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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


अब थोड़ा-सा हाल शिवदत्तगढ़ का भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह हम पहिले लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त को एक लड़का और एक लड़की भी हुई थी। इस समय लड़के की उम्र जिसका नाम भीमसेन है अठारह वर्ष की हो गयी थी, पर लड़की किशोरी की उम्र भी पन्द्रह वर्ष से ज़्यादे न होगी। इस समय बेचारी किशोरी शिवदत्तगढ़ में मौजूद नहीं है क्योंकि महाराज शिवदत्त ने रंज होकर उसे, उसके ननिहाल भेज दिया है। रंज होने का कारण हम यहाँ नहीं लिखते क्योंकि यह बहुत पेचीली बात है, खुलते-खुलते खुल जाएगी।

भीमसेन शिवदत्तगढ़ में मौजूद है। उसे सिपहगिरी से बहुत शौक़ है, बदन में ताक़त भी अच्छी है। तलवार, खंजर, नेजा, तीर, गदा इत्यादि चलाने में होशियार और राजकाज के मामले में भी तेज़ है मगर अपने पिता महाराज शिवदत्त तकी चाल को पसन्द नहीं करता, पर फिर भी महाराज शिवदत्त को उससे बहुत ही ज़्यादे प्रेम है।

एक दिन भीमसेन मामूली तौर पर बीस हमजोलियों को साथ ले घोड़े पर सवार शिकार खेलने के लिए शिवदत्तगढ़ के बाहर निकला और एक ऐसे जंगल में गया जिसमें बनैले सुअर बहुत थे। उसका इरादा भी यही था कि घोड़ा दौड़ाकर बरछे से बनैले सुअर को मारे।

जंगल में घूमने-फिरने लगे। एक ताक़तवर और मज़बूत सुअर भीमसेन की बगल से होता हुआ पूरब की तरफ़ भागा। भीमसेन ने भी उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया, मगर वह बहुत तेज़ी से भागा जा रहा था इसलिए बहुत दूर निकल गया, उसके संगी-साथी सब पीछे छूट गये। यकायक भीमसेन ने देखा कि सामने की तरफ़ जिधर सुअर भागा जाता है, एक औरत घोड़े पर सवार हाथ में बरछी लिए इस ताक में खड़ी है कि सुअर पास आवे तो बरछी से मार ले।

जब सुअर ऐसे ठिकाने पर पहुँचा जहाँ से वह औरत इतनी दूर रह गयी जितनी दूर उसके पीछे भीमसेन था, वह बायीं तरफ़ को मुड़ा और पहिले से ज़्यादे तेज़ी के साथ भागा। भीमसेन और वह औरत दोनों ही ने उसके पीछे घोड़ा फेंका मगर भीमसेन से पहिले उस औरत ने पहुँचकर बरछी मारी जिसके लगते ही वह सुअर गिरा।

अपना शिकार एक औरत के हाथ से मरते देख भीमसेन को क्रोध चढ़ आया और आँखें लाल हो गयीं। ललकारकर बोला—‘‘तूने मेरे शिकार पर क्यों बरछी चलायी!’’

औरत : क्या शिकार पर तुम्हारा नाम खुदा हुआ था?

भीम : क्यों नहीं! मेरा जंगल मेरा शिकार, इतनी देर से मैं इसके पीछे चला आ रहा हूँ!!

औरत : वाह रे तेरा जंगल और वाह रे तेरा शिकार! तीन कोस से दौड़े चले आते हैं, एक सुअर न मारा गया! शर्म तो आती नहीं उलटे लाल आँखें कर मर्दानगी दिखा रहे हैं!!

भीम : क्या कहूँ, तेरी खूबसूरती पर रहम आता है, औरत समझकर छोड़ देता हूँ नहीं तो ज़रूर मजा चखा देता।

औरत : मैं भी छोकरा समझकर छोड़ देती हूँ नहीं तो दोनों कान पकड़कर उखाड़ देती!

भीम : (दाँत पीसकर) बस अब सहा नहीं जाता। ज़ुबान सम्हाल!

औरत : नहीं सहा जाता तो अपने हाथ से अपना मुँह पीट! यहाँ तो जुबान हमेशे यों ही चलती रही है और चलती रहेगी!

इस औरत की खूबसूरती, सवारी का ढंग, बदन की सुडौली और फुर्ती यहाँ तक चढ़ी-बढ़ी थी कि आदमी घण्टों देखा करे और जी न भरे मगर इसकी जली-कटी बातों ने भीमसेन को आपे से बाहर कर दिया। आँखों के आगे अन्धेरा छा गया, बिना कुछ सोचे-विचारे उस औरत पर बरछी का वार किया। औरत ने बड़ी फुर्ती से बरछी ढाल पर रोकी और हँसकर कहा, ‘‘और जो कुछ हौसला रखता हो ला!’’

घण्टे-भर तक दोनों में बरछी की लड़ाई हुई। इस समय अगर कोई इस फ़न का उस्तादा होता तो उस औरत की फुर्ती देख बेशक़ खुश हो जाता और ‘वाह-वाह’ या ‘शाबाश’ कहे बिना न रहता। आख़िर उस औरत की बरछी जिसका फल ज़हर से बुझाया हुआ था, भीमसेन की जाँघ में लगी, जिसके लगते ही तमाम बदन में ज़हर फैल गया और वह बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़ा।

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