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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान


हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग़ में जिसमें किशोरी रहती थी एक तरफ़ एक ऐसी इमारत है जिसके दरवाज़े पर बराबर ताला बन्द रहता है और नंगी तलवार का पहरा पड़ा रहता है।

आधी रात का समय है। चारों तरफ़ अँधेरा छाया हुआ है। तेज़ हवा चलने के कारण बड़े-बड़े पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाकर सन्नाटे को तोड़ रहे हैं। इसी समय हाथ में कमन्द लिये हुए लाली अपने को हर तरफ़ से बचाती और चारों तरफ़ गौर से देखती हुई उसी मकान के पिछवाड़े की तरफ़ जा रही है। जब दीवार के पास पहुँची कमन्द लगाकर छत के ऊपर चढ़ गयी। छत के ऊपर चारों तरफ़ तीन-तीन हाथ ऊँची दीवार थी। लाली ने बड़ी होशियारी से छत फोड़कर एक इतना बड़ा सूराख किया जिसमें आदमी बखूबी उतर जा सके और खुद कमन्द के सहारे उसके अन्दर उतर गयी।

दो घण्टे के बाद एक छोटी-सी सन्दूकड़ी लिये हुए लाली निकली और कमन्द के सहारे छत के नीचे उतर एक तरफ़ रवाना हुई। पूरब तरफ़वाली बारहदरी में आयी जहाँ से महल में जाने का रास्ता था, फाटक के अन्दर घुसकर महल में पहुँची। यह महल बहुत बड़ा और आलीशान न था, दो सौ लौंडियों और सखियों के साथ महारानी साहिबा इसी में रहा करती थीं। कई दालानों और दरवाज़ों को पार करती हुई लाली ने एक कोठरी के दरवाज़े पर पहुँचकर धीरे से कुण्डा खटखटाया।

एक बुढ़िया ने उठकर किवाड़ खोला और लाली को अन्दर करके फिर बन्द कर लिया। उस बुढ़िया की उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी, नेकी और रहमदिली उसके चेहरे पर झलक रही थी। सिर्फ़ छोटी-सी कोठरी, थोड़े से ज़रूरी सामान और मामूली चारपाई पर ध्यान देने से मालूम होता था कि बुढ़िया लाचारी से अपनी जिंदगी बिता रही है। लाली ने दोनों पैर छूकर प्रणाम किया और उस बुढ़िया ने पीठ पर हाथ फेरकर बैठने के लिए कहा।

लाली : (सन्दूक आगे रखकर) यही है?

बुढ़ियाः क्या ले आयी? हाँ ठीक है, बेशक यही है, अब आगे जो कुछ कीजियो बहुत सम्हालकर! ऐसा न हो कि इस आख़िरी समय में मुझे कलंक लगे।

लाली : जहाँ तक हो सकेगा बड़ी होशियारी से काम करूँगी, आप आशीर्वाद दीजिए कि मेरा उद्योग सफल हो।

बुढ़िया : ईश्वर तुझे इस नेकी का बदला दे, वहाँ कुछ डर तो नहीं मालूम हुआ?

लाली : दिल कड़ा करके इसे ले आयी, नहीं तो मैंने जो कुछ देखा जीते जी भूलने योग्य नहीं, अभी तो फिर एक दफे देखना नसीब होगा। ओफ! अभी तक कलेजा काँपता है।

बुढ़िया : (मुस्कुराकर) बेशक वहाँ ताज्जुब के सामान इकट्ठे हैं मगर डरने की कोई बात नहीं, जा ईश्वर तेरी मदद करे।

लाली ने उस सन्दूकड़ी को उठा लिया और अपने ख़ास घर में आ  सन्दूकड़ी को हिफ़ाजत से रख पलँग पर जा लेट रही। सवेरे उठकर किशोरी के कमरे में गयी।

किशोरी : मुझे रात-भर तुम्हारा ख़याल बना रहा और घड़ी-घड़ी उठकर बाहर जाती थी कि कहीं से शोरगुल की आवाज़ तो नहीं आती।

लाली : ईश्वर की दया से मेरे काम में किसी तरह का विघ्न नहीं पड़ा।

किशोरी : आओ मेरे पास बैठो, अब तो तुम्हें उम्मीद हो गयी होगी कि मेरी जान बच जायगी और मैं यहाँ से जा सकूँगी।

लाली : बेशक अब मुझे पूरी उम्मीद हो गयी।

किशोरी : सन्दूकड़ी मिली?

