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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


कुछ रात जा चुकी है। रोहतासगढ़ किले के अन्दर अपने मकान में बैठी हुई बेचारी किशोरी न मालूम किस ध्यान में डूबी हुई है और क्या सोच रही है। कोई दूसरी औरत उसके पास नहीं है। आख़िर किसी के पैर की आहट पा अपने ख्याल में डूबी हुई किशोरी ने सिर उठाया और दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी। लाली ने पहुँचकर सलाम किया और कहा, ‘‘माफ कीजिएगा, मैं बिना हुक़्म के इस कमरे में आयी हूँ।’’

किशोरी : मैंने लौंडियों को हुक़्म दे रक्खा है कि इस कमरे में कोई न आने पावे मगर साथ ही इसके यह भी कह दिया था कि लाली आने का इरादा करे तो उसे मत रोकना।

लाली : बेशक आपने मेरे ऊपर बड़ी मेहरबानी की।

किशोरी : मगर न मालूम तुम मेरे ऊपर दया क्यों नहीं करतीं! आओ बैठो।

लाली : (बैठकर) आप ऐसा न कहें, मैं जी जान से आपके काम आने को तैयार हूँ।

किशोरी : ये सब बनावटी बातें करती हो। अगर ऐसा ही होता तो अपना और कुन्दनवाला भेद मुझसे क्यों छिपातीं? नारंगीवाले भेद से तो मैं पहिले ही हैरान हो रही थी मगर जब से कुन्दन ने अपनी बातों का असर तुम पर डाला, तब से मेरी घबराहट और भी बढ़ गयी है।

लाली : बेशक आपको बहुत कुछ ताज्जुब हुआ होगा। मैं क़सम खाकर कह सकती हूँ कि कुन्दन ने उस समय जो मुझे कहा था या कुन्दन की जिन बातों को सुनकर मैं डर गयी थी वह उसे पहिले से मालूम न थीं, अगर मालूम होतीं तो जिस समय मैंने नारंगी दिखाकर उसे धमकाया था, उसी समय वह मुझसे बदला ले लेती। अब मुझे विश्वास हो गया कि इस मकान में कोई बाहर का आदमी ज़रूर आया है, जिसने हमारे भेद से कुन्दन को होशियार कर दिया। अफ़सोस, अब मेरी जान मुफ्त में जाया चाहती है क्योंकि कुन्दन बड़ी ही बेरहम और बदकार औरत है।

किशोरी : तुम्हारी बातें मेरी घबराहट को बढ़ा रही हैं, कृपा करके कुछ कहो तो सही क्या भेद है?

लाली : मैं बिल्कुल सही हाल आपसे कहूँगी और आपकी चिन्ता दूर करूँगी मगर आज रात-भर आप मुझे और माफ कीजिए और इस समय एक काम में मेरी मदद कीजिए।

किशोरी : वह क्या?

लाली : यह तो मुझे विश्वास हो ही गया कि अब मेरी जान किसी तरह नहीं बच सकती, तो भी अपने बचने के लिए मैं कोई-न-कोई उद्योग ज़रूर करूँगी। मैं चाहती हूँ कि अपने मरने के पहिले ही कुन्दन को इस दुनिया से उठा दूँ मगर एक ऐसी अण्डस में पड़ गयी हूँ कि ऐसा करने का इरादा भी नहीं कर सकती, हाँ कुन्दन का कुछ विशेष हाल जानना चाहती हूँ और इसके बाद बाग़ के उस कोनेवाले मकान में घुसा चाहती हूँ, जिसमें हरदम ताला बन्द रहता है और दरवाज़े पर नंगी तलवार लिये दो औरतें बारी-बारी से पहरा दिया करती हैं। इन्हीं दोनों कामों में मैं आपसे मदद लिया चाहती हूँ।

किशोरी, उस मकान में क्या है तुम्हें कुछ मालूम है?

