नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बोला, “रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय।
पर कौन रहेगा यहां? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं। ”
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश।
वोला, “शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा।
मत कवच और कुण्डलविहीन, इस तनको मृदुलकमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो।”
“अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा।”
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुंकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके।
संभलें जबतक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विद्ध, मूर्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य संगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, “अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ?”
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुद्ध;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युद्ध।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार।
इस ओर कर्ण मार्त्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान।
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युद्ध।
है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भरगया विमानोंसे तिलतिल,कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन।
थी रुकी दिशाकी सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ,नीचे नदियोंका अचल नीर।
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