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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
कथा आती है कि जब भगवान् शंकर समाधि में लीन थे उस समय तारकासुर ने तपस्या की। उसे वरदान देने के लिये ब्रह्मा जी आये। दैत्यों की सबसे प्रिय माँग तो 'अमरता' ही है। वे चाहते हैं कि उनका शरीर कभी नष्ट न हो जिससे वे नाना प्रकार के भोगों को भोग सकें। तारकासुर जानता था कि यदि वह सीधे अमरता का वरदान माँगेगा तो ब्रह्मा जी कह देंगे - ''सृष्टि का नियम नहीं बदलता। लंबी आयु और विविध प्रकार के भोगादि तो प्राप्त हो सकते हैं, पर अमरत्व नहीं मिल सकता।''
दैत्यों की एक वृत्ति यह भी होती है कि वे जिसकी आराधना करते हैं उसे वे शक्तिमान् तो मानते हैं पर अपनी अपेक्षा बुद्धिमान् नहीं मानते। वे मानते हैं कि देवता जो वरदान देंगे वे निश्चित रूप से जीवन में पूरे होंगे, सच होंगे, पर उनकी यह भी धारणा है कि 'बुद्धिमानी से हम उनसे वह भी ले सकते हैं, जो वे नहीं देना चाहते।' ब्रह्माजी ने जब तारकासुर से पूछा - ''तुम क्या चाहते हो?'' तो उसने कहा- ''मेरी मृत्यु न हो!'' पितामह ब्रह्मा ने कहा- ''यह संभव नहीं है।'' तब उस समय तारकासुर ने चतुराई का प्रयोग करते हुए जो कहा उससे दैत्यों के चिंतन का एक रूप हमारे सामने आता है।
आनंद पाने की दो वृत्तियाँ दिखायी देती है। एक वृत्ति वह है कि जो व्यक्ति को ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। ऐसी मान्यता है कि व्यक्ति ज्यों-ज्यों शरीर, मन, बुद्धि आदि से ऊपर उठता जायगा, त्यों-त्यों उसके अन्तःकरण में आनंद का विस्तार होता चला जायगा और इस तरह वह क्रमश: ऊपर उठते हुए परमानन्द की स्थिति प्राप्त कर धन्य हो जायगा। इसे हम मुक्तावस्था या भगवान् से अभिन्नता की स्थिति भी कह सकते हैं। आनन्द पाने की दूसरी वृत्ति व्यक्ति को नीचे की दिशा में ले जाती है, उसे पतनोन्मुखी बना देती है। यदि शरीर के संदर्भ में भी देखें तो शरीर के उर्ध्व अंगों से आनंद पाने की चेष्टा मानो ऊपर की ओर उठने की वृत्ति का परिचायक है और अधोगामी अंगों से सुख पाने की चेष्टा मनुष्य की पतनोन्मुखी वृत्ति की ओर संकेत करती है। संसार में जिनकी वृत्ति निम्न धरातल की होती है, वही लोग अध: शरीर से सुख पाने की चेष्टा करते हैं।
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