श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
॥ श्रीगणेशाय नमः।
श्रीजानकीवल्लभो विजयते।
श्रीरामचरितमानस
| षष्ठ सोपान |
(लङ्काकाण्ड)
श्लोक
श्रीजानकीवल्लभो विजयते।
श्रीरामचरितमानस
| षष्ठ सोपान |
(लङ्काकाण्ड)
श्लोक
मंगलाचरण
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं
कालमत्तेभसिंह योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं
गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं
ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं
सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥१॥
कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, कालरूपी
मतवाले हाथी के लिये सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के
द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे,
देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता
(रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुन्दर श्याम, कमलके-से नेत्रवाले, पृथ्वीपति
(राजा) के रूप में परमदेव श्रीरामजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥१॥ कालमत्तेभसिंह योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं
गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं
ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं
सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥१॥
शोन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं
कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं
गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्॥२॥
शङ्ख और चन्द्रमाकी-सी कान्ति के अत्यन्त सुन्दर शरीरवाले, व्याघ्रचर्म के
वस्त्रवाले, काल के समान [अथवा काले रंगके] भयानक सर्पों का भूषण धारण करने
वाले, गङ्गा और चन्द्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप-समूह का नाश
करनेवाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करनेवाले
पार्वतीपति वन्दनीय श्रीशङ्करजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥२॥ कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं
कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं
गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्॥२॥
- मंगलाचरण
- नल-नीलद्वारा पुल का बाँधना, श्रीरामजी द्वारा श्री रामेश्वर की स्थापना
- श्रीरामजी का सेनासहित समुद्र पार उतरना, सुबेल पर्वतपर निवास, रावण की व्याकुलता
- रावण को मन्दोदरी का समझाना, रावण-प्रहस्त-संवाद
- सुबेल पर श्रीरामजी की झाँकी और चन्द्रोदय वर्णन
- श्रीरामजी के बाण से रावणके मुकुट-छत्रादि का गिरना
- मन्दोदरी का फिर से रावण को समझाना और श्रीराम की महिमा कहना
- अंगदजी का लंका जाना और रावण की सभा में अंगद-रावण-संवाद
- रावण को पुनः मन्दोदरी का समझाना
- अंगद-राम-संवाद
- युद्धारम्भ
- माल्यवंत का रावण को समझाना
- लक्ष्मण-मेघनाद-युद्ध, लक्ष्मणजी को शक्ति लगना
- हनुमानजी का सुषेण वैद्य को लाना एवं संजीवनी के लिए जाना, कालनेमि-रावण-संवाद, मकरी-उद्धार, कालनेमि-उद्धार
- भरतजी के बाण से हनुमान का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान-संवाद
- श्रीरामजी की प्रलापलील,हनुमानजी का लौटना, लक्ष्मणजी का उठ बैठना
- रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण-संवाद
- कुम्भकर्ण-युद्ध और उसकी परमगति
- मेघनाद का युद्ध, भगवान राम का लीला से नागपाश में बंधना
- मेघनाद-यज्ञ-विध्वंस, युद्ध और मेघनाद का उद्धार
- रावण का युद्ध के लिए प्रस्थान और श्रीरामजी का विजय-रथ तथा वानर-राक्षसों का युद्ध
- लक्ष्मण-रावण-युद्ध
- रावण-मूर्च्छा, रावण-यज्ञ-विध्वंस, राम-रावण युद्ध
- इन्द्र का श्रीरामजी के लिए रथ भेजना, राम-रावण-युद्ध
- रावण का विभीषण पर शक्ति छोड़ना, भगवान श्रीराम का शक्ति को अपने ऊपर लेना, विभीषण-रावण-युद्ध
- रावण हनुमान-युद्ध, रावण का माया रचना, भगवान राम द्वारा माया नाश
- घोर युद्ध, रावण की मूर्च्छा
- त्रिजटा सीता-संवाद
- राम-रावण-युद्ध, रावण वध-उद्धार, सर्वत्र जयध्वनि
- मन्दोदरी-विलाप, रावण की अन्त्येष्टि-क्रिया
- विभीषण का राज्याभिषेक
- हनुमानजी का सीताजी को कुशल समाचार देना, सीताजी का आगमन और अग्नि-परीक्षा
- देवताओं की स्तुति, इन्द्र की अमृत-वर्षा
- विभीषण की प्रार्थना, भगवान श्रीराम के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोध
- विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना
- पुष्पकविमान पर चढ़कर श्रीसीतारामजी का अवध के लिए प्रस्थान
- श्रीरामचरित की महिमा
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥३॥
जो सत्पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों
को दण्ड देनेवाले हैं, वे कल्याणकारी श्रीशम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥३॥
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥३॥
दो०- लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड।
लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्रीरामजी को क्यों नहीं भजता?
सो०- सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥
समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्रीरामजी ने मन्त्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलम्ब किसलिये हो रहा है ? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भवसागर तरहिं।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भवसागर तरहिं।
जाम्बवान ने हाथ जोड़कर कहा-हे सूर्यकुल के ध्वजा-स्वरूप (कीर्तिको बढ़ानेवाले) श्रीरामजी! सुनिये। हे नाथ! [सबसे बड़ा] सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसाररूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
यह लघु जलधि तरत कति बारा।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥
फिर यह छोटा-सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्रीहनुमान जी ने कहा---प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था॥१॥
तव रिपु नारि रुदन जल धारा।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥
परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान जी की यह अत्युक्ति (अलङ्कारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्रीरघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गये॥२॥
जामवंत बोले दोउ भाई।
नल नीलहि सब कथा सुनाई।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
नल नीलहि सब कथा सुनाई।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
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