लोगों की राय

श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


नल-नीलद्वारा पुल का बाँधना, श्रीरामजी द्वारा श्री रामेश्वर की स्थापना

जाम्बवान ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनायी [और कहा-] मन में श्रीरामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, [रामप्रताप से] कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥३॥

बोलि लिए कपि निकर बहोरी।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
कौतुक एक भालु कपि करहू॥

फिर वानरों के समूह को बुला लिया [और कहा- आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिये। अपने हृदय में श्रीरामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिये और सब भालू और वानर एक खेल कीजिये॥४॥

धावहु मर्कट बिकट बरूथा।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।
सुनि कपि भालु चले करि हूहा।
जय रघुबीर प्रताप समूहा॥

विकट वानरों के समूह (आप) दौड़ जाइये और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहोंको उखाड़ लाइये। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुंकार) करके और श्रीरघुनाथजी के प्रतापसमूह की [अथवा प्रताप के पुंज श्रीरामजी को] जय पुकारते हुए चले॥५॥

दो०- अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥१॥


बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही [उखाड़कर] उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर [सुन्दर] सेतु बनाते हैं॥१॥

सैल बिसाल आनि कपि देहीं।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥


वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यन्त सुन्दर रचना देखकर कृपासिन्धु श्रीरामजी हँसकर वचन बोले-॥१॥

परम रम्य उत्तम यह धरनी।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना।
मोरे हृदयँ परम कलपना।


यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान् संकल्प है॥२॥

सुनि कपीस बहु दूत पठाए।
मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।

श्रीरामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत-से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आये। शिवलिङ्ग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया। [फिर भगवान बोले-] शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥३॥

सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।
संकर बिमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।

जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शङ्करजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥४॥

दो०- संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥२॥

जिनको शङ्करजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं; एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास [बनना चाहते हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥२॥

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।
सो साजुन्य मुक्ति नर पाइहि॥


जो मनुष्य [मेरे स्थापित किये हुए इन] रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जायँगे। और जो गङ्गाजल लाकर इनपर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात् मेरे साथ एक हो जायगा)॥१॥

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।

जो छल छोडकर और निष्काम होकर श्रीरामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शकरजी मेरी भक्ति देंगे। और जो मेरे बनाये सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जायगा।॥२॥

राम बचन सब के जिय भाए।
मुनिबर निज निज आश्रम आए।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती।
संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥

श्रीरामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आये। [शिवजी कहते हैं-] हे पार्वती! श्रीरघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागतपर सदा प्रीति करते हैं॥३॥

बाँधा सेतु नील नल नागर।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई।
भए उपल बोहित सम तेई॥

चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्रीरामजी की कृपा से उनका यह [उज्वल] यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान [स्वयं तैरनेवाले और दूसरों को पार ले जानेवाले] हो गये॥४॥

महिमा यह न जलधि कइ बरनी।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥

यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गयी है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥५॥

दो०- श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥३॥

श्रीरघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्रपर तैर गये। ऐसे श्रीरामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे [निश्चय ही] मन्दबुद्धि हैं॥ ३॥

बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
देखि कृपानिधि के मन भावा।।
चली सेन कछु बरनि न जाई।
गर्जहिं मर्कट भट समुदाई।

नल-नीलने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखनेपर वह कृपानिधान श्रीरामजीके मनको [बहुत ही अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरोंके समुदाय गरज रहे हैं॥१॥

सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई।
चितव कृपाल सिंधु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा।
प्रगट भए सब जलचर बूंदा॥

कृपालु श्रीरघुनाथजी सेतुबन्ध के तटपर चढ़कर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणाके मूल) प्रभु के दर्शन के लिये सब जलचरों के समूह प्रकट हो गये (जल के ऊपर निकल आये)॥२॥

मकर नक्र नाना झष ब्याला।
सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं।
एकन्ह के डर तेपि डेराहीं॥

बहुत तरह के मगर, नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे जो उनको भी खा जायँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे॥३॥

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे।
मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी।
मगन भए हरि रूप निहारी॥


वे सब [वैर-विरोध भूलकर] प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं: सब सुखी हो गये। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखायी पड़ता। वे सब भगवान का रूप देखकर [आनन्द और प्रेम में] मग्न हो गये॥४॥

चला कटकु प्रभु आयसु पाई।
को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥


प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर-सेना की विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है ?॥ ५॥

दो०- सेतु बंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं॥४॥

सेतुबन्ध पर बड़ी भीड़ हो गयी, इससे कुछ वानर आकाशमार्ग से उड़ने लगे और दूसरे [कितने ही] जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं॥४॥

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई।
बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥


कृपालु रघुनाथजी [तथा लक्ष्मणजी] दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्रीरघुवीर सेनासहित समुद्र के पार हो गये। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती॥१॥

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login