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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8399
आईएसबीएन :978-1-61301-026-6

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

तेरहवाँ बयान


दूसरे दिन खा-पीकर निश्चिन्त होने के बाद दोपहर को जब दोनों एकान्त में बैठे तो इन्द्रजीतसिंह ने माधवी से कहा— ‘‘अब मुझसे सब्र नहीं हो सकता, आज तुम्हारा ठीक-ठीक हाल सुने बिना कभी न मानूँगा और इससे बढ़कर निश्चिन्ती का समय भी दूसरा न मिलेगा।’’

माधवी : जी हाँ, आज मैं ज़रूर अपना हाल कहूँगी।

इन्द्रजीत : तो बस कह चलो, अब देर काहे की? पहिले यह बताओ कि तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं और यह सरज़मीन किस इलाके में है जिसके अन्दर मैं बेहोश करके लाया गया?

माधवी : यह इलाका गयाजी का है, यहाँ के राजा की मैं लड़की हूँ, इस समय मैं खुद मालिक हूँ, माँ-बाप को मरे पाँच वर्ष हो गये।

इन्द्र : ओफ ओह, तो मैं गयाजी के इलाके में आ पहुँचा! (कुछ सोचकर) तो तुम मेरे लिए चुनार गयी थीं?

माधवी : जी हाँ, मैं चुनार गयी थी और यह अँगूठी जो आपके हाथ में है सौदागर की मार्फत मैंने ही आपके पास भेजी थी।

इन्द्र : हाँ ठीक, तो मालूम पड़ता है किशोरी भी तुम्हारा ही नाम है।

किशोरी के नाम ने माधवी को चौंका दिया और घबराहट में डाल दिया। मालूम हुआ जैसे उसकी छाती में किसी ने बड़े ज़ोर से मुक्का मारा हो। फौरन उसका ख़याल उस सुरंग पर गया जिसके अन्दर से गीले कपड़े पहिरे हुए इन्द्रजीतसिंह निकले थे। वह सोचने लगी, ‘इनका उस सुंरग के अन्दर जाना बेसबब नहीं था, या तो कोई मेरा दुश्मन आ पहुँचा या फिर मेरी सखियों में से किसी ने भण्डा फोड़ा।’ इसी वक्त से इन्द्रजीतसिंह का खौफ भी उसके कलेजे मंन बैठ गया और वह इतना घबरायी कि किसी तरह अपने को सम्हाल न सकी, बहाना करके उसके पास से उठ खड़ी हुई और बाहर दालान में जाकर टहलने लगी।

इन्द्रजीतसिंह भी चेहरे के चढ़ाव-उतार से उसके चित्त का भाव समझ गये और बहाना करके बाहर जाती समय उसे रोकना मुनासिब न समझ कर चुप रहे।

आधे घण्टे तक माधवी उस दालान में टहलती रही, जब उसका जी कुछ ठिकाने हुआ तब उसने टहलना बन्द किया और एक दूसरे कमरे में चली गयी जिसमें उसकी दो सखियों का डेरा था जिन्हें वह जान से ज़्यादे मानती थी और जिनका बहुत कुछ भरोसा भी रखती थी। यो दोनों सखियाँ भी जिनका नाम ललिता और तिलोत्तमा था उसे बहुत चाहती थीं और ऐयारी विद्या को भी अच्छी तरह जानती थीं।

माधवी को कुसमय आते देख उसकी दोनों सखियाँ जो इस वक्त पलंग पर लेटी हुई कुछ बातें कर रही थीं घबराकर उठ बैठीं और तिलोत्तमा ने आगे बढ़कर पूछा, ‘‘बहिन क्या है जो इस वक्त यहाँ आयी हो? तुम्हारे चेहरे पर तरद्दुद की निशानी पायी जाती है!’’

माधवी : क्या कहूँ बहिन, इस समय वह बात हुई जिसकी कभी उम्मीद न थी!

ललिता : सो क्या, कुछ कहो तो!

