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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2094
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

युद्धारम्भ



तब कपीस रिच्छेस बिभीषन।
सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा।
चारि अनी कपि कटकु बनावा॥

तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान और विभीषणने हृदयमें सूर्यकुलके भूषण श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरोंकी सेनाके चार दल बनाये॥२॥

जथाजोग सेनापति कीन्हे।
जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए।
सुनि कपि सिंघनाद करि धाए॥

और उनके लिये यथायोग्य (जैसे चाहिये वैसे) सेनापति नियुक्त किये। फिर सब यूथपतियोंको बुला लिया और प्रभुका प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर सिंहके समान गर्जना करके दौड़े॥३॥

हरषित राम चरन सिर नावहिं।
गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा।
जय रघुबीर कोसलाधीसा॥

वे हर्षित होकर श्रीरामजीके चरणोंमें सिर नवाते हैं और पर्वतोंके शिखर ले लेकर सब वीर दौड़ते हैं। 'कोसलराज श्रीरघुवीरजीकी जय हो' पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं॥४॥

जानत परम दुर्ग अति लंका।
प्रभु प्रताप कपि चले असंका।
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी।
मुखहिं निसान बजावहिं भेरी॥

लङ्काको अत्यन्त श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे निडर होकर चले। चारों ओरसे घिरी हुई बादलोंकी घटाकी तरह लङ्काको चारों दिशाओंसे घेरकर वे मुँहसे ही डंके और भेरी बजाने लगे॥५॥

दो०- जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव॥३९॥

महान् बलकी सीमा वे वानर-भालू सिंहके समान ऊँचे स्वरसे श्रीरामजीकी जय', 'लक्ष्मणजीकी जय', 'वानरराज सुग्रीवकी जय'---ऐसी गर्जना करने लगे॥३९।।

लंकाँ भयउ कोलाहल भारी।
सुना दसानन अति अहँकारी।
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई।
बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥

लङ्कामें बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यन्त अहङ्कारी रावणने उसे सुनकर कहा-वानरोंकी ढिठाई तो देखो ! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसोंकी सेना बुलायी॥१॥

आए कीस काल के प्रेरे।
छुधावंत सब निसिचर मेरे॥
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा।
गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा॥

बंदर कालकी प्रेरणासे चले आये हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाताने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्खने अट्टहास किया (वह बड़े जोरसे ठहाका मारकर हँसा)॥२॥

सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू।
धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना।
जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥

[और बोला-] हे वीरो ! सब लोग चारों दिशाओंमें जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर खाओ। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! रावणको ऐसा अभिमान था जैसे टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपरकी ओर करके सोता है [मानो आकाशको थाम लेगा]॥३॥

चले निसाचर आयसु मागी।
गहि कर भिंडिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचंडा।
सूल कृपान परिघ गिरिखंडा॥

आज्ञा माँगकर और हाथोंमें उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दुधारी तलवार, परिघ और पहाड़ोंके टुकड़े लेकर राक्षस चले॥४॥

जिमि अरुनोपल निकर निहारी।
धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा।
तिमि धाए मनुजाद अबूझा।

जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरोंका समूह देखकर उसपर टूट पड़ते हैं, [पत्थरोंपर लगनेसे] चोंच टूटनेका दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े॥५॥

दो०- नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर॥४०॥

अनेकों प्रकारके अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किये करोड़ों बलवान् और रणधीर राक्षस वीर परकोटेके कँगूरोंपर चढ़ गये॥ ४०॥

कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे।
मेरु के संगनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ।
सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।

वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, [जिनकी] ध्वनि सुनकर योद्धाओंके मनमें [लड़नेका] चाव होता है॥१॥

बाजहिं भेरि नफीरि अपारा।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा।
अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।

अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, [जिन्हें] सुनकर कायरोंके हृदयमें दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यन्त विशाल शरीरवाले महान् योद्धा वानर और भालुओंके ठट्ट (समूह) देखे॥२॥

