मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
तीसरा बयान
चुनारगढ़ किले के अन्दर एक कमरे में महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, जीतसिंह, देवीसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह बैठे हुए कुछ बाते कर रहे हैं।
जीत : भैरो ने बड़ी होशियारी से काम लिया कि अपने को इन्द्रजीतसिंह की सूरत बना शिवदत्त के ऐयारों के हाथ फँसाया।
सुरेन्द्र : शिवदत्त के ऐयारों ने चालाकी तो की थी मगर...
बीरेन्द्र : बाबाजी शेर पर सवार हो सिद्ध बने तो लेकिन अपना काम सिद्ध न कर सके।
इन्द्र : मगर जैसे हो भैरोसिंह को अब बहुत जल्द छुड़ाना चाहिए।
जीत : कुमार घबराओं मत, तुम्हारे दोस्त को किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, लेकिन अभी उसका शिवदत्त के यहाँ फँसे रहना ही मुनासिब है। वह बेवकूफ़ नहीं है, बिना मदद के आप ही छूटकर आ सकता है, तिस पर पन्नालाल, रामनारायण, चुन्नीलाल, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी उसकी मदद को भेजे गए हैं, देखो तो क्या होता है! इतने दिनों तक चुपचाप बैठे रहकर शिवदत्त ने फिर अपनी ख़राबी पर कमर बाँधी है।
देवी : कुमारों के साथ जो फौज शिकारगाह में गयी है, उसके लिए अब क्या हुक़्म होता है?
जीत : अभी शिकारगाह से डेरा उठाना मुनासिब नहीं। (तेजसिंह की तरफ़ देखकर) क्यों तेज?
तेजः (हाथ जोड़कर) जी हाँ, शिकारगाह में डेरा कायम रहने से हम लोग बड़ी खूबसूरती और दिल्लगी से अपना काम निकाल सकेंगे।
सुरेन्द्र : कोई ऐयार शिवदत्तगढ़ से लौटे तो कुछ हाल-चाल मालूम हो।
तेज : कल तो नहीं मगर परसों तक कोई-न-कोई ज़रूर आयेगा। पहर-भर से ज़्यादे देर तक बात-चीत होती रही। कुल बात को खोलना हम मुनासिब नहीं समझते बल्कि आख़ीरी बात का पता तो हमें भी न लगा जो मजलिस उठने के बाद जीतसिंह ने अकेले में तेजसिंह को समझाई थी। ख़ैर जाने दीजिए, जो होगा, देखा जायेगा जल्दी क्या है।
गंगा के किनारे ऊँची बारहदरी में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह दोनों भाई बैठे जल की कैफ़ियत देख रहे हैं। बरसात का मौसम है। गंगा खूब बढ़ी हुई हैं, किले के नीचे जल पहुँचा है। छोटी-छोटी लहरें दीवारों में टक्कर मार रही हैं। अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जल में पड़कर लहरों की शोभा दूनी बढ़ा रही है। सन्नाटे का आलम है। इस बारहदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के कोई तीसरा दिखाई नहीं देता।
इन्द्र : अभी जल कुछ और बढ़ेगा।
आनन्द : जी हाँ, परसाल तो गंगा आज से कहीं ज़्यादे बढ़ी हुई थीं, जब दादाजी ने हम दोंनों को तैरकर पार जाने के लिए कहा था।
इन्द्र : उस दिन भी खूब ही दिल्लगी हुई, भैरोसिंह सभों से तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाहा कि उसके आगे निकल जायँ मगर न हो सका।
आनन्द : हम दोनों भी कोस-भर तक उस किश्ती के साथ ही भेजे गए जो हम लोगों की हिफ़ाजत के लिए संग गयी थी।
इन्द्र : बस वही तो हम लोगों का आखिरी इम्तिहान रहा, फिर तब से जल में तैरने की नौबत ही कहाँ आयी।
आनन्द : कल तो मैंने दादाजी से कहा था कि आजकल गंगाजी खूब बढ़ी हुई हैं, तैरने को जी चाहता है।
इन्द्र : तब क्या बोले?
आनन्द : कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तैरना मुनासिब नहीं है, हँसी होगी। तैरना भी एक इल्म है, जिसमें तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या ज़रूरत है? ऐसा ही जी चाहे तो किश्ती पर सवार होकर जाओ सैर करो।
इन्द्र : उन्होंने बहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोड़ी दूर तक घूम आयें।
बातचीत हो ही रही थी कि चोबदार ने आकर अर्ज़ किया, ‘‘एक बहुत बूढ़ा जवहरी हाज़िर है, दर्शन किया चाहता है।’’
आनन्द : यह कौन-सा वक्त है?
