लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2094
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

राम-रावण-युद्ध, रावण वध-उद्धार, सर्वत्र जयध्वनि



हा राम! हा रघुनाथ! पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सबका बल तोड़कर रावणने फिर दूसरी माया रची॥६॥

प्रगटेसि बिपुल हनुमान।
धाए गहे पाषान।
तिन्ह रामु घेरे जाइ।
चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥

उसने बहुत-से हनुमान प्रकट किये, जो पत्थर लिये दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर श्रीरामचन्द्रजीको जा घेरा॥७॥

मारहु धरहु जनि जाइ।
कटकटहिं पूँछ उठाइ।
दहँ दिसि लँगूर बिराज।
तेहिं मध्य कोसलराज॥

वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओंमें शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्रीरामजी हैं॥८॥

छं०- तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही।
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥


उनके बीचमें कोसलराजका सुन्दर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्षके लिये अनेक इन्द्रधनुषोंकी श्रेष्ठ बाड़ (घेरा) बनायी गयी हो। प्रभुको देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदयसे 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब श्रीरघुवीरने क्रोध करके एक ही बाणसे निमेषमात्रमें रावणकी सारी माया हर ली॥१॥

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे।
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥

माया दूर हो जानेपर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। श्रीरामजीने बाणोंके समूह छोड़े, जिनसे रावणके हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। श्रीरामजी और रावणके युद्धका चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पोंतक गाते रहें, तो भी वे उसका पार नहीं पा सकते॥२॥

दो०- ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥१०१ (क)॥

उसी चरित्रके कुछ गुणगण मन्दबुद्धि तुलसीदासने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थके अनुसार आकाशमें उड़ती है। १०१ (क)।

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥१०१ (ख)॥

सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गयीं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं; परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेशको देखकर (प्रभुको क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं। १०१ (ख)।

काटत बढ़हिं सीस समुदाई।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा।
राम बिभीषन तन तब देखा।

काटते ही सिरोंका समूह बढ़ जाता है जैसे प्रत्येक लाभपर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणकी ओर देखा॥१॥

उमा काल मर जाकी ईछा।
सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक।
प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक।

[शिवजी कहते हैं-] हे उमा! जिसकी इच्छामात्रसे काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवककी प्रीतिकी परीक्षा ले रहे हैं। [विभीषणजीने कहा-] हे सर्वज्ञ! हे चराचरके स्वामी! हे शरणागतके पालन करनेवाले! हे देवता और मुनियोंको सुख देनेवाले! सुनिये-॥२॥

नाभिकुंड पियूष बस याकें।
नाथ जिअत रावनु बल ताकें।
सुनत बिभीषन बचन कृपाला।
हरषि गहे कर बान कराला॥

इसके नाभिकुण्डमें अमृतका निवास है। हे नाथ! रावण उसीके बलपर जीता है। विभीषणके वचन सुनते ही कृपालु श्रीरघुनाथजीने हर्षित होकर हाथमें विकराल बाण लिये॥३॥

असुभ होन लागे तब नाना।
रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना।।
बोलहिं खग जग आरति हेतू।
प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥

उस समय नाना प्रकारके अशकुन होने लगे। बहुत-से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे। जगतके दुःख (अशुभ) को सूचित करनेके लिये पक्षी बोलने लगे। आकाशमें जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गये॥४॥

दस दिसि दाह होन अति लागा।
भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मंदोदरि उर कंपति भारी।
प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी॥

दसों दिशाओं में अत्यन्त दाह होने लगा (आग लगने लगी)। बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मन्दोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं॥५॥

छं०- प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥


मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाशसे वज्रपात होने लगे, अत्यन्त प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूलकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमङ्गल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाशमें देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओंको भयभीत जानकर कृपालु श्रीरघुनाथजी धनुषपर बाण सन्धान करने लगे।

दो०- बैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥१०२॥

कानोंतक धनुषको खींचकर श्रीरघुनाथजीने इकतीस बाण छोड़े। वे श्रीरामचन्द्रजीके बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥१०२॥

सायक एक नाभि सर सोषा।
अपर लगे भुज सिर करि रोषा।
लै सिर बाहु चले नाराचा।
सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥

एक बाण ने नाभि के अमृतकुण्ड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओंमें लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वीपर नाचने लगा॥१॥

धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।
तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी।
कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥

धड़ प्रचण्ड वेगसे दौड़ता है, जिससे धरती धंसने लगी। तब प्रभुने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। मरते समय रावण बड़े घोर शब्दसे गरजकर बोला-राम कहाँ हैं ? मैं ललकारकर उनको युद्धमें मारूँ !॥२॥

डोली भूमि गिरत दसकंधर।
छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई।
चापि भालु मर्कट समुदाई॥

रावणके गिरते ही पृथ्वी हिल गयी। समुद्र, नदियाँ, दिशाओंके हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३॥

मंदोदरि आगे भुज सीसा।
धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई।
देखि सुरन्ह दुंदुभी बजाई॥

रावणकी भुजाओं और सिरोंको मन्दोदरीके सामने रखकर राम-बाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्रीरामजी थे। सब बाण जाकर तरकसमें प्रवेश कर गये। यह देखकर देवताओंने नगाड़े बजाये॥४॥

तासु तेज समान प्रभु आनन।
हरणे देखि संभु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रांडा।
जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥

रावणका तेज प्रभुके मुखमें समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभरमें जय-जयकी ध्वनि भर गयी। प्रबल भुजदण्डोंवाले श्रीरघुवीरकी जय हो॥५॥

बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा।
जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥

देवता और मुनियोंके समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालुकी जय हो, मुकुन्दकी जय हो, जय हो!॥ ६॥

छं०- जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥


हे कृपाके कन्द! हे मोक्षदाता मुकुन्द ! हे [राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि] द्वन्द्वोंके हरनेवाले! हे शरणागतको सुख देनेवाले प्रभो! हे दुष्ट-दलको विदीर्ण करनेवाले! हे कारणोंके भी परम कारण! हे सदा करुणा करनेवाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्षमें भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमिमें श्रीरामचन्द्रजीके अङ्गोंने बहुत-से कामदेवोंकी शोभा प्राप्त की॥१॥

सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं।
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनी तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥


सिरपर जटाओंका मुकुट है, जिसके बीच-बीचमें अत्यन्त मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वतपर बिजलीके समूहसहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। श्रीरामजी अपने भुजदण्डोंसे बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीरपर रुधिरके कण अत्यन्त सुन्दर लगते हैं। मानो तमालके वृक्षपर बहुत-सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान् सुखमें मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥ २॥

दो०- कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बूंद।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥१०३॥

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने कृपादृष्टिकी वर्षा करके देवसमूहको निर्भय कर दिया। वानर भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्दकी जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥१०३॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book