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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

बारहवाँ बयान


अब हम आपको एक दूसरी सरज़मीन में ले चलकर एक दूसरे ही रमणीक स्थान की सैर करा तथा इसके साथ-ही-साथ बड़े-बड़े ताज्जुब के खेल और अद्भुत बातों को दिखाकर अपने किस्से का सिलसिला दुरुस्त किया चाहते हैं। मगर यहाँ एक ज़रूरी बात लिख देने की इच्छा होती है जिसके जानने से आगे चलकर आपको कुछ ज़्यादे आनन्द मिलेगा।

इस जगह बहुत-सी अद्भुत बातों को पढ़कर आप ऐसा न समझ लें कि यह तिलिस्म है और इसमें ऐसी बातें हुआ ही करती हैं, बल्कि उसे दुरुस्त और होनेवाली समझकर खूब गौर करें क्योंकि अभी यह पहिला ही हिस्सा है। इस संतति के चार हिस्सों में तो हम तिलिस्म का नाम भी न लेंगे, आगे चलकर देखा जायगा।

आप ध्यान कर लें कि एक अच्छे रमणीक स्थान में पहुँचकर सैर कर रहे हैं। यह ज़मीन जो लगभग हज़ार गज के चौड़ी और इतनी ही लम्बी होगी चारों तरफ़ की चार खूबसूरत पहाड़ियों से घिरी हुई है। बीच की सब्जी और गुलबूटों की बहार देखने ही लायक है। इस कुदरती बगीचे में जंगली फूलों के पेड़ ज़्यादे दिखायी देते है, उन्हीं में मिले-जुले गुलाबों के पेड़ भी बेशुमार हैं और कोई भी ऐसा नहीं कि जिसमें सुन्दर कलियाँ और फूल न दिखायी देते हों। बीच में बड़े-बड़े तीन झरने भी खूबसूरती से बह रहे हैं। बरसात का मौसिम है, चारों तरफ़ से पहाड़ों पर से गिरा हुआ जल इन झरनों में जोश मार रहा है। पूरब तरफ़ पहाड़ी के नीचे पहुँचकर ये तीनों झरने एक हो गये हैं और अन्दाज़ से ज़्यादे आया हुआ जल गड़हे में गिरकर न मालूम कहाँ निकल जाता है। यहाँ की आबहवा ऐसी उत्तम है कि अगर वर्षों का बीमार भी आवे तो दो दिन में तन्दुरुस्त हो जाय और यहाँ की सैर से कभी जी न घबराए।

बीचोंबीच में एक अलीशान इमारत बनी हुई है, मगर चाहे उसमें हर तरह की सफाई क्यों न हो फिर भी किसी पुराने जमाने की मालूम होती है। उसी इमारत के समाने एक छोटी-सी खूबसूरत बावली बनी हुई है जिसके चारों तरफ़ की ज़मीन कुछ ज़्यादे खूबसूरत मालूम पड़ती है और फूल पत्ते भी मौके से लगाये हुए हैं।

यह इमारत सूनसान और उदास नहीं है, इसमें पन्द्रह-बीस नौजवान खूबसूरत औरतों का डेरा है। देखिए इस शाम के सुहावने समय में वे सब घर से निकल कर चारों तरफ़ मैदान में घूम-घूमकर जिंदगी का मजा ले रही हैं। सभी खुश, सभी की मस्तानी चाल, सभी फूलों को तोड़-तोड़कर आपस में गेंदबाजी कर रही हैं। हमारे नौजवान नायक कुँअर इन्द्रजीतसिंह भी एक हसीन नाज़नीन के हाथ में हाथ दिये बावली के पूरब तरफ़ टहल रहे हैं, बात-बात में हँसी दिल्लगी हो रही है, दीन-दुनिया की सुध भूले हुए हैं।

लीजिए वे दोनों थककर बावली के किनारे एक खूबसूरत संगमर्मर की चट्टान पर बैठ गये और बातचीत होने लगी।

इन्द्र : माधवी, मेरा शक किसी तरह नहीं जाता। क्या सचमुच तुम वही हो जो उस दिन गंगा के किनारे जंगल में झूला झूल रही थीं?

माधवी : आप रोज़ मुझसे यही सवाल करते हैं और मैं क़सम खाकर इसका जवाब दे चुकी हूँ, मगर अफसोस कि मेरी बात पर विश्वास नहीं करते।

इन्द्र : (अँगूठी की तरफ़ देखकर) इस तस्वीर से कुछ फ़र्क़ मालूम होता है।

माधवी : यह दोष मुसौवर का है।

इन्द्र : ख़ैर जो हो फिर भी तुमने मुझे अपने वश में कर रक्खा है।

माधवी : जी हाँ ठीक है, मुझसे मिलने का उद्योग तो आप ही ने किया था!