माधवी : चलो बैठो कहती हूँ, इसीलिए तो आयी हूँ।

बैठने के बाद कुछ देर तक माधवी चुप रही, इसके बाद इन्द्रजीतसिंह से जो कुछ बातचीत हुई थी कहकर बोली, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी का कोई दूत यहाँ पहुँचा और उसी ने यह भेद खोला है। मैं तो उसी समय खटकी थी जब उनके गीले कपड़े पहिरे सुरँग के मुँह पर देखा था। बड़ी ही मुश्किल हुई, मैं इनको यहाँ से बाहर अपने महल में भी नहीं ले जा सकती, क्योंकि वह चाण्डाल सुनेगा तो पूरी दुर्गत कर डालेगा, और मैं उस पर किसी तरह का दबाव भी नहीं डाल सकती क्योंकि राज्य का काम बिल्कुल उसी के हाथ में है, जब चाहे चौपट कर डाले! जब राज्य ही नष्ट हुआ तो फिर यह सुख कहाँ? अभी तक तो इन्द्रजीतसिंह का हाल उसे बिल्कुल नहीं मालूम है मगर अब क्या होगा सो नहीं कह सकती!’’

माधवी घण्टे भर तक अपनी चालाक सखियों से राय मिलाती रही आख़िर जो कुछ करना था उसे निश्चय कर वहाँ से उठी और उस कमरे में पहुँची जहाँ इन्द्रजीतसिंह को छोड़ आयी थी।

जब तक माधवी अपनी सखियों के साथ बैठी बातचीत करती रही तब तक हमारे इन्द्रजीतसिंह भी अपने ध्यान में डूबे रहे। अब माधवी के साथ उन्हें कैसा बर्ताव करना चाहिए और किस चालाकी से अपना पल्ला छुड़ाना चाहिए सो सब उन्होंने सोच लिया और उसी ढंग पर चलने लगे।

जब माधवी इन्द्रजीतसिंह के पास आयी तो उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों एक-दम घबड़ाकर कहाँ चली गयी थीं?’’

माधवी : न मालूम क्यों जी मिचला गया था, इसीलिए दौड़ी चली गयी। कुछ गरमी भी मालूम होने लगी, जाकर एक क़ै की तब होश ठिकाने हुए।

इन्द्र : अब तबियत कैसी है?

माधवी : अब तो अच्छी है।

इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने कुछ छेड़-छाड़ न की और हँसी-खुशी में दिन बिता दिया, क्योंकि जो कुछ करना था वह तो दिल में था, ज़ाहिर में तकरार कर माधवी के दिल में शक पैदा करना मुनासिब न समझा।

माधवी को तो मालूम ही था कि वह शाम को चिराग़ जले बाद इन्द्रजीतसिंह से पूछकर दो घण्टे के लिए न मालूम किस राह से कहीं जाया करती थी, आज भी अपने वक्त पर उसने जाने का इरादा किया और इन्द्रजीतसिंह से छुट्टी माँगी।

इन्द्र : न मालूम क्यों तुमसे ऐसी मुहब्बत हो गयी है कि एक पल को भी आँखों के सामने से दूर जाने देने को जी नहीं चाहता, मुझे उम्मीद है तुम मेरी बात मान लोगी और कहीं जाने का इरादा न करोगी।

माधवी : (खुश होकर) शुक्र है कि आपको मेरा इतना ध्यान है, अगर ऐसी मर्ज़ी है तो मैं बहुत जल्द लौट आऊँगी!

इन्द्र : आज तो नहीं जाने देंगे। अहा, देखो कैसी घटा उठी आ रही है, वाह! इस समय भी तुम्हारे जी मे कुछ रस पैदा नहीं होता!

