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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
'देवत्व' की प्राप्ति के पीछे जो धारणा है आप उसे जानते ही होंगे। मनुष्य, देवता का शरीर क्यों पाना चाहता है? उसके पीछे मनुष्य की सुख पाने की वृत्ति जुड़ी हुई हे। मनुष्य संसार की वस्तुओं में सुख पाना चाहता है और उसे सुख मिलता भी है, चाहे वह अल्पकाल के लिये ही क्यों न हो! पर मनुष्य के सामने, भोगों को अपनी इच्छा के अनुकूल भोगने का एक दुष्परिणाम भी सामने आता है। भोगों के आधिक्य से मनुष्य के शरीर में कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे वह भोगों का सेवन नहीं कर पाता। मनुष्य-शरीर के साथ वृद्धावस्था और मृत्यु की समस्या भी जुड़ी हैं। व्यक्ति चाहता है कि मैं मनमाना भोग करूँ पर भोग से होने वाली कठिनाइयों से मुक्त भी रहूँ! इसलिए शास्त्र जब यह कहते हैं कि 'जो व्यक्ति सत्कर्म और पुण्य करेगा उसे देव-शरीर मिलेगा और देवता न तो कभी बूढ़े होते हैं और न ही उन्हें कोई रोग होता है, तो व्यक्ति सोचता है कि क्यों न देव शरीर प्राप्त कर मनचाहे भोगों का सुख उठाया जाय! इस प्रकार देवत्व की प्राप्ति के मूल में भोग करने की ही वृत्ति है। इस दृष्टि से दैत्यों और देवताओं की वृत्ति में कोई अंतर दिखायी नहीं देता।
संसार में भी जो लोग भोगों की निन्दा करते हुए दिखायी देते हैं, उनमें से अधिकांश व्यक्ति तो बस परंपरया निन्दा करने के लिये ही निंदा करते हैं, अन्यथा स्वयं उनको भी विषय-वस्तु में सुख का ही अनुभव होता है। बिरले व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जिनके द्वारा की गयी निंदा को हम सच्चे अर्थों में निन्दा मान सकते हैं। इतना प्रबल आकर्षण है भोगों का! मनुष्य इसके लिये सत्कर्म और पुण्य करता है और हम यह भी देखते हैं कि कभी-कभी दैत्य और राक्षस भी तपस्या और साधना करते हैं पर उनका भी उद्देश्य वही होता है- भोग के लिये शरीर की अमरता।
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