नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण?
मृत्तिका छोड़ ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान कमण्डल में सोपान बनाने को,
ये चार फूल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को।
ये चार फूल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फूल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के।
ये चार फूल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फूल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी। ”
“समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का है,
ये खेल जीत से बड़े क़िसी मकसद के दीवानों का है।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खड़े ज़ो जीते हैं। ”
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला “प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पड़ती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पड़ती है। ”
“क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विद्युत् शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है।
राधेय ! काल यह पहुंच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्णकरो।”
पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ।
वोला “विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिसलिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया।
“जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्यसे आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें। ”
“पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है।”
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