इस समय इन्द्रजीतसिंह ने दो एक बातें जिस ढंग से माधवी से कीं इसके पहिले नहीं की थीं इसलिए उसके जी की कली खिली जाती थी, मगर वह ऐसे फेर में पड़ी हुई थी कि जी ही जानता होगा, न तो इन्द्रजीतसिंह को नाखुश करना चाहती थी और न अपने मामूली काम में ही बाधा डालने की ताकत रखती थी। आख़िर कुछ सोच-विचारकर इस समय इन्द्रजीतसिंह का हुक़्म मानना ही उसने मुनासिब समझा और हँसी-खुशी में दिल बहलाया। आज चारपाई पर लेटे हुए इन्द्रजीतसिंह के पास रहकर उनको अपने जाल में फँसाने के लिए उसने क्या-क्या काम किये इसे हम अपनी सीधी-सीधी लेखनी से लिखना पसन्द नहीं करते, हमारे मनचले पाठक बिना समझे भी न रहेंगे। माधवी को इस बात का बिल्कुल ख़याल न था कि शादी होने पर ही किसी से हँसना-बोलना मुनासिब है। वही जी का आ जाना शादी समझती थी। चाहे वह अभी तक कुँआरी ही क्यों न हो मगर मेरा जी नहीं चाहता कि मैं उसे कुँआरी लिखूँ क्योंकि उसकी चालचलन ठीक न थी। यह सभी कोई जानते हैं कि खराब चाल-चलन रहने का नतीजा बहुत बुरा होता है मगर माधवी के दिल में इसका गुमान भी न था।

इन्द्रजीतसिंह के रोकने से माधवी अपने मामूली तौर पर जहाँ वह रोज़ जाती थी आज न गयी मगर इस सबब से उसका जी बेचैन था। आधी रात के बाद जब इन्द्रजीतसिंह गहरी नींद में सो रहे थे, वह अपनी चारपाई से उठी और जहाँ रोज़ जाती थी चली गयी, हाँ आने में उसे आज बहुत देर लगी। इसी बीच इन्द्रजीतसिंह की आँख खुली और माधवी का पलँग खाली देख उन्हें निश्चय हो गया कि आज भी वह अपने मामूली ठिकाने पर ज़रूर गयी है।

वह कौन ऐसी जगह है जहाँ बिना गये माधवी का जी नहीं मानता और ऐसा करने से वह एक दिन भी अपने को क्यों नहीं रोक सकती? इसी सोच-विचार में इन्द्रजीतसिंह को फिर नींद न आयी और वह बराबर जागते ही रह गये। जब माधवी आयी तब वे जाग रहे थे मगर इस तरह खुर्राटे भरने लगे कि माधवी को उनके जागते रहने का ज़रा भी गुमान न हुआ।

इसी सोच-विचार और दाँव-घात में कई दिन बीत गये और इन्द्रजीतसिंह ने उनका शाम का जाना बिल्कुल रोक दिया। वह अब भी आधी रात को बराबर जाया करती और सुबह होने के पहिले ही लौट आती।

एक दिन रात को इन्द्रजीतसिंह खूब होशियार रहे और किसी तरह अपनी आँख में नींद को न आने दिया, एक बारीक कपड़े से मुँह ढँके चारपाई पर लेटे धीरे-धीरे खुर्राटे लेते रहे।

आधी रात के बाद माधवी अपने पलँग पर से उठी और धीरे-धीरे इन्द्रजीतसिंह के पास आकर कुछ देर तक देखती रही। जब उसे निश्चय हो गया कि वह सो रहे हैं तब उसने अपने आँचल के साथ बँधी ताली से एक अलमारी खोली और उसमें से एक लम्बी चाभी निकाल फिर इन्द्रजीतसिंह के पास आयी तथा कुछ देर तक खडी़ रह कर वह सो रहे हैं इस बात का निश्चय कर लिया। इसके बाद उसने वह शमादान गुल कर दिया जो एक तरफ़ खूबसूरत चौकी के ऊपर जल रहा था।

माधवी की यह सब कार्रवाई इन्द्रजीतसिंह देख रहे थे। जब उसने शमादान गुल किया और कमरे के बाहर जाने लगी, वह अपनी चारपाई से उठ खड़े हुए और दबे कदम तथा अपने को हर तरह से छिपाये हुए उसके पीछे रवाना हुए।

सोनेवाले कमरे से बाहर निकल माधवी एक दूसरी कोठरी के पास पहुँची और उसी चाभी से जो उसने अलमारी में से निकाली थी उस कोठरी का ताला खोला मगर अन्दर जाकर फिर बन्द कर लिया। कु्अर इन्द्रजीतसिंह इससे ज़्यादे कुछ न देख सके और अफ़सोस करते हुए उसी कमरे की तरफ़ लौटे, जिसमें उनका पलँग था।

