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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीरामजी का सेनासहित समुद्र पार उतरना, सुबेल पर्वतपर निवास, रावण की व्याकुलता

सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा।
सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए।
सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए॥

प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुन्दर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े॥२॥

सब तरु फरे राम हित लागी।
रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।
खाहि मधुर फल बिटप हलावहिं।
लंका सन्मुख सिखर चलावहिं॥

श्रीरामजीके हित (सेवा) के लिये सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु-समयकी गतिको छोड़कर फल उठे। वानर-भालू मीठे-मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षोंको हिला रहे हैं और पर्वतोंके शिखरोंको लङ्काकी ओर फेंक रहे हैं॥३॥

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं।
घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना।
कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥

घूमते-फिरते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभुका सुयश कहकर [अथवा कहलाकर] तब उसे जाने देते हैं॥ ४॥

जिन्ह कर नासा कान निपाता।
तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना।
दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥

जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गये, उन्होंने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र [पर सेतु] का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखों से बोल उठा-॥५॥

दो०- बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस॥५॥

वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥५॥

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