लाली : हाँ, कुछ मालूम है और बाक़ी भेद जानना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है कि अगर आप भी मेरे साथ उस मकान के अन्दर चलेंगी और हम दोनों आदमी किसी तरह बचकर निकल आवेंगे तो फिर आपको भी इस क़ैद से छुट्टी मिल जायगी, मगर उसके अन्दर जाना और बचकर निकल आना यही मुश्किल है।

किशोरी : यह और ताज्जुब की बात तुमने कही, ख़ैर ऐसी ज़िन्दगी से मैं मरना उत्तम समझती हूँ। जो कुछ तुम्हें करना हो करो और जिस तरह की मदद मुझसे लिया चाहती हो लो!

लाली : (एक छोटी-सी तस्वीर कमर से निकाल और किशोरी के हाथ में देकर) थोड़ी देर बाद मामूली तौर पर कुन्दन ज़रूर आपके पास आवेगी, उस समय यह तस्वीर ऐसे ढंग से उसे दिखाइए, जिससे उसे यह न मालूम हो कि आप जान-बूझकर दिखा रही हैं, फिर उसके चेहरे की जैसी रंगत हो या जो कुछ वह कहे, मुझसे कहिए। इस समय तो यही एक काम है।

किशोरी : यह काम मैं बखूबी कर सकूँगी।

किशोरी ने लाली के हाथ से तस्वीर लेकर पहिले खुद देखी। इस तस्वीर में एक खोह की हालत दिखायी गयी थी, जिसमें एक आदमी उल्टा लटक रहा था और एक औरत हाथ में छुरा लिये उसके बदन में घाव लगा रही थी, पास में एक कमसिन औरत खड़ी थी और कोने की तरफ़ कब्र खोदी जा रही थी।

पाठक, यह तस्वीर ठीक उस समय की थी जिसका हाल हम पहिले भाग के आठवें बयान में लिख आये हैं, मगर वह हाल किशोरी को अभी तक मालूम नहीं हुआ था। किशोरी उस तस्वीर को देखकर बहुत ही हैरान हुई और उसके बारे में लाली से कुछ पूछना चाहा मगर लाली तस्वीर देने के बाद वहाँ न ठहरी, तुरत बाहर चली गयी।

लाली के जाने के थोड़ी ही देर बाद कुन्दन आ पहुँची मगर उस समय किशोरी उस तस्वीर के देखने में अपने को यहाँ तक भूली हुई थी कि कुन्दन का आना उसे तब मालूम हुआ, जब उसने पास आकर कुछ देर तक खड़े रहकर पूछा, ‘‘कहो बहिन क्या देख रही हो?’’

किशोरी : (चौंककर) हैं! तुम यहाँ कब से खड़ी हो?

कुन्दन : कुछ देर से। इस तस्वीर में कौन-सी ऐसी बात है, जिसे तुम बड़े गौर से देख रही हो?

किशोरी : तुमने इस तस्वीर को देखा है?

कुन्दन : सैकड़ों दफ़े। मैं समझती हूँ कि यह तस्वीर तुम्हें लाली ने ख़ास मुझे दिखाने के लिए दी है। आप लाली से कह दीजिएगा कि मैं इस तस्वीर को देखकर नहीं डर सकती। मैं बिना बदला लिए कभी न छोड़ूँगी क्योंकि जिस दिन पहिले-पहिल रात को आपसे मुलाक़ात हुई थी, उस दिन यहाँ से मेरे निकल जाने का सामान बिल्कुल ठीक था इसी लाली ने मेरे उद्योग को मिट्टी कर दिया और मेरे मददगारों को भी फँसा दिया, ख़ैर देखा जायगा। मैं आपके मिलने से प्रसन्न थी मगर अफ़सोस उसने झूठी बात गढ़कर आपका दिल भी मेरी तरफ़ से फेर दिया। तो भी मैं आपके साथ बुराई न करूँगी और जहाँ तक हो सकेगा उसकी चालबाजियों से आपको होशियार कर दूँगी, मानने न मानने का आपको अख्तियार है।

किशोरी : मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि क्या हो रहा है। हे ईश्वर, मैंने क्या अपराध किया था कि चारों तरफ़ से संकट ने आकर घेर लिया। हाय, मैं बिल्कुल नहीं जान सकती कि यहाँ कौन मेरा दोस्त है और कौन दुश्मन?