अभी कमरे के दरवाज़े की तरफ़ पहुँचे भी न थे कि पीछे से किसी ने उनके मोढ़े पर हाथ रक्खा। वे चौंके और पीछे फिरकर देखने लगे। एक औरत नज़र पड़ी मगर उसे किसी तरह पहिचान न सके। उस औरत ने हाथ के इशारे से उन्हें मैदान की तरफ़ चलने के लिए कहा और इन्द्रजीतसिंह भी बेखटके उसके पीछे मैदान में दूर तक चले गये। वह औरत एक जगह खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘क्या तुम मुझे पहिचान सकते हो?’’ इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, तुम्हारी-सी काली औरत तो आज तक मैंने देखी ही नहीं!’’

समय अच्छा था, आसमान पर बादल के टुकड़े इधर-उधर घूम रहे थे. चन्द्रमा निकला हुआ था जो कभी-कभी बादलों में छिप जाता और थोड़ी ही देर में फिर साफ़ दिखायी देता था। वह औरत बहुत ही काली थी और उसके कपड़े भी गीले थे। इन्द्रजीतसिंह उसे पहिचान न सके, तब उसने अपना बाजू खोला और एक जख्म का दाग़ उन्हें दिखाकर फिर पूछा, ‘‘क्या अब भी तुम मुझे नहीं पहिचान सकते?’’

इन्द्र : (खुश होकर) क्या मैं तुम्हें चाची कहकर पुकार सकता हूँ?’’

औरत : हाँ बेशक पुकार सकते हो।

इन्द्र : अब मेरी जान बची, अब मैं समझा कि यहाँ से निकल भागूँगा।

औरत : अब तो तुम यहाँ से बखूबी निकल जा सकते हो क्योंकि जिस राह से माधवी जाती है वह तुमने देख ही लिया है और उस जगह को भी बखूबी जान गये होगे, जहाँ वह ताली रखती है, मगर ख़ाली निकल भागने में मज़ा नहीं। मैं चाहती हूँ कि इसके साथ ही कुछ फ़ायदा भी हो। आख़िर मेरा यहाँ आना ही किस काम का होगा और उस मेहनत का नतीजा भी क्या निकलेगा जो तुम्हारा पता लगाने के लिए हम लोगों ने की है? सिवाय इसके तुम यह भी क्योंकर जान सकते हो कि माधवी कहाँ जाती है और क्या करती है?

इन्द्र : हाँ बेशक, इस तरह तो सिवाय निकल भागने के और कोई फ़ायदा नहीं हो सकता, फिर जो हुक़्म करो मैं तैयार हूँ।

औरत : जब माधवी उस राह से बाहर जाये तो उसके पीछे हो जाने से उसका सब हाल मालूम होगा और हमारा काम भी निकलेगा।

इन्द्र : मगर यह कैसे हो सकेगा? वह तो कोठरी के अन्दर जाते ही ताला बन्द कर लेती है।

औरत : हाँ सो ठीक है, मगर तुमने देखा होगा कि उस दरवाज़े के बीचोबीच में ताला जड़ा है, जिसे खोलकर वह अन्दर गयी और फिर उसी ताले को भीतर से बन्द कर लिया।

इन्द्र : मैंने अच्छी तरह ख़याल नहीं किया।

औरत : मैं बखूबी देख चुकी हूँ, उस ताले में बाहर-भीतर दोनों तरफ़ से ताली लगती है।

इन्द्र : ख़ैर इससे मतलब?

औरत : मतलब यही है कि अगर इसी तरह की एक ताली हमारे पास भी हो तो उसके पीछे जाने का अच्छा मौका मिले।

इन्द्र : अगर ऐसा हो तो क्या बात!

औरत : यह कोई बड़ी बात नहीं है, जहाँ वह ताली रखती है वह जगह तो तुम्हें मालूम ही होगी?

इन्द्र : हाँ मालूम है।

औरत : बस तो मुझे वह जगह बता दो और तुम आराम करो, मैं कल आकर उस ताली का साँचा ले जाऊँगी। और परसों उसी तरह की दूसरी ताली बना लाऊँगी।

जहाँ ताली रहती थी उस जगह का पता पूछकर, वह काली औरत चली गयी और इन्द्रजीतसिंह अपने पलँग पर जाकर सो रहे।


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