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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2094
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

रावण-मूर्च्छा, रावण-यज्ञ-विध्वंस, राम-रावण युद्ध



दो०- उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥८४॥

वहाँ (लंका में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यन्त अज्ञानी हठवश श्रीरघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है।। ८४॥

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई।
सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई।
नाथ करइ रावन एक जागा।
सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥

यहाँ विभीषणजीने सब खबर पायी और तुरंत जाकर श्रीरघुनाथजीको कह सुनायी कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होनेपर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥१॥

पठवहु नाथ बेगि भट बंदर।
करहिं बिधंस आव दसकंधर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए।
हनुमदादि अंगद सब धाए॥


हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिये; जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रात:काल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान और अंगद आदि सब [प्रधान वीर दौड़े॥२॥

कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका।
पैठे रावन भवन असंका॥
जग्य करत जबहीं सो देखा।
सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥


वानर खेलसे ही कूदकर लंकापर जा चढ़े और निर्भय रावणके महलमें जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरोंको बहुत क्रोध हुआ॥३॥

रन ते निलज भाजि गृह आवा।
इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥
अस कहि अंगद मारा लाता।
चितव न सठ स्वारथ मन राता॥

[उन्होंने कहा-] अरे ओ निर्लज्ज ! रणभूमिसे घर भाग आया और यहाँ आकर बगुलेका-सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगदने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्टका मन स्वार्थमें अनुरक्त था॥४॥

छं०- नहिं चितव जब करिकोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥


जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतोंसे पकड़कर [काटने और] लातोंसे मारने लगे। स्त्रियोंको बाल पकड़कर घरसे बाहर घसीट लाये, वे अत्यन्त ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण कालके समान क्रोधित होकर उठा और वानरोंको पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीचमें वानरोंने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मनमें हारने लगा (निराश होने लगा)।

दो०- जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर क्रुद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥८५॥


यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजीके पास आ गये। तब रावण जीनेकी आशा छोड़कर क्रोधित होकर चला॥ ८५॥

चलत होहिं अति असुभ भयंकर।
बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।
भयउ कालबस काहु न माना।
कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥

चलते समय अत्यन्त भयङ्कर अमङ्गल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरोंपर बैठने लगे। किन्तु वह कालके वश था, इससे किसी भी अपशकुनको नहीं मानता था। उसने कहा-युद्ध का डंका बजाओ॥१॥

चली तमीचर अनी अपारा।
बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें।
सलभ समूह अनल कहँ जैसें।

निशाचरोंकी अपार सेना चली। उसमें बहुत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर [जलने के लिये] दौड़ते हैं॥ २॥

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही।
दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही।
अतिसय दुखित होति बैदेही॥

इधर देवताओंने स्तुति की कि हे श्रीरामजी ! इसने हमको दारुण दुःख दिये हैं। अब आप इसे [अधिक] न खेलाइये। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥३॥

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना।
उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ़ बाँधे माथे।
सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे।

देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुसकराये। फिर श्रीरघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तकपर जटाओं के जूड़े को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूंथे हुए शोभित हो रहे हैं॥४॥

अरुन नयन बारिद तन स्यामा।
अखिल लोक लोचनाभिरामा।
कटितट परिकर कस्यो निषंगा।
कर कोदंड कठिन सारंगा॥

लाल नेत्र और मेघके समान श्याम शरीरवाले और सम्पूर्ण लोकोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले हैं। प्रभुने कमरमें फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथमें कठोर शार्ङ्गधनुष ले लिया॥५॥

छं०-सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे।


प्रभु ने हाथ में शार्ङ्गधनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुन्दर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छातीपर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।।

दो०- सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥८६॥

[भगवानकी] शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे। और शोभा, शक्ति और गुणोंके धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो [ऐसा पुकारने लगे]॥८६॥

एहीं बीच निसाचर अनी।
कसमसात आई अति घनी॥
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा।
प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥

इसी बीचमें निशाचरोंकी अत्यन्त घनी सेना कसमसाती हुई (आपसमें टकराती हुई) आयी। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार [उसके] सामने चले जैसे प्रलयकालके बादलोंके समूह हों॥१॥

बहु कृपान तरवारि चमंकहिं।
जनु दहँ दिसि दामिनी दमंकहिं।
गज रथ तुरग चिकार कठोरा।
गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥

बहुत-से कृपाण और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओंमें बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ोंका कठोर चिग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों॥२॥

कपि लंगूर बिपुल नभ छाए।
मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा।
बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥

वानरोंकी बहुत-सी पूँछे आकाशमें छायी हुई हैं। [वे ऐसी शोभा दे रही हैं] मानो सुन्दर इन्द्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जलकी धारा हो। बाणरूपी बूंदोंकी अपार वृष्टि हुई। ३।।

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा।
बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई।
घायल भै निसिचर समुदाई॥

दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। श्रीरघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, [जिससे] राक्षसों की सेना घायल हो गयी॥४॥

लागत बान बीर चिक्करहीं।
घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं।
स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी।
सोनित सरि कादर भयकारी॥

बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं। उनके शरीरोंसे ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वतके भारी झरनोंसे जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकोंको भय उत्पन्न करनेवाली रुधिरकी नदी बह चली॥५॥

छं०- कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥


डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यन्त अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिये भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदीके जलजन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं; धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत-से कछुवे हैं।

दो०- बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥८७॥

वीर पृथ्वीपर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारेके वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओंके मनमें सुख होता है।। ८७॥

मज्जहिं भूत पिसाच बेताला।
प्रमथ महा झोटिंग कराला॥
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं।
एक ते छीनि एक लै खाहीं॥

भूत, पिशाच और बैताल, बड़े-बड़े झोंटोंवाले महान् भयङ्कर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदीमें स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक दूसरेसे छीनकर खा जाते हैं॥१॥

एक कहहिं ऐसिउ सौंधाई।
सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे।
जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे।

एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्यो! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तटपर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरनेके समय आधे जलमें रखे जाते हैं) पड़े हों।। २।।

बैंचहिं गीध आँत तट भए।
जनु बंसी खेलत चित दए।
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं।
जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं।

गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछलीमार नदी-तटपर से चित्त लगाये हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत-से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उनपर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौकाक्रीड़ा) खेल रहे हों॥३॥

जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं।
भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं।
चामुंडा नाना बिधि गावहिं।।

योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकारसे गा रही हैं।॥ ४॥

जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं।
खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं।।
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं।
सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥
 
गीदड़ों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक दूसरे को डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे हैं॥५॥

छं०- बोल्लहिं जो जय जय मुंड रूंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए।

मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिरके दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं; उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओंको ढहा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजीके बलसे दर्पित हुए वानर राक्षसोंके झुण्डोंको मसले डालते हैं। श्रीरामजीके बाणसमूहोंसे मरे हुए योद्धा लड़ाईके मैदानमें सो रहे हैं।

दो०- रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥८८॥

रावणने हृदयमें विचारा कि राक्षसोंका नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर भालू बहुत हैं, इसलिये मैं अब अपार माया रचूँ॥ ८८॥

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