इतना कह किशोरी रोने लगी, उसने अपने को बहुत सँभालना चाहा मगर न हो सका, हिचकियों ने उसका गला दबा दिया। कुन्दन किशोरी के पास बैठ गयी और उसका हाथ अपने दोनों हाथों में दबाकर बोली—

‘‘प्यारी किशोरी, यह समझना तो बहुत मुश्किल है कि यहाँ आपका दोस्त है। बात बनाकर दोस्ती साबित करना भूल है, तिसमें दुश्मन के घर में, हाँ यह मैं ज़रूर साबित कर दूँगी कि लाली आपसे दुश्मनी रखती है। लाली ने आपसे ज़रूर कहा होगा कि आपकी तरह मैं भी कुमार के साथ ब्याह करने के लिये लायी गयी हूँ मगर नहीं, यह बात बिल्कुल झूठ है। असल तो यह है कि लाली मुझको बिल्कुल नहीं जानती और न मैं जानती हूँ कि लाली कौन है? मगर आजकल लाली जिस फ़िक्र में पड़ी है, उससे मैं समझती हूँ कि वह आपके साथ दुश्मनी कर रही है। ताज्जुब नहीं कि वह आपको एक दिन उस मकान में ले जाय जिसका ताला बराबर बन्द रहता है और जिसके दरवाज़े पर नंगी तलवार का पहरा पड़ा करता है क्योंकि आजकल वह वहाँ पहरा देने वाली औरतों से दोस्ती बढ़ा रही है और ताला खोलने के लिए एक ताली तैयार कर रही है। उसकी दुश्मनी का अन्त उसी दिन होगा जिस दिन वह आपको उस मकान के अन्दर कर देगी, फिर आपकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। उसका ऐसा करना केवल आप ही के साथ दुश्मनी करना नहीं, बल्कि यहाँ के राजा और इस राज्य के साथ भी दुश्मनी करना है। बेशक वह आपको उस मकान के अन्दर भेजेगी और आप उस चौखट के अन्दर पैर भी न रक्खेगी।’’

किशोरी : उस मकान के अन्दर क्या है?

कुन्दन : सो मैं नहीं जानती।

किशोरी : यहाँ का कोई आदमी जानता है?

कुन्दन : कोई नहीं, बल्कि जहाँ तक मैं ख़याल करती हूँ यहाँ का राजा भी उसके अन्दर का हाल नहीं जानता।

किशोरी : क्या मकान कभी खोला नहीं जाता।

कुन्दन : मेरे सामने तो कभी खोला नहीं गया।

किशोरी : फिर कैसे कह सकती हो कि उसके अन्दर कोई बच नहीं सकता?

कुन्दन : इसका जानना तो कोई मुश्किल नहीं है। पहिले तो यही सोचिए कि वहाँ हरदम ताला बन्द रहता है, अगर कोई चोरी से भीतर गया भी तो निकलने का मौका मुश्किल से मिलेगा, फिर हम लोगों को उसके अन्दर जाकर फ़ायदा ही क्या होगा? आपने देखा होगा उस दरवाज़े के ऊपर लिखा है कि—‘‘इसके अन्दर जो जायगा उसका सिर आप-से-आप कटकर गिर पड़ेगा’! जो हो मगर यह सब होते हुए भी लाली आपको उस मकान के अन्दर ज़रूर भेजना चाहेगी।

