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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


बहुत-सी तक़लीफ़ें उठाकर महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह तथा इन्हीं के बदौलत चन्द्रकान्ता, चपला, चम्पा, तेज़सिंह और देवीसिंह वग़ैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा मगर अब वह ज़माना न रहा। सच है, सुख और दुख का पहरा बराबर बदलता रहता है। खुशी के दिन बात की बात में निकल गये कुछ मालूम न पड़ा, यहाँ तक कि मुझे भी कोई बात उन लोगों को लिखने लायक न मिली, लेकिन अब उन लोगों को मुसीबत की घड़ी काटे नहीं कटती। कौन जानता था कि गया—गुज़रा शिवदत्त फिर बला की तरह निकल आवेगा? किसे ख़बर थी कि बेचारी चन्द्रकान्ता की गोद में पले-पलाए दोनों होनहार लड़के यों अलग कर दिए जायेंगे? कौन साफ़ कह सकता था इन लोगों की वंशावली और राज्य में जितनी तरक्की होगी, यकायक उतनी ही ज़्यादे आफतें आ पड़ेंगी? ख़ैर खुशी के दिन तो उन्होंने काटे, अब मुसीबत की घड़ी कौन झेले? हाँ बेचारे जगन्नाथ ज्योतिषी ने इतना ज़रूर कह दिया था कि बीरेन्द्रसिंह के राज्य और वंश की बहुत कुछ तरक्की होगी, मगर मुसीबत को लिए हुये। ख़ैर आगे जो कुछ होगा देखा जाएगा पर इस समय तो सबके-सब सरद्दुद में पड़े हैं। देखिए अपेने एकान्त के कमरे में महाराज सुरेन्द्रसिंह कैसी चिन्ता में बैठे हुए हैं और बाईं तरफ़ गद्दी का कोना दबाए राजा बीरेन्द्रसिंह अपने सामने बैठे हुए जीतसिंह की सूरत किस बेचैनी से देख रहे हैं। दोनों बाप-बेटा अर्थात् देवीसिंह और तारासिंह अपने पास ऊपर के दर्जे पर बैठे हुए बुजुर्ग और गुरु के समान जीतसिंह की तरफ़ झुके हुए इस उम्मीद से बैठे हैं कि देखें अब आखिरी हुक़्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एकदम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहिले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं मगर इस वक्त तो महाराज सुरेन्द्रसिंह ने इस सन्नाटे को सिर्फ़ इतना ही कहकर तोड़ा, ‘ख़ैर चम्पा और चपला की भी बातें मान लेनी चाहिए।’’

जीत : जो मर्ज़ी, मगर देवीसिंह के लिए क्या हुक़्म होता है?

सुरेन्द्र : और तो कुछ नहीं सिर्फ़ इतना ही खयाल है कि चुनार की हिफ़ाजत ऐसे वक्त क्योंकर होगी?

जीत : मैं समझता हूँ कि यहाँ की हिफ़ाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूँगा।

सुरेन्द्र : (कुछ मुस्कराकर और उम्मीद-भरी निगाहों से जीत सिंह की तरफ़ देखकर) ख़ैर, जो मुनासिब समझो।

जीत : (देवीसिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे से बाहर चले गये।

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