इन्द्र : अगर मैं उद्योग न करता तो क्या तुम मुझे ज़बर्दस्ती ले आतीं?

माधवी : ख़ैर जाने दीजिए, मैं क़बूल करती हूँ कि आपने मेरे ऊपर अहसान किया, बस!

इन्द्र : (हँसकर) बेशक तुम्हारे ऊपर अहसान किया कि दिल और जान तुम्हारे हवाले किये।

माधवी : (शर्माकर और सिर नीचा करके) बस रहने दीजिए, ज़्यादे सफाई न दीजिए!

इन्द्र : अच्छा इन बातों को छोड़ो और अपने वादे को याद करो? आज कौन दिन है? बस आज तुम्हारा पूरा हाल सुने बिना न मानूँगा चाहे जो हो, मगर देखो फिर उन भारी कसमों की याद दिलाता हूँ जो मैं कई दफे तुम्हें दे चुका हूँ, मुझसे झूठ कभी न बोलना नहीं तो अफ़सोस करोगी।

माधवी : (कुछ देर तक सोचकर) अच्छा आज-भर मुझे और माफ़ कीजिए, आप से बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं समझती और आप ही की शपथ खाकर कहती हूँ कि कल जो पूछेंगे सब ठीक-ठीक कह दूँगी, कुछ न छिपाऊँगी। (आसमान की तरफ़ देखकर) अब समय हो गया, मुझे दो घण्टे की फुरसत दीजिए।

इन्द्र : (लम्बी साँस लेकर) ख़ैर कल ही सही, जाओ मगर दो घण्टे से ज़्यादे न लगाना।

माधवी उठी और मकान के अन्दर चली गयी। उसके जाने के बाद इन्द्रजीतसिंह अकेले रह गये और सोचने लगे कि यह माधवी कौन है? इसका कोई बड़ा बुजुर्ग भी है या नहीं! यह अपना हाल क्यों छिपाती है! सुबह-शाम दो-दो तीन-तीन घण्टे तक कहाँ और किससे मिलने जाती है? इसमें तो शक नहीं कि यह मुझसे मुहब्बत करती है मगर ताज्जुब है कि मुझे यहाँ क्यों क़ैद कर रक्खा है। चाहे यह सरज़मीन कैसी ही सुन्दर और दिल लुभाने वाली क्यों न हो, फिर भी मेरी तबियत यहाँ से उचाट हो रही है। क्या करें कोई तरकीब नहीं सूझती, बाहर का कोई रास्ता नहीं दिखायी देता, यह तो मुमकिन ही नहीं कि पहाड़ चढ़कर कोई पार हो जाय, और यह भी दिल नहीं कबूल करता कि इसे किसी तरह रंज करूँ और अपना मतलब निकालूँ, क्योंकि मैं अपनी जान इस पर न्यौछावर कर चुका हूँ।

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातों को सोचते इनका जी बेचैन हो गया, घबड़ा-कर उठ खड़े हुए और इधर-उधर टहलकर दिल बहलाने लगे। चश्मे का जल निहायत साफ़ था, बीच की छोटी-छोटी खुशरंग कंकरियाँ और तेज़ी के साथ दौड़ती हुई मछलियाँ साफ़ दिखायी पड़ती थीं, इसी की कैफ़ियत के साथ किनारे-किनारे जाकर दूर निकल गये और वहाँ पहुँचे, जहाँ तीनों चश्मों का संगम हो गया था और अन्दाज़ से ज़्यादे आया हुआ जल पहाड़ी के नीचे एक गड़हे में गिर रहा था।

एक बारीक आवाज़ इनके कान में आयी। सर उठाकर पहाड़ की तरफ़ देखने लगे। ऊपर पन्द्रह बीस गज की दूरी पर एक औरत दिखायी पड़ी जिसे अब तक इन्होंने इस हाते के अन्दर कभी नहीं देखा था। उस औरत ने हाथ के इशारे से ठहरने के लिए कहा था तथा ढोकों की आड़ में जहाँ तक बन पड़ा अपने को छिपाती हुई नीचे उतर आयी और आड़ देकर इन्द्रजीतसिंह के पास इस तरह खड़ी हो गयी जिसमें उस नौजवान छोकरियों में से कोई उसे देखने न पावे जो यहाँ की रहनेवालियाँ चारों तरफ़ घूमकर चुहलबाजी में दिल बहला रही हैं और जिनका कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं।