किशोरी : ख़ैर, इस तस्वीर का हाल अगर तुम जानती हो तो कहो।

कुन्दन : कहती हूँ सुनो—जब कुँअर इन्द्रजीतसिंह को धोखा देकर माधवी ले गयी तो उनके छोटे भाई आनन्दसिंह उनकी खोज में निकले। एक मुसलमानी ने उन्हें धोखा देकर गिरफ़्तार कर लिया और अपने साथ शादी करनी चाही मगर उन्होंने मंजूर न किया और तीन दिन भूखे-प्यासे उसके यहाँ क़ैद रह गये। आख़िर उन्हीं के ऐयार देवीसिंह ने उस क़ैद से उनको छुड़ाया मगर उन्हें अभी तक मालूम नहीं है कि उन्हें देवीसिंह ने छुड़ाया था।

इसके बाद उस तस्वीर के बारे में जो कुछ आनन्दसिंह ने देखा सुना था कुन्दन ने वहाँ तक कह सुनाया जब आनन्दसिंह बेहोश करके उस खोह के बाहर निकाल दिये गये बल्कि घर पहुँचा दिये गये।

किशोरी : यह सब हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

कुन्दन : मुझसे देवीसिंह ने कहा था।

किशोरी : देवीसिंह से तुमसे क्या सम्बन्ध?

कुन्दन : जान पहिचान है। आपने इस तस्वीर के बारे में लाली से कुछ सुना है या नहीं?

किशोरी : कुछ नहीं।

कुन्दन : पूछिए देखें क्या कहती है, अच्छा अब मैं जाती हूँ, फिर मिलूँगी?

किशोरी : ज़रा ठहरो तो।

कुन्दन : अब मत रोको, बेमौका हो जायगा। मैं फिर बहुत जल्द मिलूँगी।

कुन्दन चली गयी मगर किशोरी पहिले से भी ज़्यादे सोच में पड़ गयी। कभी तो उसका दिल लाली की तरफ़ झुकता और उसको अपने दुःख का साथी समझती, कभी सोचते-सोचते लाली की बातों में शक पड़ जाने पर कुन्दन ही को सच्ची समझती। उसका दिल दोनों तरफ़ के खिंचाव में पड़ कर बेबस हो रहा था, वह ठीक निश्चय नहीं कर सकती थी कि अपना हमदर्द लाली को बनावे या कुन्दन को क्योंकि लाली और कुन्दन दोनों ही अपने असली भेदों को किशोरी से छिपा रही थीं।

उस दिन लाली ने फिर मिलकर किशोरी से पूछा, ‘‘उस तस्वीर को देखकर कुन्दन की क्या दशा हुई?’’ जिसके जवाब में किशोरी ने कहा, ‘‘कुन्दन ने उस तस्वीर की तरफ़ ध्यान भी न दिया और मेरे खुद पूछने पर कहा कि मैं नहीं जानती यह तस्वीर कैसी है और न इसे कभी मैंने पहिले देखा ही था।’’

यह सुनकर लाली का चेहरा कुछ उदास हो गया और वह किशोरी के पास से उठकर चली गयी। किशोरी ने कहा, ‘‘भला तुम ही बताती जाओ कि यह तस्वीर कैसी है?’’ मगर लाली ने इसका कुछ जवाब न दिया और चली गयी।

इस बात को कई दिन बीत गये। लश्कर से कुँअर इन्द्रजीतसिंह के गायब होने का हाल भी चारों तरफ़ फैल गया जिसे सुन धीरे-धीरे किशोरी की उदासी और भी ज़्यादे बढ़ गयी।

एक दिन रात को अपनी पलंगड़ी पर लेटी हुई किशोरी तरह-तरह की बातें सोच रही थी, लाली और कुन्दन के बारे में भी गौर कर रही थी। यकायक वह उठ बैठी और धीरे से आप-ही-आप बोली, ‘‘अब मुझे खुद कुछ करना चाहिए, इस तरह पड़े रहने से काम नहीं चलता। मगर अफ़सोस, मेरे पास कोई हर्बा भी तो नहीं है।’’

