धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
कलियुग की विभीषिका और जटिलता की ओर उत्तरकाण्ड में मानसकार ने इंगित किया है। मनुष्य अपने आंतरिक दोष और त्रुटियों को देख नहीं पाता और इसीलिए पाप और उसके कारण उत्पन्न होने वाले दुःख का उन्मूलन नहीं हो पाता। व्यक्ति के सामने कठिनाई यह है कि वह पहचाने भी तो कैसे? सत्कर्म के वृक्ष की आड़ में जब पाप छिप जाते हैं, दान की आड़ में लोभ, सत्य की आड़ में अहंकार, नियम की आड़ में दंभ और अभेदज्ञान की आड़ में भोगलिप्सा की वृत्तियाँ छिपी रहती हैं। काम, क्रोध, लोभ आदि समस्त दोष मोह का सम्पूर्ण परिवार है जो प्रकट रूप में अधिकांश में हैं और बीज रूप में सबमें -
हहिं सबके लखि बिरलेन्हि पाए।
जब तक इनकी सत्ता बनी हुई है, उनके कारण सृजित दुःख, सुख, क्लेश, अशान्ति से व्यक्ति कभी ऊपर नहीं उठ सकता। उपाय क्या है? गोस्वामी जी लिखते हैं-
जो एहि भाँति बनइ संजोगा।।
विशेष रूप से कलियुग के संदर्भ में इस विभीषिका का सर्वसुलभ उपाय जिसको गोस्वामी जी सर्वाधिक महत्त्व देते हैं वह है- ''श्रीराम का नाम।'' बालकाण्ड में आदि से अंत तक भगवान् राम तथा उनके नाम की बड़ी सुंदर तुलना करते हैं। गोस्वामी जी का मानना है कि श्रीराम ने तो एक तपस्वी की पत्नी (अहल्या) का उद्धार किया। परन्तु उनके पवित्र रामनाम ने करोड़ों व्यक्तियों की कुमति को सुधारा। श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र की यज्ञरक्षा के हेतु ताड़का एवं उसके पुत्र सुबाहु का, सेना सहित क्षण-भर में ही वध कर दिया, परंतु 'नाम' भगवान् दास (भक्त) के दुःख एवं दुराशाओं को दोष समेत नष्ट कर देते हैं, जैसे सूर्यदेव रात्रि का। भगवान् श्रीराम ने स्वयं भगवान् शंकर के धनुष को तोड़ा परन्तु 'नाम' का प्रताप संसार के भयों को विनष्ट करता है। भगवान् श्रीराम जब दण्डक वन में पधारते हैं तो वह बड़ा ही शोभायमान हो जाता है, किन्तु 'नाम' भगवान् ने असंख्य मनुष्यों के मन पवित्र कर दिये। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा परन्तु 'नाम' तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है। श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को शुभगति प्रदान की, किन्तु 'नाम' ने तो अगणित दुष्टों का उद्धार किया। 'नाम' के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है। श्री रामजी ने तो सुग्रीव एवं विभीषण दो को ही अपनी शरण में रखा किन्तु 'नाम' ने तो अनेकों गरीबों पर कृपा की है। श्रीरामजी ने भालुओं तथा बंदरों की सेना बटोरकर समुद्र पर पुल बाँधने के हेतु कम परिश्रम नहीं किया, परन्तु 'नाम' लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण विचार करके देखें कि दोनों में कौन बड़ा है ? श्रीराघवेन्द्र ने कुटुम्ब सहित रावण का वध कर दिया तब श्री सीताजी के साथ अपने नगर (अयोध्या) में पदार्पण किया। श्रीरामजी राजा हुए और अयोध्या उनकी राजधानी हुई, देवता एवं मुनिगण सुन्दर वाणी से उनके गुण गाते हैं। परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक 'नाम' के स्मरण-मात्र से ही बिना परिश्रम 'मोह' की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं। 'नाम' के प्रसाद से उन्हें स्वप्न में भी कोई चिन्ता नहीं सताती।''
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