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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
मनुष्य शान्ति और सुख की खोज में सदैव सचेष्ट रहा है। इन्हें प्राप्त करने के लिये प्राचीन परम्परा में वर्णित जिन दो मार्गों की चर्चा की गयी है, वे हैं- प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में दोनों ही पक्षों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। मानस में भी कई प्रसंगों में इन पर विचार किया गया है।
सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ये चारों तथा नारदजी आदि अनेक नाम 'निवृत्ति परायण' महात्मा के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी मान्यता है कि 'संसार की वस्तुओं में कोई आनंद नहीं है और वे वस्तुएँ क्षणिक हैं, नाशवान् हैं। दूसरा मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है। इस परम्परा में भी अनेक महापुरुषों के नाम लिये जा सकते हैं। जहाँ व्यक्तिगत आत्मकल्याण की बात है, निवृत्ति मार्ग की प्रशंसा की गयी है। पर संसार में सृजन, निर्माण और विस्तार का क्रम निवृत्ति मार्ग से तो नहीं हो सकता। इन दोनों पर विचार करने की दृष्टि से 'मानस' में भगवान् शंकर का जो प्रसंग है, हम उसे ले सकते हैं। भगवान् शंकर का एक नाम 'कामारि' भी है। इससे तो यही लगता है कि वे काम के शत्रु हैं, विरोधी हैं, पर इसे जिस रूप में रखा गया वह बड़े महत्त्व का है।
भगवान् शंकर की जो कथा हम 'मानस' के प्रारंभ में पढ़ते हैं उसमें 'काम' के साथ-साथ तारकासुर का भी नाम जुड़ा हुआ है। वह एक भोगवादी दैत्य है। 'भोग और अमरत्व' ये दोनों उसके जीवन के अभीष्ट हैं। भोग की प्राप्ति के लिये वह देवताओं पर नाना प्रकार के अत्याचार करता है। भोग की अभिलाषा देवताओं के मन में भी दिखायी देती है। अत: वृत्ति चाहे आसुरी हो या दैवी, भोग की लालसा दोनों में ही विद्यमान होती है। देवता और दैत्य दोनों ही यह मानकर चलते हैं कि संसार की वस्तुओं और विषयों में सुख है।
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