किशोरी पलंग के नीचे उतरी और कमरे में इधर-उधर टहलने लगी, आख़िर कमरे के बाहर निकली। देखा कि पहरेदार लौंडियाँ गहरी नींद में सो रही हैं। आधी रात से ज़्यादे जा चुकी थी, चारों तरफ़ अँधेरा छाया हुआ था। धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई कुन्दन के मकान की तरफ़ बढ़ी। जब पास पहुँची तो देखा कि एक आदमी काले कपड़े पहिने उसी तरफ़ लपका हुआ जा रहा है बल्कि उस कमरे के दालान में पहुँच गया, जिसमें कुन्दन रहती है। किशोरी एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो गयी, शायद इसलिए कि वह आदमी लौटकर चला जाय तो आगे बढूँ।

थोड़ी देर बाद कुन्दन भी उसी आदमी के साथ बाहर निकली और धीरे-धीरे बाग़ के उस तरफ़ रवाना हुई, जिधर घने दरख्त लगे हुए थे। जब दोनों उस पेड़ के पास पहुँचे जिसकी आड़ में किशोरी छिपी हुई थी, तब वह आदमी रुका और धीरे-से बोला—

आदमी : अब तुम जाओ, ज़्यादे दूर तक पहुँचाने की कोई ज़रूरत नहीं।

कुन्दन : फिर भी मैं कहे देती हूँ कि अब पाँच-सात दिन ‘नारंगी’ की कोई ज़रूरत नहीं।

आदमी : ख़ैर, मगर किशोरी पर दया बनाये रहना!

कुन्दन : इसके कहने की कोई ज़रूरत नहीं।

वह आदमी पेड़ों के झुण्ड की तरफ़ चला गया और कुन्दन लौटकर अपने कमरे में चली गयी। किशोरी भी फिर वहाँ न ठहरी और अपने कमरे में आकर पलंग पर लेट रही क्योंकि उन दोनों की बातों ने जिसे किशोरी ने अच्छी तरह सुना था उसे परेशान कर दिया और वह तरह-तरह की बातें सोचने लगी, मगर अपने दिल का हाल किससे कहे? इस लायक वहाँ कोई भी न था।

पहिले तो किशोरी बनिस्बत कुन्दन के लाली को सच्ची और नेक समझती थी मगर अब वह बात न रही। किशोरी उस आदमी के मुँह से निकली हुई उस बात को फिर याद करने लगी कि, ‘‘किशोरी पर दया बनाये रहना’!

वह आदमी कौन था? इस बाग़ में आना और यहाँ से निकलकर जाना तो बड़ा ही मुश्किल है, फिर वह क्योंकर आया! उस आदमी की आवाज़ पहिचानी हुई-सी मालूम होती है, बेशक मैं उससे कई दफे बातें कर चुकी हूँ मगर कब और कहाँ, सो याद नहीं पड़ता और न उसकी सूरत का ध्यान बँधता है। कुन्दन ने कहा था, ‘‘पाँच-सात दिन तक नारंगी की कोई ज़रूरत नहीं।’’ इससे मालूम होता है कि नारंगीवाली बात कुछ उस आदमी से सम्बन्ध रखती है और लाली उस भेद को जानती है। इस समय तो यह निश्चय हो गया कि कुन्दन मेरी ख़ैरखाह है और लाली मुझसे दुश्मनी किया चाहती है मगर इसका भी विश्वास नहीं होता। कुछ भेद खुला मगर इससे तो और भी उलझन हो गयी। ख़ैर कोशिश करूँगी तो कुछ और भी पता लगेगा मगर अबकी लाली का हाल मालूम करना चाहिए।