लाली : हाँ, यह सोचकर कि दिन को किसी तरह मौका न मिलेगा उसी समय मैं बूढ़ी दादी को भी दिखा आयी, उन्होंने पहिचानकर कहा कि बेशक यही सन्दूकड़ी है। उसी रंग की वहाँ कई सन्दूकड़ियाँ थीं मगर वह ख़ास निशान जो बूढ़ी दादी ने बताया था देखकर मैं उसी एक को ले आयी!

किशोरी : मैं भी उस सन्दूकड़ी को देखा चाहती हूँ।

लाली : बेशक मैं तुम्हें अपने यहाँ ले चलकर वह सन्दूकड़ी दिखा सकती हूँ मगर उसके देखने से तुम्हें किसी तरह का फ़ायदा नहीं होगा। बल्कि तुम्हारे वहाँ चलने से कुन्दन को खुटका हो जायगा और वह सोचेगी कि किशोरी लाली के यहाँ क्यों गयी। उस सन्दूकड़ी में भी कोई ऐसी बात नहीं है जो देखने लायक हो, उसे मामूली एक छोटा-सा डिब्बा समझना चाहिए, जिसमें कहीं ताली लगाने की जगह नहीं है और मज़बूत भी इतनी है कि किसी तरह टूट नहीं सकती।

किशोरी : फिर वह क्योंकर खुल सकेगी और उसके अन्दर से वह चाभी क्योंकर निकलेगी जिसकी हम लोगों को ज़रूरत है?

लाली : रेती से रेतकर उसमें सूराख़ किया जायगा।

किशोरी : देर लगेगी।

लाली : हाँ, दो दिन में यह काम होगा क्योंकि सिवाय रात के दिन को मौका नहीं मिल सकता।

किशोरी : मुझे तो एक घड़ी सौ-सौ वर्ष के समान बीतती है।

लाली : ख़ैर जहाँ इतने दिन बीते वहाँ दो दिन और सही।

थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। इसके बाद लाली उठकर अपने मकान में चली गयी और मामूली कामों की फ़िक्र में लगी।

इसके तीसरे दिन आधी रात के समय लाली अपने मकान से बाहर निकली और किशोरी के मकान में आयी। वे लौंडियाँ जो किशोरी के यहाँ पहरे पर मुक़र्रर थीं गहरी नींद में पड़ी खुर्राटे ले रही थीं मगर किशोरी की आँखों में नींद का नाम निशान नहीं, वह पलँग पर लेटी दरवाज़े की तरफ़ देख रही थी। उसी समय हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिये लाली ने कमरे के अन्दर पैर रक्खा जिसे देखते ही किशोरी उठ खड़ी हुई, बड़ी मुहब्बत के साथ हाथ पकड़ लाली को अपने पास बैठाया।

किशोरी : ओफ! ये दो दिन बड़ी कठिनता से बीते, दिन-रात डर लगा ही रहता था।

लाली : क्यों?

किशोरी : इसलिए कि कोई उस छत पर जाकर देख न ले कि किसी ने सींध लगायी है।

लाली : ऊँह, कौन उस पर जाता है और कौन देखता है। लो अब देर करना मुनासिब नहीं।

किशोरी : मैं तैयार हूँ, कुछ लेने की ज़रूरत तो नहीं है?

लाली : ज़रूरत की सब चीज़ें मेरे पास हैं, तुम बस चली चलो।

लाली और किशोरी वहाँ से रवाना हुईं और पेड़ों की आड़ में छिपती हुईं उस मकान के पिछवाड़े पहुँची जिसकी छत में लाली ने सेंध लगायी थी। कमन्द लगाकर दोनों ऊपर चढ़ीं, कमन्द खींच लिया और उसी कमन्द के सहारे सींध की राह दोनों मकान के अन्दर उतर गयीं। वहाँ की अजाय बातों को देख किशोरी की अजब हालत हो गयी मगर तुरत ही उसका ध्यान दूसरी तरफ़ जा पड़ा। किशोरी और लाली जैसे ही उस मकान के अन्दर उतरीं वैसे ही बाहर से किसी के ललकारने की आवाज़ आयी, साथ ही फुर्ती से कई कमन्द लगा दस-पन्द्रह आदमी छत पर चढ़ आये और ‘‘धरो-धरो, जाने न पावे, जाने न पावे!’’ की आवाज़ आने लगी।


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