धावहिं गनहिं न अवघट घाटा।
पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं।
दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥

[देखा कि] वे रीछ-वानर दौड़ते हैं; औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियोंको कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ोंको फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतोंसे ओंठ काटते और खूब डपटते हैं।। ३॥

उत रावन इत राम दोहाई।
जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं।
कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥

उधर रावणकी और इधर श्रीरामजीकी दोहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गयी। राक्षस पहाड़ोंके ढेर-के-ढेर शिखरोंको फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हींकी ओर चलाते हैं॥ ४॥

छं०-धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए।


प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतोंके टुकड़े ले-लेकर किलेपर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसोंके पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वीपर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चञ्चल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्तीसे उछलकर किलेपर चढ़-चढ़कर गये और जहाँ-तहाँ महलोंमें घुसकर श्रीरामजीका यश गाने लगे।

दो०- एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ॥४१॥

फिर एक-एक राक्षसको पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे [राक्षस] योद्धा-इस प्रकार वे [किलेपरसे] धरतीपर आ गिरते हैं। ४१॥

राम प्रताप प्रबल कपिजूथा।
मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा।
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर।
जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥

श्रीरामजीके प्रतापसे प्रबल वानरोंके झुंड राक्षस योद्धाओंके समूह-के-समूह योद्धाओंको मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किलेपर चढ़ गये और प्रतापमें सूर्यके समान श्रीरघुवीरकी जय बोलने लगे॥१॥

चले निसाचर निकर पराई।
प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ पुर भारी।
रोवहिं बालक आतुर नारी॥

राक्षसोंके झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोरकी हवा चलनेपर बादलोंके समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लङ्का नगरीमें बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी [असमर्थताके कारण] रोने लगे॥२॥

सब मिलि देहिं रावनहि गारी।
राज करत एहिं मृत्यु हँकारी।
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना।
फेरि सुभट लंकेस रिसाना॥

सब मिलकर रावणको गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्युको बुला लिया। रावणने जब अपनी सेनाका विचलित होना कानोंसे सुना, तब [भागते हुए] योद्धाओंको लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥३॥

जो रन बिमुख सुना मैं काना।
सो मैं हतब कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना।
समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥

मैं जिसे रणसे पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दुधारी तलवारसे मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँतिके भोग किये और अब रणभूमिमें प्राण प्यारे हो गये!॥४॥

उग्र बचन सुनि सकल डेराने।
चले क्रोध करि सुभट लजाने।
सन्मुख मरन बीर कै सोभा।
तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा।

रावणके उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गये और लज्जित होकर क्रोध करके युद्धके लिये लौट चले। रणमें [शत्रुके] सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरनेमें ही वीरकी शोभा है। [यह सोचकर] तब उन्होंने प्राणोंका लोभ छोड़ दिया॥५॥

दो०- बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारि॥४२॥

बहुत-से अस्त्र-शस्त्र धारण किये सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलोंसे मार-मारकर सब रीछ-वानरोंको व्याकुल कर दिया॥ ४२॥

भय आतुर कपि भागन लागे।
जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता।
कहँ नल नील दुबिद बलवंता॥

[शिवजी कहते हैं-] वानर भयातुर होकर (डरके मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर [वे ही] जीतेंगे। कोई कहता है-अंगद-हनुमान कहाँ हैं ? बलवान् नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?॥१॥

निज दल बिकल सुना हनुमाना।
पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई।
टूट न द्वार परम कठिनाई।

हनुमानजीने जब अपने दलको विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान् पश्चिम द्वारपर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी॥२॥

पवनतनय मन भा अति क्रोधा।
गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा।
गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥

तब पवनपुत्र हनुमान जीके मनमें बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे कालके समान योद्धा बड़े जोरसे गरजे और कूदकर लङ्काके किलेपर आ गये और पहाड़ लेकर मेघनादकी ओर दौड़े॥३॥

