि कोई उनकी तरफ़ झाँक रहा या इस उम्मीद में खड़ा है कि वे उसकी तरफ़ देखें और कुछ पूछें। आख़िर उस सिपाही ने जान-बूझकर किवाड़ का एक पल्ला इस ढँग से खोला कि कुछ आवाज़ हुई, साथ ही कुमार ने घूमकर उनकी तरफ़ देखा और इशारे से पूछा कि क्या है!

राजा सुरेन्द्रसिंह बीरेन्द्रसिंह इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का बराबर के लिए हुक़्म था कि मौका न होने पर किसी की इतिला न की जाय मगर जब कोई ऐयार आवे और कहे कि मैं ऐयार हूँ और इसी समय मिलना चाहता हूँ तो चाहे कैसा ही बेमौका क्यों न हो हम तक उसकी इत्तिला ज़रूर पहुँचनी चाहिए। अपने घर के ऐयारों के लिए तो कोई रोक-टोक थी ही नहीं, चाहे वह कुसमय में भी महल में घुस जायँ या जहाँ चाहें वहाँ पहुँचे, महल में उनकी ख़ातिर और उनका लिहाज ठीक उतना ही किया जाता था जितना पन्द्रह वर्ष के लड़के का किया जाता और इसी का ठीक नमूना ऐयार लोग दिखलाते थे।

सिपाही ने हाथ जोड़ के कहा, ‘‘एक ऐयार हाज़िर हुआ है और इसी समय कुछ अर्ज़ किया चाहता है!’’ कुमार ने कहा, ‘‘रोशनी तेज़ कर दो और उसे अभी यहाँ लाओ।’’ थोड़ी देर बाद चुस्त स्याह मखमल की पोशाक पहिरे कमर से खँजर लटकाये हाथ में कमन्द लिये एक खूबसूरत लड़का कमरे में आ मौजूद हुआ।

इन्द्रजीतसिंह ने गौर से उसकी ओर देखा, साथ ही उनके चेहरे की रंगत बदल गयी, जो अभी उदास मालूम होता था खुशी से दमकता हुआ दिखायी देने लगा।

इन्द्र : मैं तुम्हें पहिचान गया।

लड़का : क्यों न पहिचानेंगे अब जब कि आपके यहाँ एक से बढ़कर ऐयार हैं और दिन-रात उनका संग है, मगर इस समय मैंने भी अपनी सूरत अच्छी तरह नहीं बदली है।

इन्द्र : कमला, पहिले यह कहो कि किशोरी कहाँ और किस हालत में है, और उन्हें अग्निदत्त के हाथ से छुट्टी मिली या नहीं?

कमला : अग्निदत्त को अब इनकी कोई ख़बर नहीं है।

इन्द्र : इधर आओ और हमारे पास बैठो, खुलासा कहो कि क्या-क्या हुआ, मैं तो इस लायक नहीं कि अपना मुँह उन्हें दिखाऊँ क्योंकि मेरे किये कुछ भी नहीं हो सका!

कमला : (बैठकर) आप ऐसा ख़याल न करें, आपने बहुत कुछ किया, अपनी जान देने को तैयार हो गये और महीनों दुःख झेला। आपके ऐयार लोग अभी तक राजगृही में इस मुस्तैदी से काम कर रहे हैं कि अगर उन्हें यह मालूम हो जाता कि किशोरी वहाँ नहीं है तो उस राज्य के नाम-निशान मिटा देते।

इन्द्र : मैंने भी यही सोच के उस तरफ़ और ज़ोर नहीं दिया कि कहीं अग्निदत्त के हाथ पड़ी हुई बेचारी किशोरी पर कुछ आफ़त न आवे, हाँ तो अब किशोरी वहाँ नहीं हैं?

कमला : नहीं।

इन्द्र : कहाँ और किसके कब्ज़े में हैं?

