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रश्मिरथी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9840
आईएसबीएन :9781613012611

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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है

 

3


इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषंग,
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भुजंग,
कहता कि ''कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं।”

''बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढं शरव्य तक जाने दे,
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे।
कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूंगा,
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूंगा।''

राधेय जरा हंसकर बोला, ''रे कुटिल! बात क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है।
उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युद्ध करूं?
जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुद्ध करूं?''

''तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा,
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या मुख दिखलाऊंगा?
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया ;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया।''

''हे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी।
ये नर-भुजंग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं।''

''ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े।
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढ़े।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है।''

''अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाड़ूं मैं?
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलंक अपने पर नहीं लगा सकता।''

काकोदार को कर विदा कर्ण, फिर बढ़ा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झंकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान।
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को।

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