थोड़ी देर तक इन सब बातों को किशोरी सोचती रही, आख़िर फिर अपने पलंग से उठी और कमरे के बाहर आयी। उसकी हिफ़ाजत करने वाली लौंडियाँ उसी तरह गहरी नींद में सो रही थीं। ज़रा रुककर बाग़ के उस कोने की तरफ़ बढ़ी जिधर लाली का मकान था। पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाती और रुक-रुककर चारों तरफ़ की आहट लेती हुई चली जाती थी, जब लाली के मकान के पास पहुँची तो धीरे-धीरे किसी के बातचीत की आहट पा एक अंगूर की झाड़ी में रुक रही और कान लगाकर सुनने लगी, केवल इतना ही सुना, आप बेफ़िक्र रहिए, जब तक मैं जीती हूँ कुन्दन किशोरी का कुछ बिगाड़ नहीं सकती और न उसे कोई दूसरा ले जा सकता है। किशोरी इन्द्रजीतसिंह की है और बेशक उन तक पहुँचायी जायगी।’’

किशोरी ने पहिचान लिया कि यह लाली की आवाज़ है। लाली ने यह बात बहुत धीरे से कही थी मगर किशोरी बहुत पास पहुँच चुकी थी इसलिए बखूबी सुनकर पहिचान सकी कि लाली की आवाज़ है मगर यह न मालूम हुआ कि दूसरा आदमी कौन है। लाली अपने कमरे के पास ही थी, बात कहकर तुरन्त दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ अपने कमरे में घुस गयी और उसी जगह से एक आदमी निकलकर पेड़ों की आड़ में छिपता हुआ बाग़ के पिछली तरफ़ जिधर दरवाज़े में बराबर ताला बन्द रहने वाला मकान था चला गया, मगर उसी समय ज़ोर-ज़ोर से ‘चोर चोर’ की आवाज़ आयी। किशोरी ने इस आवाज़ को भी पहिचानकर मालूम कर लिया कि कुन्दन है जो उस आदमी को फँसाया चाहती है। किशोरी फौरन लपकती हुई अपने कमरे में चली आयी और ‘चोर-चोर’ की आवाज़ बढ़ती ही गयी।

किशोरी अपने कमरे में आकर पलंग पर लेट रही और उन बातों पर गौर करने लगी जो अभी दो-तीन घण्टे के हेर-फेर में देख, सुन चुकी थी। वह मन-ही-मन में कहने लगी, ‘कुन्दन की तरफ़ भी गयी और लाली की तरफ़ भी गयी जिससे मालूम हो गया कि वे दोनों ही एक-एक आदमी से जान-पहिचान रखती हैं जो बहुत छिपकर इस मकान में आता है। कुन्दन के साथ जो आदमी मिलने आया था उसकी जुबानी जो कुछ मैंने सुना उससे जाना जाता था कि कुन्दन मुझसे दुश्मनी नहीं रखती बल्कि मेहरबानी का बर्ताव किया चाहती है, इसके बाद जब लाली की तरफ़ गयी तो वहाँ की बातचीत से मालूम हुआ कि लाली सच्चे दिल से मेरी मददगार है और कुन्दन शायद दुश्मनी की निगाह से मुझे देखती है। हाँ ठीक है, अब समझी, बेशक ऐसा ही होगा। नहीं, नहीं, मुझे कुन्दन की बातों पर विश्वास न करना चाहिए! अच्छा देखा जायगा। कुन्दन ने बेमौके चोर-चोर का शोर मचाया, कहीं ऐसा न हो कि बेचारी लाली पर कोई आफ़त आवे।’’

इन्हीं सब बातों को सोचती हुई किशोरी ने बची हुई थोड़ी-सी रात जागकर ही बिता दी और सुबह की सुफेदी फैलने के साथ ही अपने कमरे के बाहर निकली क्योंकि रात की बातों का पता लगाने के लिए उसका जी बेचैन हो रहा था।

किशोरी जैसे ही दालान में पहुँची सामने से कुन्दन को आते हुए देखा। कुन्दन ने पास आकर सलाम किया और कहा, ‘‘रात का कुछ हाल मालूम है या नहीं?’’