कमला : इस समय वह खुद मुख्यार हैं, सिवाय लज्जा के उन्हें और किसी का डर नहीं।

इन्द्र : जल्द बताओ वह कहाँ हैं? मेरा जी घबड़ा रहा है।

कमला : वह इसी शहर में हैं मगर अभी आपसे मिलना नहीं चाहतीं।

इन्द्र : (आँखों में आँसू भरकर) बस तो मुझे मालूम हो गया कि उन्हें मेरी तरफ़ से रंज है, मेरे किये कुछ न हो सका इसका उन्हें दुःख है।

कमला : नहीं नहीं, ऐसा भूल के भी न सोचिए।

इन्द्र : तो फिर मैं उनसे क्यों नहीं मिल सकता?

कमला : (कुछ सोचकर) मिल क्यों नहीं सकते मगर, इस समय...

इन्द्र : क्या तुमको मुझ पर दया नहीं आती! अफ़सोस, तुम बिल्कुल नहीं जानती कि तुम्हारी बातें सुनकर इस समय मेरी दशा कैसी हो रही है। जब तुम खुद कह रही हो कि वह स्वतन्त्र है, किसी के दबाव में नहीं है और इसी शहर में हैं तो मुझसे न मिलने का कारण ही क्या है? बस यही न कि मैं उस लायक नहीं समझा जाता!

कमला : फिर भी उसी ख़याल को मज़बूत करते हैं! ख़ैर तो फिर चलिए मैं आपको ले चलती हूँ, जो होगा देखा जायगा, मगर अपने साथ किसी ऐयार को लेते चलिए। भैरोसिंह तो यहाँ हैं नहीं, आपने उन्हें राजगृही भेज दिया है।

इन्द्र : क्या हर्ज़ है तारासिंह को साथ लिये चलता हूँ, मगर भैरोसिंह के जाने की ख़बर तुम्हें क्योंकर मिली?

कमला : मैं बखूबी जानती हूँ, बल्कि उनसे मिलकर मैंने कह भी दिया कि किशोरी राजगृही में नहीं है तुम बेख़ौफ़ अपना काम करना।

इन्द्र : अगर तुमने उससे ऐसा कह दिया है तो राजगृही में वह बड़ा बखेड़ा मचावेगा!

कमला : मचाना ही चाहिए।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उसी समय तारासिंह को बुलाया और उन्हें साथ ले कपड़े पहिन कमला के साथ किशोरी से मिलने की खुशी में लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाते रवाना हुए।

शहर-ही-शरह ही बहुत-सी गलियों में घुमाती हुई इन दोनों को साथ लिये कमला बहुत दूर चली गयी और विष्णुपादुका मन्दिर के पास ही एक मकान के मोड़ पर पहुँचकर खड़ी हो गयी।

इन्द्र : क्यों क्या हुआ? रुक क्यों गयीं!

कमला : बस हम लोगों को इसी मकान में चलना है।

इन्द्र : तो चलो।

कमला : इस मकान के दरवाज़े के सामने ही एक भारी जमींदार की बैठक है। वहाँ दिन-रात पहरा पड़ता है। इधर से आप लोगों का जाना और यह ज़ाहिर करना कि आज इस मकान में दो आदमी नये घुसे हैं मुनासिब नहीं।

तारा : तो फिर क्या करना चाहिए?

कमला : मैं दरवाज़े की राह से जाती हूँ, आप लोग पीछे की तरफ़ से जाइए और कमन्द लगाकर मकान के अन्दर पहुँचिए।

इन्द्र : क्या हर्ज़ है, ऐसा ही होगा, तुम दरवाज़े की राह से जाओ।

कमला : मगर एक बात और सुन लीजिए। जब मैं इस मकान के अन्दर पहुँचकर छत से झाँकूँ तभी आप कमन्द फेकिए, क्योंकि बिना मेरी मदद के कमन्द अड़ न सकेगी।


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