चोबदारः (हाथ जोड़कर) ताबेदार ने तो चाहा था कि इस समय उसे बिदा करे मगर यह ख्याल करके ऐसा करने का हौसला न पड़ा कि एक तो लड़कपन ही से वह इस दरबार का नमकख्वार है और महाराज की भी उस पर निगाह रहती है, दूसरे अस्सी वर्ष का बुड्ढा है, तीसरे कहता है कि अभी इस शहर में पहुँचा हूँ, महाराज का दर्शन कर चुका हूँ, सरकार के भी दर्शन हो जायँ तब आराम से सराय में डेरा डालूँ और हमेशे से उसका यही दस्तूर भी है।
इन्द्र : अगर ऐसा है तो उसे आने ही देना मुनासिब है।
आनन्द : अब आज किश्ती पर सैर करने का रंग नज़र नहीं आता।
इन्द्र : क्या हर्ज़ है, कल सही।
चोबदार सलाम करके चला गया और थोड़ी देर में सौदागर को लेकर हाज़िर हुआ। हक़ीक़त में वह सौदागर बहुत ही बुड्ढा था, रेयासत और शराफत उसके चेहरे से बरसती थी। आते ही सलाम करके उसने दोनों भाइयों को दो अँगूठियाँ दीं और कबूल होने के बाद इशारा पाकर जमीन पर बैठ गया।
इस बुड्ढे जवहरी की इज्जत की गयी, मिजाज का हाल तथा सफर की कैफ़ियत पूछने के बाद डेरे पर जाकर आराम करने और कल फिर हाज़िर होने का हुक़्म हुआ, सौदागर सलाम करके चला गया।
सौदागर ने जो दो अँगूठीयाँ दोनों भाइयों को नज़र दी थीं, उनमें आनन्दसिंह की अँगूठी पर निहायत खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था और इन्द्रजीतसिंह की अँगूठी पर सिर्फ़ एक छोटी-सी तस्वीर थी, जिसे एक दफे निगाह भरकर इन्द्रजीतसिंह ने देखा और कुछ सोच चुप हो रहे।
एकान्त होने पर रात को शमादान की रोशनी में फिर उस अँगूठी को देखा जिसमें नगीने की जगह एक कमसिन हसीन औरत की तस्वीर जड़ी हुई थी। चाहे यह तस्वीर कितनी ही छोटी क्यों न हो मगर मुसौवर ने गजब की सफाई इसमें खर्च की थी। इसे देखते-देखते ही एक मरतबे तो इन्द्रजीतसिंह की यह हालत हो गयी कि अपने को उस औरत की तस्वीर को भूल गए, मालूम हुआ कि स्वयं वह नाज़नीन इनके सामने बैठी है और यह उससे कुछ कहा चाहते हैं मगर उसके हुस्न के रुआब में आकर चुप रह जाते हैं। यकायक यह चौंक पड़े और अपनी बेवकूफी पर अफ़सोस करने लगे, लेकिन इससे क्या होता है? उस तस्वीर ने तो एक ही सायत में इनके लड़कपन को धूल में मिला दिया और नौजवानी की ‘दीवानी सूरत इनके सामने खड़ी कर दी। थोड़ी देर पहिले सवारी, शिकार, कसरत वग़ैरह के पेंचीले कायदे दिमाग में घूम रहे थे, अब ये एक दूसरी ही उलझन में फँस गये और दिमाग़ किसी अद्वितीय रत्न के मिलने की फ़िक्र में गोते खाने लगा। महाराज शिवदत्त की तरफ़ से अब क्या ऐयारी होती है, भैरोसिंह क्योंकर और कब क़ैद से छूटते हैं, देखें बद्रीनाथ वग़ैरह शिवदत्तगढ़ में जाकर क्या करते हैं, अब शिकार खेलने की नौबत कब तक आती है, एक ही तीर में शेर को गिरा देने का मौका कब मिलता है, किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने कब जाना चाहिए इत्यादि खयालों को भूल गए। अब तो यह फ़िक्र पैदा हुई कि सौदागर को यह अँगूठी क्योंकर हाथ लगी? यह तस्वीर खयाली है या असल में किसी ऐसे की ही जो इस दुनिया में मौजूद है? क्या सौदागर उसका पता-ठिकाना जानता होगा? खूबसूरती की इतनी ही हद्द है या और भी कुछ है? नजाकत सुडौली और सफाई वग़ैरह का ख़ज़ाना यही है या कोई और? इसकी मोहब्बत के दरिया में हमारा बेड़ा क्योंकर पार होगा?
कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने आज बहाना करना भी सीख लिया और घड़ी ही भर में उस्ताद हो गये। पेट फूला है, भोजन न करेंगे, सर में दर्द है, किसी का बोलना बुरा मालूम होता है, सन्नाटा हो तो शायद नींद आये, इत्यादि बहानों से उन्होंने अपनी जान बचायी और तमाम रात चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर इस फ़िक्र में काटी कि सवेरा हो तो सौदागर को बुलाकर कुछ पूछें।
सवेरे उठते ही जवहरी को हाज़िर करने का हुक़्म दिया, मगर घण्टे-भर के बाद चोबदार ने वापिस आकर अर्ज़ किया कि सराय में सौदागर का पता नहीं लगता।
इन्द्र : उसने अपना डेरा कहाँ पर बतलाया था?
चोब : ताबेदार को तो उसकी जुबानी यही मालूम हुआ था कि सराय में उतरेगा, मगर वहाँ दरियाफ्त करने से मालूम हुआ कि यहाँ कोई सौदागर नहीं आया।
इन्द्र : किसी दूसरी जगह पर उतरा होगा, पता लगाओ।
‘‘बहुत खूब’’ कहकर चोबदार तो चला गया मगर इंद्रजीतसिंह कुछ तरद्दुद में पड़ गये। सिर नीचा करके सोच रहे थे कि किसी के पैर की आहट ने चौंका दिया, सिर उठाकर देखा तो कुअँर आनन्दसिंह!
आनन्द : स्नान का तो समय हो गया है।
इन्द्र : हाँ, आज कुछ देर हो गयी।
आनन्द : तबियत कुछ सुस्त मालूम होती है?
इन्द्र : रात-भर सर में दर्द था।
आनन्द : अब कैसा है?
इन्द्र : अब तो ठीक है।
आनन्द : कल कुछ झलक-सी मालूम पड़ी थी कि उस अँगूठी में कोई तस्वीर जड़ी हुई है जो उस जौहरी ने नज़र की थी।
इन्द्र : हाँ थी तो।
आनन्द : कैसी तस्वीर है?
इन्द्र : न मालूम वह अँगूठी कहाँ रख दी कि मिलती ही नहीं। मैंने सोचा था कि दिन को अच्छी तरह देखूँगा मगर...
ग्रन्थकर्ता : सच है, इसकी गवाही तो मैं भी दूँगा।
अगर भेद खुल जाने का डर न होता तो कुअँर इन्द्रजीतसिंह सिवा ‘ओफ’ करने और लम्बी-लम्बी साँसे लेने के कोई दूसरा काम न करते मगर क्या करें लाचारी से सभों मामूली काम और अपने दादा के साथ बैठकर भोजन भी करना पड़ा, हाँ शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गयी जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जवहरी का कहीं पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जवहरी ने बिलकुल झूठ कहा था कि महाराज का दर्शन कर आया हूँ और अब कुमार के दर्शन हो जायँ तब आराम से सराय में डेरा डालूँ, वह वास्तव में महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह से नहीं मिला था।
तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनन्दसिंह ने किश्ती पर सवार होकर गंगाजी की सैर करने और दिल बहलाने के लिए ज़िद्द की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी।
एक छोटी-सी खूबसूरत और तेज़ जानेवाली किश्ती पर सवार हो इन्द्रजीतसिंह ने चाहा कि किसी और को साथ न लें जाएँ सिर्फ़ दोनों भाई ही सवार हों और खे कर दरिया की सैर करें। किसकी मजाल थी कि जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार ने जिसने कि बीरेन्द्रसिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका जब दोनों भाइयों ने न माना तो वह खुद किश्ती पर सवार हो गया। पुराना नौकर होने के खयाल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार साथ ले जाना ही पड़ा।
आनन्द : किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए...फिर खे कर ले आवेंगे।
इन्द्र : अच्छी बात है।
सिर्फ़ दो घण्टे दिन बाक़ी था जब दोनों भाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने गये क्योंकि लौटते समय चाँदनी रात का भी आनन्द लेना मंजूर था।
चुनार से दो कोस पश्चिम गंगा के किनारे पर एक छोटा-सा जंगल था। जब किश्ती उसके पास पहुँची, वंशी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज़ इन लोगों के कानों में पड़ी। संगीत एक ऐसी चीज़ है कि हर एक के दिल को चाहे वह कैसा ही नासमझ क्यों न हो अपनी तरफ़ खैंच लेती है, यहाँ तक कि जानवर भी इसके वश में होकर अपने को भूल जाता है। दो तीन दिन से कुँअर इन्द्रजीतसिंह का दिल चुटीला हो रहा था, दरिया की बहार देखना तो दूर रहा इन्हें अपने तनोबदन की भी सुध न थी, ये तो अपनी प्यारी तस्वीर की धुन में सर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे, इनके हिसाब चारो तरफ़ सन्नाटा था, मगर इस सुरीली आवाज़ ने इनकी गर्दन घुमा दी और उस तरफ़ देखने को मजबूर किया जिधर से वह आ रही थी।
किनारे की तरफ़ देखने से यह तो मालूम न हुआ कि वंशी बजाने या गाने वाला कौन है मगर इस बात अंदाज ज़रूर मिल गया कि वे लोग बहुत दूर नहीं हैं, जिनके गाने की आवाज़ सुननेवालों पर जादू-सा असर कर रही है।
इन्द्रजीत : आहा, क्या सुरीली आवाज़ है!