उस औरत ने एक लपेटा हुआ काग़ज़ इन्द्रजीतसिंह के हाथ में दिया। इन्होंने कुछ पूछना चाहा मगर उसने यह कहकर कुमार का मुँह बन्द कर दिया कि ‘बस’ जो कुछ है इसी चिठी से आपको मालूम हो जायगा, मैं जुबानी कुछ कहा नहीं चाहती और न यहाँ ठहरने का मौक़ा है, क्योंकि कोई देख लेगा तो हम आप दोनों ऐसी आफ़त में फँस जायँगे कि जिससे छुटकारा मुश्किल होगा। मैं उसी की लौंडी हूँ जिसने यह चिठी आपके पास भेजी है’!

उसकी बात का इन्द्रजीतसिंह क्या जवाब देंगे इसका इन्तज़ार न करके वह औरत पहाड़ी पर चढ़ गयी और चालीस-पचास हाथ जा एक गड़हे में घुसकर न मालूम कहाँ लोप हो गयी। इन्द्रजीतसिंह ताज्जुब में आकर खड़े आधी घड़ी तक उस तरफ़ देखते रहे मगर फिर वह नज़र न आयी, लाचार इन्होंने काग़ज़ खोला और बड़े गौर से पढ़ने लगे, यह लिखा था—‘‘हाय, मैंने तस्वीर बनकर अपने को आपके हाथ में सौंपा, मगर आपने मेरी कुछ भी ख़बर न ली, बल्कि एक दूसरी ही औरत के फन्दे में फँस गये जिसने मेरी सूरत बन आपको पूरा धोखा दिया। सच है, वह परीजमाल जब आपके बगल में बैठी है तो फिर मेरी सुध क्यों आने लगी!

‘‘आपको मेरी ही क़सम है, पढ़ने के बाद इस चीठी के इतने टुकड़े कर डालिए कि अक्षर भी दुरुस्त न बचने पावे।

आपकी दासी—किशोरी।’’

इस चीठी के पढ़ते ही कुमार के कलेजे में एक धड़कन-सी पैदा हुई। घबड़ाकर एक चट्टान पर बैठ गये और सोचने लगे— ‘‘मैंने पहिले ही कहा था कि इस तस्वीर से उसकी सूरत नहीं मिलती। चाहे यह कितनी ही हसीन और खूबसूरत क्यों न हो मगर मैंने तो अपने को उसी के हाथ बेच डाला है जिसकी तस्वीर खुशकिस्मती से मेरे हाथ में मौजूद है। तब क्या करना चाहिए? यकायक इससे तक़रार करना भी मुनासिब नहीं। अगर यह इसी जगह मुझे छोड़कर चली जाय और अपनी सहेलियों को भी लेती जाय तो मैं क्या करूँगा? घबड़ाकर सिवाय प्राण दे देने के और क्या कर सकता हूँ? क्योंकि यहाँ से निकलने का रास्ता मालूम नहीं। यह भी नहीं हो सकता कि इन दोनों पहाड़ियों पर चढ़कर पार हो जाऊँ, क्योंकि सिवाय ऊँची सीधी चट्टानों के चढ़ने लायक रास्ता कहीं भी नहीं मालूम पड़ता। ख़ैर जो हो, आज मैं ज़रूर उसके दिल में कुछ खुटका पैदा करूँगा। नहीं, नहीं आज भर और चुप रहना चाहिए, कल उसने अपना हाल कहने का वादा किया ही है आख़िर कुछ-न-कुछ झूठ ज़रूर कहेगी, बस उसी समय टोकूँगा। एक बात और है। (कुछ रुककर) अच्छा देखा जायगा। यह औरत जो मुझे चीठी दे गयी है यहाँ किस तरह पहुँची? (पहाड़ी की तरफ़ देखकर) जितनी दूर ऊँचे उसे मैंने देखा था, वहाँ तक तो चढ़ जाने का रास्ता मालूम होता है, शायद इतनी दूर तक लोगों की आमदरफ्त होती होगी। ख़ैर ऊपर चलकर देखूँ तो सही कि बाहर निकल जाने के लिए कोई सुरंग तो नहीं है।’’