भंजेउ रथ सारथी निपाता।
ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना।
स्यंदन घालि तुरत गृह आना।

रथ तोड़ डाला, सारथिको मार गिराया और मेघनादकी छातीमें लात मारी। दूसरा सारथि मेघनादको व्याकुल जानकर, उसे रथमें डालकर, तुरंत घर ले आया॥४॥

दो०- अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल॥४३॥

इधर अंगदने सुना कि पवनपुत्र हनुमान किलेपर अकेले ही गये हैं, तो रणमें बाँके बालिपुत्र वानरके खेलकी तरह उछलकर किलेपर चढ़ गये॥४३॥

जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर।
राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई।
करहिं कोसलाधीस दोहाई॥

युद्धमें शत्रुओंके विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गये। हृदयमें श्रीरामजीके प्रतापका स्मरण करके दोनों दौड़कर रावणके महलपर जा चढ़े और कोसलराज श्रीरामजीकी दुहाई बोलने लगे॥१॥

कलस सहित गहि भवनु ढहावा।
देखि निसाचरपति भय पावा।
नारि बंद कर पीटहिं छाती।
अब दुइ कपि आए उतपाती।

उन्होंने कलशसहित महलको पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षसराज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथोंसे छाती पीटने लगी [और कहने लगी-] अबकी बार दो उत्पाती वानर [एक साथ] आ गये॥२॥

कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं।
रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं॥
पुनि कर गहि कंचन के खंभा।
कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा॥

वानरलीला करके (घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर यश सुनाते हैं। फिर सोनेके खंभोंको हाथोंसे पकड़कर उन्होंने [परस्पर] कहा कि अब उत्पात आरम्भ किया जाय॥३॥

गर्जि परे रिपु कटक मझारी।
लागे मर्दै भुज बल भारी॥
काहुहि लात चपेटन्हि केहू।
भजहु न रामहि सो फल लेहू॥

वे गर्जकर शत्रुकी सेनाके बीचमें कूद पड़े और अपने भारी भुजबलसे उसका मर्दन करने लगे। किसीकी लातसे और किसीकी थप्पड़से खबर लेते हैं और कहते हैं कि] तुम श्रीरामजीको नहीं भजते, उसका यह फल लो॥४॥

दो०- एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड॥४४॥

एकको दूसरेसे [रगड़कर] मसल डालते हैं और सिरोंको तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावणके सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं मानो दहीके कूँड़े फूट रहे हों॥४४॥

महा महा मुखिआ जे पावहिं।
ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा।
देहिं राम तिन्हह निज धामा।

जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभुके पास फेंक देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्रीरामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥१॥

खल मनुजाद द्विजामिष भोगी।
पावहिं गति जो जाचत जोगी।
उमा राम मृदुचित करुनाकर।
बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर।।


ब्राह्मणोंका मांस खानेवाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं [परन्तु सहजमें नहीं पाते]। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! श्रीरामजी बड़े ही कोमलहृदय और करुणाकी खान हैं। [वे सोचते हैं कि] राक्षस मुझे वैरभावसे ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥२॥

देहिं परम गति सो जियँ जानी।
अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी।
नर मतिमंद ते परम अभागी॥

ऐसा हृदयमें जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी ! कहो तो ऐसे कृपालु [और] कौन हैं? प्रभुका ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्यागकर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यन्त मन्दबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥३॥

अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा।
कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें।
मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसें॥

श्रीरामजीने कहा कि अङ्गद और हनुमान किलेमें घुस गये हैं। दोनों वानर लङ्कामें [विध्वंस करते] कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्रको मथ रहे हों॥४॥

दो०- भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत॥४५॥

भुजाओंके बलसे शत्रुकी सेनाको कुचलकर और मसलकर, फिर दिनका अन्त होता देखकर हनुमान और अङ्गद दोनों कूद पड़े और श्रम (थकावट) रहित होकर वहाँ आ गये जहाँ भगवान श्रीरामजी थे॥ ४५।।।

