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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

बारहवाँ बयान


दूसरे दिन दोपहर दिन चढ़े बाद किशोरी की बेहोशी दूर हुई। उसने अपने को एक गहन वन में पेड़ों की झुरमुट में ज़मीन पर पड़े पाया और अपने पास कुन्दन और कई आदमियों को देखा। बेचारी किशोरी इन थोड़े ही दिनों में तरह-तरह की मुसीबतों में पड़ चुकी थी बल्कि जिस सायत से वह घर से निकली आज तक एक पल के लिए भी सुखी न हुई, मानो सुख तो उसके हिस्से ही में न था। एक मुसीबत से छूटी दूसरी में फँसी, दूसरी से छूटी, तीसरी में फँसी। इस समय भी उसने अपने को बुरी अवस्था में पाया। यद्यपि कुन्दन उसके सामने बैठी थी परन्तु उसे उसकी तरफ़ से किसी तरह पर भलाई की आशा कुछ भी न थी। इसके अतिरिक्त वहाँ और भी कई आदमियों को देखा तथा अपने को बेहोशी अवस्था से चैतन्य होते पा उसे विश्वास हो गया कि कुन्दन ने उसके साथ दगा किया। रात की बातें वह स्वप्न की तरह याद करने लगी और इस समय भी वह इस बात का निश्चय न कर सकी कि उसके साथ कैसा बर्ताव किया जायगा। थोड़ी देर तक वह अपनी मुसीबतों को सोचती और ईश्वर से अपनी मौत माँगती रही। आख़िर उस समय उसे कुछ होश आया जब धनपति (कुन्दन) ने उसे पुकारकर कहा, ‘‘किशोरी, तू घबड़ा मत, तेरे साथ कोई बुराई न की जायगी।’’

किशोरी : मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो। जो कुछ तुमने किया उससे बढ़कर और बुराई क्या हो सकती है?

धनपति : तेरी जान न मारी जायगी बल्कि जहाँ तू रहेगी हर तरह से आराम मिलेगा।

किशोरी : क्या इन्द्रजीतसिंह भी वहाँ दिखायी देंगे?

धनपति : हाँ, अगर तू चाहेगी।

किशोरी : (चौंककर) हैं, क्या कहा? अगर मैं चाहूँगी?

धनपति : हाँ, यही बात है।

किशोरी : कैसे?

धनपति : एक चीठी इन्द्रजीतसिंह के नाम की लिखकर मुझे दे और उसमें जो कुछ मैं कहूँ लिख दे!

किशोरी : उसमें क्या लिखना पड़ेगा?

धनपति : केवल इतना ही लिखना पड़ेगा—‘अगर आप मुझे चाहते हैं तो बिना कुछ विचार किये इस आदमी के साथ मेरे पास चले आइये और जो कुछ यह माँगे दे दीजिए, नहीं तो मुझसे मिलने की आशा छोड़िए!’’

किशोरी : (कुछ देर सोचने के बाद) मैं समझ गयी कि तुम्हारी नीयत क्या है। नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता, मैं ऐसी चीठी लिखकर अपने प्यारे इन्द्रजीतसिंह को आफत में नहीं फँसा सकती।

धनपति : तब तू किसी तरह छूट भी नहीं सकती।

किशोरी : जो हो।

धनपति : बल्कि तेरी जान भी चली जायगी।

किशोरी : बला से, इन्द्रजीतसिंह के नाम पर मैं जान देने को तैयार हूँ।

इतना सुनते ही धनपति (कुन्दन) का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया, अपने साथियों की तरफ़ देखकर बोली, ‘‘अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती, लाचार हूँ। इसके हाथ-पैर बाँधों और मुझे तलवार दो!’’ हुक़्म पाते ही उसके साथियों ने बड़ी बेरहमी के साथ बेचारी किशोरी के हाथ-पैर बाँध दिये और धनपति तलवार लेकर किशोरी का सिर काटने के लिए आगे बढ़ी। उसी समय धनपति के एक साथी ने कहा, ‘‘नहीं, इस तरह मारना मुनासिब न होगा, हम लोग बात-की-बात में सूखी लकड़ियाँ बटोर कर ढेर करते हैं, इसे उसी पर रख के फूँक दो, जलकर भस्म हो जायगी और हवा के झोकों में इसकी राख का भी पता न लगेगा।’’

इस राय को धनपति ने पसन्द किया और ऐसा ही करने के लिए हुक़्म दिया। संगदिल हरामखोरों ने थोड़ी ही देर में जंगल से चुनकर सूखी लकड़ियों का ढेर लगा दिया। हाँथ-पैर बाँधकर बेबस की हुई किशोरी उसी पर रख दी गयी। धनपति के साथियों में से एक ने बटुए से सामान निकालकर एक छोटा-सा मशाल जलाया और उसे धनपति ने अपने हाथ में लिया। मुँह बन्द किये हुए किशोरी यह सब बात देख-सुन और सह रही थी। जिस समय धनपति मशाल लिये चिता के पास पहुँची, किशोरी ने ऊँचे स्वर में कहा—

‘हे अग्निदेव, तुम साक्षी रहना! मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह की मुहब्बत में खुशी-खुशी अपनी जान देती हूँ। मैं खूब जानती हूँ कि तुम्हारी आँच प्यारे की जुदाई की आँच से बढ़कर नहीं है। जान निकलने में मुझे कुछ भी कष्ट न होगा। प्यारे इन्द्रजीत! देखना मेरे लिए दुःखी न होना, बल्कि मुझे बिल्कुल ही भूल जाना!!’’

हाय! प्रेम से भरी हुई बेचारी किशोरी की, दिल को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली इन बातों से भी संगदिलों का दिल नरम न हुआ और हरामज़ादी कुन्दन ने, नहीं नहीं धनपति ने, चिता में मशाल रख ही दी।

समाप्त

 

आगे का हाल चन्द्रकान्ता संतति भाग-2 में पढ़ें

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