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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


अपनी कार्रवाई पूरी करने के बाद तेज़सिंह ने सोचा कि अब असली रामानन्द को तहख़ाने से ऐसी खूबसूरती के साथ निकाल लेना चाहिए जिसमें महाराज को किसी तरह का शक न हो और यह गुमान भी न हो कि तहख़ाने में बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग घुसे हैं या तहख़ाने का हाल किसी दूसरे को मालूम हो गया है, यह काम तभी हो सकता है जब कोई ताजा मुर्दा हाथ लगे।

रोहतासगढ़ से चलकर तेज़सिंह अपने लश्कर पहुँचे और सब हाल बीरेन्द्रसिंह से कहने के बाद कई जासूसों को इस काम के लिए रवाना किया कि अगर कहीं कोई ताज़ा मुर्दा जो सड़ न गया हो या फूल न गया हो, मिले तो उठा लावें और लश्कर के पास ही कहीं रखकर हमें इत्तिला दें। इत्तिफाक से लश्कर से दो-तीन कोस की दूरी पर नदी के किनारे एक लावारिस भिखमंगा उसी दिन मरा था जिसे जासूस लोग शाम होते-होते उठा लाये और लश्कर से कुछ दूर रखकर तेज़सिंह को ख़बर की। भैरोसिंह को साथ लेकर तेज़सिंह मुर्दे के पास गये और अपनी कार्रवाई करने लगे।

तेज़सिंह ने उस मुर्दे को ठीक रामानन्द की सूरत का बनाया और भैरोसिंह की मदद* से उठाकर रोहतासगढ़ तहख़ाने के अन्दर ले गये और तहख़ाने के दारोग़ा (ज्योतिषीजी) के सुपुर्द कर और उसके बारे में बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर असली रामानन्द को लश्कर में उठा लाये। (* मुर्दा अक्सर ऐंठ जाया करता है इसीलिए गठरी में बँध नहीं सकता, लाचार दो आदमी मिलकर उठा ले गये।)

तेज़सिंह के जाने के बाद हमारे नये दारोग़ा साहब खम्भें से बँधे हुए उस तार को खैंचा जिसके सबब से दिग्विजयसिंह और दीवानख़ाने वाला घण्टा बोलता था। उस समय दो घण्टे रात जा चुकी थी, महाराज अपने कई मुसाहिबों को साथ लिये दीवानखाने में बैठे दुश्मन पर फतह पाने के लिए बहुत-सी तरकीबें सोच रहे थे, यकायक घण्टे की आवाज़ सुनकर चौंके और समझ गये कि तहख़ाने में हमारी ज़रूरत है। दिग्विजयसिंह उसी समय उठ खड़े हुए और उन जल्लादों को बुलाने का हुक़्म दिया जो ज़रूरत पड़ने पर तहख़ाने में जाया करते थे और जान के ख़ौफ़ या नमकहलाली के सबब से वहाँ का हाल किसी दूसरे से कभी नहीं कहते थे।

महाराज दूसरे कमरे में गये, जब तक कपड़े बदलकर तैयार हों जल्लाद लोग भी हाज़िर हुए। ये जल्लाद बड़े ही मज़बूत ताकतवर और कद्दावर थे। स्याह रंग, मूँछें चढ़ी हुईं, पोशाक में केवल जाँघिया, मिर्जई और कन्टोप पहिरे, हाथ में भारी तेगा लिये बड़े ही भयंकर मालूम होते थे। महाराज ने केवल चार जल्लादों को साथ लिया और उसी मामूली रास्ते थे तहख़ाने में उतर गये। महाराज को आते देख दारोग़ा चैतन्य हो गया और सामने हाथ जोड़कर बोला, ‘‘लाचार महाराज को तक़लीफ़ देनी पड़ी।’’

महाराज : क्या मामला है?

दारो : वह ऐयार मर गया जिसे दीवान रामानन्द जी ने गिरफ़्तार किया था।

महा : (चौंककर) हैं, मर गया!

दारोगा : जी हाँ मर गया, न मालूम कैसी जहरीली बेहोशी दी गयी थी कि जिसका असर यहाँ तक हुआ!

महा : यह बहुत ही बुरा हुआ, दुश्मन समझेगा कि दिग्विजयसिंह ने जान-बूझकर हमारे ऐयार को मार डाला जो कायदे के बाहर की बात है। दुश्मनों को अब हमसे ज़िद्द हो जायगी और वे भी कायदे के खिलाफ बेहोशी की जगह जहर का बर्ताव करने लगेंगे तो हमारा बड़ा नुकसान होगा और बहुत आदमी जान से मारे जायेंगे।

दारोगा : लाचारी है, फिर क्या किया जाय? भूल तो दीवान साहब की है।

महा : (कुछ जोश में आकर) रामानन्द तो पूरा उजड्ड है! झक मारने के लिए उसने अपने को ऐयार मशहूर कर रक्खा है, तभी तो बीरेन्द्रसिंह का एक अदना ऐयार आया और उन्हें पकड़कर ले गया, चलो छुट्टी हुई!

महाराज की बात सुनकर मन-ही-मन ज्योतिषीजी हँसते और कहते थे कि देखो कितना होशियार और बहादुर राजा क्या ज़रा-सी बात में बेवकूफ बना है! वाह रे तेज़सिंह, तू जो चाहे कर सकता है!

महाराज ने रामानन्द की लाश को खुद देखा और दूसरी जगह ले जाकर ज़मीन में गाड़ देने के लिए जल्लादों को हुक़्म दिया। जल्लादों ने उसी तहख़ाने में एक जगह जहाँ मुर्दे गाड़े जाते थे, ले जाकर उस लाश को दबा दिया। महाराज अफ़सोस करते हुए तहख़ाने के बाहर निकल आये और इस सोच में पड़े कि देखें बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग इसका क्या बदला लेते हैं।


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