इन्द्रजीतसिंह उस पहाड़ी पर वहाँ तक चढ़ गये जहाँ वह औरत नज़र पड़ी थी। ढूँढ़ने से एक सुरंग ऐसी नज़र आयी जिसमें आदमी बखूबी घुस सकता था। इन्हें विश्वास हो गया कि इसी राह से वह आयी थी और बेशक हम भी इसी राह से बाहर हो जायँगे। खुशी-खुशी उस सुरंग में घुसे। दस बारह कदम अँधेरे में गये होंगे कि पैर के नीचे जल मालूम पड़ा। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे जल ज़्यादे जान पड़ता था, मगर यह भी हौसला किये बराबर चले गये। जब गले बराबर जल में जा पहुँचे और मालूम हुआ कि आगे ऊपर चट्टान जल के साथ मिली हुई है, तैरकर भी कोई नहीं जा सकता और रास्ता बिल्कुल नीचे की तरफ़ झुकता अर्थात ढलवाँ ही मिलता जाता है तो लाचार होकर लौट आये मगर उन्हें विश्वास हो गया कि वह औरत ज़रूर इसी राह से आयी थी क्योंकि उसे गीले कपड़े पहिरे इन्होंने भी देखा था।

वे औरते जो पहाड़ी के बीचवाले दिलचस्प मैदान में घूम रही थीं इन्द्रजीतसिंह को कहीं न देख घबरा गयीं और दौड़ती हुई उस हवेली के अन्दर पहुँची जिसका जिक्र हम ऊपर कर आये हैं। तमाम मकान छान डाला, पता न लगा तो उन्हीं में से एक बोली, ‘‘बस अब सुरंग के पास चलना चाहिए, ज़रूर उसी जगह होंगे।’’ आख़िर वे औरते वहाँ पहुँची जहाँ सुरंग के पास निकलकर गीले कपड़े पहिरे इन्द्रजीतसिंह खड़े कुछ सोच रहे थे।

इन्द्रजीतसिंह को सोच-विचार करते और सुरंग में आते-जाते दो घण्टे लग गये। रात हो गयी थी, चन्द्रमा पहिले ही से निकले हुए थे जिसकी चाँदनी ने दिलचस्प ज़मीन में फैलकर अजीब समां जमा रक्खा था। दो घण्टे बीत जाने पर माधवी भी लौट आयी थी मगर उस मकान में या उसके चारों तरफ़ किसी लौंडी या सहेली को न देख घबरा गयी और उस समय तो उसका कलेजा और भी दहलने लगा जब उसने देखा कि अभी तक घर में चिराग नहीं जला। उसने भी इधर-उधर ढूँढ़ना नापसन्द किया और सीधे उसी सुरंग के पास पहुँची। अपनी सब सखियों और लौंडियों को भी वहाँ पाया और यह भी देखा कि इन्द्रजीत सिंह गीले कपड़े पहिरे सुरंग के मुहाने से नीचे की तरफ़ आ रहे हैं।

क्रोध में भरी माधवी ने अपनी सखियों की तरफ़ देखकर धीरे से कहा, ‘‘लानत है तुम लोगों की गफ़लत पर। इसीलिए तुम हरामखोरिनों को मैंने यहाँ रक्खा था!’’ गुस्सा ज़्यादे चढ़ आया था और होंठ काँप रहे थे इससे कुछ और ज़्यादे न कह सकी, फिर इन्द्रजीतसिंह के नीचे आने तक बड़ी कोशिश से माधवी ने अपने गुस्से को पचाया और बनावटी तौर पर हँसकर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, ‘‘क्या आप उस नहर के अन्दर गये थे?’’

इन्द्र : हाँ!

माधवी : भला यह कौन-सी नादानी थी! न मालूम इसके अन्दर कितने कीड़े-मकौड़े और बिच्छू होंगे। हम लोगों को तो डर के मारे कभी यहाँ खड़े होने का भी हौसला नहीं पड़ता।

इन्द्र : घूमते-फिरते चश्में का तमाशा देखते यहाँ तक आ पहुँचे, जी में आया कि देखें यह गुफा कितनी दूर तक चली गयी है। जब अन्दर गये तो पानी में भीगकर लौटना पड़ा।

माधवी : ख़ैर चलिए कपड़े बदलिए।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह का ख़याल और भी मज़बूत हो गया। वह सोचने लगे कि इस सुरंग में ज़रूर कोई भेद है, तभी तो ये सब घबड़ाई हुई यहाँ आ जमा हुईं।

इन्द्रजीतसिंह आज तमाम रात-सोच-विचार में पड़े रहे। इनके रंग ढंग से माधवी का भी माथा ठनका और वह भी रात भर चारों तरफ़ ख़याल दौड़ाती रही।


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