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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

बारहवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह तालाब के किनारे खड़े उस विचित्र इमारत और हसीन औरत की तरफ़ देख रहे हैं। उनका इरादा हुआ कि तैरकर उस मकान में चले जायँ जो इस तालाब के बीचोबीच में बना हुआ है, मगर उस नौजवान औरत ने इन्हें हाथ के इशारे से मना किया बल्कि वहाँ से भाग जाने के लिए कहा, उसका इशारा समझ ये रुक गये मगर जी न माना, फिर तालाब में उतरे।

उस नाज़नीन को विश्वास हो गया कि कुमार बिना यहाँ आये न मानेंगे, तब उसने इशारे से ठहरने के लिए कहा और यह भी कहा कि किश्ती लेकर मैं आती हूँ। उस औरत ने किश्ती खोली और उस पर सवार हो अजीब तरह से घूमाती-फिराती तालाब के पिछले कोने की तरफ़ ले गयी और कुमार को भी उसी तरफ़ आने का इशारा किया। कुमार उस तरफ़ गये और खुशी-खुशी उस औरत के साथ किश्ती पर सवार हुए। वह किश्ती को उसी तरह घुमाती-फिराती मकान के पास ले गयी। दोनों आदमी उतरकर अन्दर गये।

उस छोटे से मकान की सजावट कुमार ने बहुत पसन्द की। वहाँ सभों चीज़ें ज़रूरत की मौजूद थीं। बीच का बड़ा कमरा अच्छी तरह से सजा हुआ था, बेशक़ीमती शीशे लगे हुए थे, कश्मीरी गलीचे जिनमें तरह-तरह के फूल-बूटे बने हुए थे, छोटी-छोटी मगर ऊँची संगमर्मर की चौकियों पर सजावट के सामान और गुलदस्ते लगाये हुए थे, गाने-बजाने का सामान भी मौजूद था, दीवारों पर की तस्वीरों को बनाने में मुसौवरों ने अच्छी कारीगरी खर्च की थी। उस कमरे के बगल में एक और छोटा-सा कमरा सजा हुआ था जिसमें सोने के लिए एक मसहरी बिछी हुई थी, उसके बगल में एक कोठरी नहाने की थी जिसकी ज़मीन सुफेद और स्याह पत्थरों से बनी हुई थी। बीच में एक छोटा-सा हौज बना हुआ था जिसमें एक तरफ़ से तालाब का जल आता था और दूसरी तरफ़ से निकल जाता था, इसके अलावे और भी तीन-चार कोठरियाँ ज़रूरी कामों के लिए मौजूद थीं, मगर उस मकान में सिवाय उस एक औरत के और कोई दूसरी औरत न थी, न कोई नौकर या मजदूरनी ही नज़र आती थी।

उस मकान को देख और उसमें सिवाय उस नौजवान नाज़नीन के और किसी को न पा कुमार को बड़ा ताज्जुब हुआ। वह मकान इस योग्य था कि बिना पाँच-चार आदमियों के उसकी सफाई या वहाँ के सामान की दुरुस्ती हो नहीं सकती थी।

थके-माँदे और धूप खाये हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह को वह जगह बहुत ही भली मालूम हुई और उस हसीन औरत के अलौकिक रूप की छटा में ऐसे मोहित हुए कि पीछे की सुध बिल्कुल ही जाती रही। बड़े नाज और अन्दाज़ से उस औरत ने कुमार को कमरे में ले जाकर गद्दी पर बैठाया और आप उनके सामने बैठ गयी।

कुमार : तुमने जो कुछ एहसान मुझ पर किया है मैं किसी तरह उसका बदला नहीं चुका सकता।

औरत : ठीक है, मगर उम्मीद करती हूँ कि आप कोई काम ऐसा भी न करेंगे जो मेरी बदनामी का सबब हो।

कुमार : नहीं नहीं, मुझसे ऐसी उम्मीद कभी न करना, लेकिन क्या सबब है जो तुमने ऐसा कहा?

औरत : इस मकान में जहाँ मैं अकेली रहती हूँ, आपका इस तरह आना और देर तक रहना बेशक मेरी बदनामी का सबब होगा।

कुमार : (कुछ सोचकर) तुम इतनी खूबसूरत क्यों हुईं? अफ़सोस! तुम्हारी एक-एक अदा मुझे अपनी तरफ़ खैंचती है। (कुछ अटककर) जो हो मुझे अब यहाँ से चले ही जाना चाहिए। अगर ऐसा ही था तो मुझे किश्ती पर चढ़ाकर यहाँ क्यों लायीं।

औरत : मैंने तो पहिले ही आपको चले जाने का इशारा किया मगर जब आप जल में तैरकर यहाँ आने लगे तो लाचार मुझे ऐसा करना पड़ा। मैं जान-बूझकर उस आदमी को किसी तरह आफ़त में फँसा नहीं सकती हूँ जिसकी जान खुद एक जालिम ऐयार के हाथ से बचायी हो। आप यह न समझें कि कोई आदमी इस तालाब में तैरकर यहाँ तक आ सकता है, क्योंकि इस तालाब में चारों तरफ़ जाल फेंके हुए हैं, अगर कोई आदमी यहाँ तैरकर आने का इरादा करेगा तो बेशक जाल में फँसकर अपनी जान बर्बाद करेगा। यही सबब था कि मुझे आपके लिए किश्ती ले जानी पड़ी।

