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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
तारकासुर सोचता है कि शंकरजी तो साक्षात् ईश्वर हैं। उन्होंने कभी सतीजी को पत्नी के रूप में भले ही स्वीकार किया था, पर अब तो सतीजी की मृत्यु हो गयी है और भगवान् शंकर समाधि में चले गये हैं, अत: भविष्य में उनके विवाह की कोई सम्भावना ही नहीं है। क्योंकि जिसने ऊपर उठकर समाधि के द्वारा परमानन्द का अनुभव कर लिया वह नीचे उतरकर, शरीर के माध्यम से क्यों सुख पाने की चेष्टा करेगा। यह तारकासुर की तर्क-पद्धति है। इसलिए उसने ब्रह्माजी से कहा कि आप मुझे यह वरदान दीजिए कि 'मेरी मृत्यु यदि हो तो वह केवल शंकर जी के शरीर से उत्पन्न पुत्र के हाथों से ही हो।' वह सावधान था कि कहीं ऐसा न हो कि शंकरजी अपने संकल्प से ही पुत्र उत्पन्न कर दें और मैं मारा जाऊँ! ब्रह्माजी ने उसे यह वरदान दे दिया, इसीलिए बाद में तारकासुर की मृत्यु का उपाय बताते हुए वे कहते हैं कि -
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ। 1/82
इसकी मृत्यु शंकरजी के शरीर से उत्पन्न पुत्र के हाथों होगी।
तारकासुर का तर्क यह था कि 'ऐसी संतान तो विवाह करने के बाद ही उत्पन्न होती है। भगवान् शंकर में शरीर-सुख की कोई आकांक्षा है नहीं, इसलिए अब न तो वे विवाह करेंगे, न ही उनको कोई पुत्र उत्पन्न होगा और न ही मेरी मृत्यु होगी। तारकासुर का यह गणित भले ही ठीक न हो, पर उसकी यह धारणा बिलकुल ठीक है कि आनंद लेने की वृत्ति तो सबमें होती है। अंतर यही है कि कुछ लोग सूक्ष्म रूप से, शरीर और विषयों से ऊपर उठकर, आनंद लेते हैं और कुछ लोग इसे स्थूल रूप से शरीर के द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं। गोस्वामीजी ने इन दोनों वृत्तियों का चित्रण करते हुए एक बहुत बढ़िया दोहा लिखा है। बहुधा हमें भी यह दृश्य दिखायी देता है कि एक व्यक्ति वाटिका में जाता है और यदि उसे कोई फूल दिखायी दे जाय तो वह उसे तोड़ लेता है, नाक के पास ले जाकर क्षण-दो क्षण सूँघता है और फिर उसे मसलकर फेंक देता है। पर उसी वाटिका में एक दूसरा जीव दिखायी देता है - भौंरा, जो फूल पर बैठकर, बिना रंचमात्र भी उसे नष्ट किये, उसका रस ग्रहण करता है। दोहावली में गोस्वामीजी लिखते हैं कि एक ओर तो -
पिअहिं सुमन रस अलि विटप,
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