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए।
देखि सुभट रघुपति मन भाए।
राम कृपा करि जुगल निहारे।
भए बिगतश्रम परम सुखारे।

उन्होंने प्रभुके चरणकमलोंमें सिर नवाये। उत्तम योद्धाओंको देखकर श्रीरघुनाथजी मनमें बहुत प्रसन्न हुए। श्रीरामजीने कृपा करके दोनोंको देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गये॥१॥

गए जानि अंगद हनुमाना।
फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई।
धाए करि दससीस दोहाई॥

अङ्गद और हनुमानको गये जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसोंने प्रदोष (सायं) कालका बल पाकर रावणकी दुहाई देते हुए वानरोंपर धावा किया॥२॥

निसिचर अनी देखि कपि फिरे।
जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे।।
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी।
लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥

राक्षसोंकी सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गये। दोनों ही दल बड़े बलवान् हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर लड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते॥ ३॥

महाबीर निसिचर सब कारे।
नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा।
कौतुक करत लरत करि क्रोधा।

सभी राक्षस महान् वीर और अत्यन्त काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगोंके हैं। दोनों ही दल बलवान् हैं और समान बलवाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥४॥

प्राबिट सरद पयोद घनेरे।
लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकंपन अरु अतिकाया।
बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया।

- [राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं] मानो क्रमश: वर्षा और शरद्-ऋतुके बहुत-से बादल पवनसे प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियोंने अपनी सेनाको विचलित होते देखकर माया की॥५॥

भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा।
बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥

पलभरमें अत्यन्त अन्धकार हो गया। खून, पत्थर और राखकी वर्षा होने लगी॥६॥

दो०- देखि निबिड़तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउखभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥ ४६॥

दसों दिशाओंमें अत्यन्त घना अन्धकार देखकर वानरोंकी सेनामें खलबली पड़ गयी। एकको एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार कर रहे हैं॥४६॥

सकल मरमु रघुनायक जाना।
लिए बोलि अंगद हनुमाना।
समाचार सब कहि समुझाए।
सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥

श्रीरघुनाथजी सब रहस्य जान गये। उन्होंने अङ्गद और हनुमानको बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े॥१॥

पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा।
पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं।
ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥

फिर कृपालु श्रीरामजीने हँसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञानके उदय होनेपर [सब प्रकारके] सन्देह दूर हो जाते हैं॥२॥

भालु बलीमुख पाइ प्रकासा।
धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अंगद रन गाजे।
हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥

भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भयसे रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान और अङ्गद रणमें गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे॥ ३॥

भागत भट पटकहिं धरि धरनी।
करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं।
मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥

भागते हुए राक्षस योद्धाओंको वानर और भालू पकड़कर पृथ्वीपर दे मारते हैं। और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्रमें डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़ पकड़कर खा डालते हैं॥४॥

दो०- कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ॥४७॥

कुछ मारे गये, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़पर चढ़ गये। अपने बलसे शत्रुदलको विचलित करके रीछ और वानर [वीर] गरज रहे हैं॥४७॥

निसा जानि कपि चारिउ अनी।
आए जहाँ कोसला धनी॥
राम कृपा करि चितवा सबही।
भए बिगतश्रम बानर तबही॥

रात हुई जानकर वानरोंकी चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आयीं जहाँ कोसलपति श्रीरामजी थे। श्रीरामजीने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गये॥१॥

उहाँ दसानन सचिव हँकारे।
सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥
आधा कटकु कपिन्ह संघारा।
कहहु बेगि का करिअ बिचारा॥

वहाँ [लङ्कामें] रावणने मन्त्रियोंको बुलाया और जो योद्धा मारे गये थे उन सबको सबसे बताया। [उसने कहा-] वानरोंने आधी सेनाका संहार कर दिया ! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिये?॥२॥

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