आनन्द : दूसरी आवाज़ आयी। बेशक कई औरते मिलकर गा-बजा रही हैं।
इन्द्रजीत : (किश्ती का मुँह किनारे की तरफ़ फेरकर) ताज्जुब है कि इन लोगों ने गाने-बजाने और दिल बहलाने के लिए ऐसी जगह पसंद की। ज़रा देखना चाहिए।
आनन्द : क्या हर्ज़ है चलिए।
बूढ़े ख़ितमदगार ने किनारे किश्ती लगाने और उतरने के लिए मना किया और बहुत समझाया मगर इन दोनों ने न माना, किश्ती किनारे लगायी और उतरकर उस तरफ़ चले जिधर से आवाज़ आ रही थी। जंगल में थोड़ी ही दूर जाकर दस-पन्द्रह नौजवान औरतों का झुण्ड नज़र पड़ा जो रंग-बिरंगी पोशाकें और कीमती जेवरों से अपने हुस्न को दूना किए ऊँचे पेड़ से लटकते हुए एक झूले को झुला रही थीं। कोई वंशी, कोई मृदंगी बजातीं, कोई हाथ से ताल-दे देकर गा रही थीं। उस हिंडोले पर सिर्फ़ एक ही औरत गंगा की तरफ़ रुख किए बैठी थी। ऐसा मालूम होता था मानों परियाँ साक्षात् किसी देवकन्या को झूला-झुला और गा-बजाकर इसलिए प्रसन्न कर रही हैं कि खूबसूरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें। मगर नहीं, उनके भी दिल-की-दिल ही में रही और कुअँर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाज़नीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग ही जाना पड़ा।
आनन्द : भैया, वह सब तो भाग गयीं।
इन्द्र : हाँ, मैं इस हिंडोले पास जाता हूँ, तुम देखो वे औरतें किधर गयीं?
आनन्द : बहुत अच्छा।
चाहे जो हो मगर कुअँर इन्द्रजीत सिंह ने उसे पहिचान ही लिया जो हिंडोले पर अकेले रह गयी थी। भला यह क्यों न पहिचानते? जवहरी की नज़र दी हुई अँगूठी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, इनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गयी थी, अब तो मुँह माँगी मुराद पायी, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था उसे बिना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए।
आनन्दसिंह पता लगाने के लिए उन औरतों के पीछे गए मगर वे ऐसा भागीं कि झलक तक दिखायी न दी, लाचार आधे घण्टे तक हैरान होकर फिर उस हिंडोले के पास पहुँचे, हिंडोले पर बैठी हुई औरत को कौन कहे, अपने भाई को भी वहाँ न पाया। घबड़ाकर इधर-उधर ढूँढ़ने और पुकारने लगे, यहाँ तक कि रात हो गयी और यह सोचकर किश्ती के पास पहुँचे कि शायद वहाँ चले गए हों, लेकिन वहाँ भी सिवाय उस बूढ़े खिदमतगार के किसी दूसरे को न देखा। जी बेचैन हो गया, खिदमतगार को सब हाल बताकर बोले, ‘‘जब तक मैं अपने प्यारे भाई का पता न लगा लूँगा, घर न जाऊँगा, तू जाकर यहाँ का हाल सभों को ख़बर कर दे।’’
ख़ितमदगार ने हर तरह आनन्दसिंह को समझाया और घर चलने के लिए कहा मगर कुछ फ़ायदा न निकला। लाचार उसने किश्ती उसी जगह छोड़ी और पैदल रोता-कलपता किले की तरफ़ रवाना हुआ क्योंकि यहाँ जो कुछ हो चुका था उसका हाल राजा बीरेन्द्र सिंह से कहना भी उसने आवश्यक समझा।
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