कुमार : बेशक, तब इसके लिए भी मैं धन्यवाद दूँगा। माफ करना मैं यह नहीं जानता था कि मेरे यहाँ आने से तुम्हारा नुकसान होगा, अब मैं जाता हूँ मगर कृपा करके अपना नाम तो बता दो जिससे मुझे याद रहे कि फलानी औरत ने बड़े वक्त पर मेरी मदद की थी।

औरत : (हँसकर) मैं अपना नाम नहीं किया चाहती और न इस धूप में आपको यहाँ से जाने के लिए कहती हूँ बल्कि मैं उम्मीद करती हूँ कि आप मेरी मेहमानी कबूल करेंगे।

कुमार : वाह-वाह! कभी तो आप मुझे मेहमान बनाती हैं और कभी यहाँ से निकल जाने के लिए हुक़्म लगाती हैं, आप लोग जो चाहें करें।

औरत : (हँसकर) ख़ैर ये सब बातें पीछे होती रहेंगी, अब आप यहाँ से उठें और कुछ भोजन करें क्योंकि मैं जानती हूँ कि आपने अभी तक कुछ भोजन नहीं किया।

कुमार : अभी तो स्नान-सन्ध्या भी नहीं किया। लेकिन मुझे ताज्जुब है कि यहाँ तुम्हारे पास कोई लौंडी दिखायी नहीं देती।

औरत : आप इसके लिए चिन्ता न करें, आपकी लौंडी मैं मौजूद हूँ। आप ज़रा बैठें, मैं सब सामान ठीक करके अभी आती हूँ।

इतना कह, बिना कुमार की मर्जी पाये वह औरत वहाँ से उठी और बगल के एक कमरे में चली गयी। उसके जाने के बाद कुमार कमरे में टहलने और एक-एक चीज़ को गौर से देखने लगे। यकायक एक गुलदस्ते के नीचे दबे हुए काग़ज़ के टुकड़े पर उनकी नज़र पड़ी। मुनासिब न था कि उस पुर्जे को उठाकर पढ़ते मगर लाचार थे, उस पुर्जे के कई अक्षर जो गुलदस्ते के नीचे दबने से रह गये थे साफ़ दिखायी पड़ते थे और उन्हीं अक्षरों ने कुमार को पुर्जा निकालकर पढ़ने के लिए मजबूर किया। वे अक्षर ये थे—

‘‘किशोरी’’

लाचार कुमार ने उस पुरज़े को निकालकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था—

‘‘आपके कहे मुताबिक कुल कार्रवाई अच्छी तरह हो रही है। लाली और कुन्दन में खूब घातें चल रही हैं। किशोरी ने भी पूरा धोखा खाया। किशोरी का आशिक भी यहाँ मौजूद है और उसे किशोरी से बहुत कुछ उम्मीद है। मैंने भी इनाम पाने लायक काम किया है। इस समय लाली कुछ अजब ही रंग-लाया चाहती है, ख़ैर दो-तीन-दिन में खुलासा हाल लिखूँगी।

आपकी लौंडी—तारा’’

कुमार ने उस पुरज़े को झटपट पढ़कर उसी तरह रख दिया और गद्दी पर आकर बैठ गये। सोच और तरद्दुद ने चारों तरफ़ से आकर उन्हें घेर लिया। इस पुरज़े ने तो उनके दिल का भाव ही बदल दिया। इस समय उनकी सूरत देखकर उनका हाल कोई सच्चा दोस्त भी नहीं मालूम कर सकता था, हाँ कुछ देर सोचने के बाद इतना तो कुमार ने लम्बी साँस के साथ खुलकर कहा, ‘‘ख़ैर कहाँ जाती है कम्बख्त! मैं बिना कुछ काम किये टलनेवाला नहीं।’’

इतने ही में वह औरत भी आ गयी और बोली, ‘‘उठिए, सब सामान दुरुस्त है।’’ कुमार उसके साथ नहानेवाली कोठरी में गये जिसमें हौज बना हुआ था।

धोती, गमछा और पूजा का सब सामान वहाँ मौजूद था, कुमार ने स्नान और सन्ध्या किया। वह औरत एक चाँदी की रिकाबी में कुछ मेवा और खोये की चीज़ें इनके सामने रखकर चली गयी और दूसरी दफे पीने के लिए जल भी लाकर रख गयी। उसी समय कुमार ने सुना कि बगल के कमरे में दो औरतें बातें कर रही हैं। उन्हें ताज्जुब हुआ कि ये दूसरी औरत कहाँ से आयीं! कुमार भोजन करके उठे, हाथ-मुँह धोकर कोठरी के बाहर निकला चाहते थे कि सामने का दरवाज़ा खुला और दो औरतें नज़र पड़ीं जिन्हें देखते ही कुमार चौंक पड़े और बोले— ‘‘हैं ये दोनों यहाँ कहाँ से आ गयीं!!’’


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