किशोरी : सबकुछ मालूम है! तुम्हीं ने तो गुल मचाया था!

कुन्दन : (ताज्जुब से) यह कैसी बात कहती हो?

किशोरी : तुम्हारी आवाज़ साफ़ मालूम होती थी।

कुन्दन : मैं तो चोर-चोर का गुल सुनकर वहाँ पहुँची थी और उन्हीं की तरह खुद भी चिल्लाने लगी थी।

किशोरी : (हँसकर) शायद ऐसा ही हो।

कुन्दन : क्या इसमें आपको कोई शक है?

किशोरी : बेशक। लो यह लाली भी तो आ रही है।

कुन्दन : (कुछ घबड़ाकर) जो कुछ किया उन्होंने किया।

इतने में लाली भी आकर खड़ी हो गयी और कुन्दन की तरफ़ देखकर बोली, ‘‘आपका वार तो खाली गया।’’

कुन्दन : (घबड़ाकर) मैंने क्या...

लाली : बस रहने दीजिए, आपने मेरी कार्रवाई कम देखी होगी मगर दो घण्टे पहिले मैं आपकी पूरी कार्रवाई मालूम कर चुकी थी।

कुन्दन : (बदहवास होकर) आप तो क़सम खा...

लाली : हाँ हाँ, मुझे खूब याद है, मैं उसे नहीं भूलती।

किशोरी : जो हो, मुझे अब पाँच-सात दिन तक नारंगी की कोई ज़रूरत नहीं!

किशोरी की इस बात ने लाली और कुन्दन दोनों को चौंका दिया। लाली के चेहरे पर कुछ हँसी थी मगर कुन्दन के चेहरे का रंग बिल्कुल ही उड़ गया था क्योंकि उसे विश्वास हो गया कि किशोरी ने भी रात की कुल बातें सुन लीं। कुन्दन की घबराहट और परेशानी यहाँ तक बढ़ गयी कि किसी तरह अपने को सम्हाल न सकी और बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर अपने कमरे की तरफ़ चली गयी। अब लाली और किशोरी में बातचीत होने लगी...

लाली : मालूम होता है तुमने भी रात भर ऐयारी की!

किशोरी : हाँ, मैं कुन्दन की तरफ़ छिपकर गयी थी।

लाली : तब तो तुम्हें मालूम हो गया होगा कि कुन्दन तुम्हें धोखा दिया चाहती है।

किशोरी : पहिले तो यह साफ़ नहीं जान पड़ता था मगर जब तुम्हारी तरफ़ गयी और तुमको किसी से बातें करते सुना तो विश्वास हो गया कि इस महल में केवल तुम्हीं से मैं कुछ भलाई की उम्मीद कर सकती हूँ।

लाली : ठीक है, कुन्दन की कुल बातें तुमने नहीं सुनीं, क्या मुझसे भी...

(रुककर) ख़ैर जाने दीजिए। हाँ, अब वह समय आ गया कि तुम और हम दोनों यहाँ से निकल जाँय। क्या तुम मुझ पर विश्वास रखती हो?

किशोरी : बेशक, तुमसे मुझे नेकी की उम्मीद है, मगर कुन्दन बहुत बिगड़ी हुई मालूम होती है।

लाली : वह मेरा कुछ नहीं कर सकती।

किशोरी : अगर तुम्हारा हाल किसी से कह दे तो?

लाली : अपनी जुबान से वह नहीं कह सकती, क्योंकि वह मेरे पंजे में उतना ही फँसी हुई है, जितनी मैं उसके पंजे में।

किशोरी : अफ़सोस! इतनी मेहरबान रहने पर भी तुम वह भेद मुझसे नहीं कहती।

लाली : घबड़ाओ मत, धीरे-धीरे सबकुछ मालूम हो जायगा।

इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घण्टे में फिर मिलने का वादा करके वहाँ से चली गयी।


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