धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
‘रामायण’ में दशरथ हैं, पर दशरथ को अपने जीवन में अभाव की अनुभूति होती है और उनको पूर्णता की अनुभूति कब होती है? जब रामनवमी आयी, दस ने जब नौ का आश्रय लिया, नवधाभक्ति का आश्रय लिया, लिखा हुआ है कि –
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहुँ ब्रह्मानन्द समाना।।
परम प्रेम मन पुलक सरीरा।
चाहत उठन करत मति धीरा।। 1/192/3-4
यदि रावण तुलना करता तो समझकर करता कि नौ इसलिए आये हैं कि मेरे जीवन में भक्ति की पूर्णता आये। भगवान् शंकर विश्वास के देवता हैं तो ब्रह्मा विचार के देवता हैं। हमारे जीवन में विश्वास और विचार का उदय होना चाहिए, पर रावण तो अपने को उन दोनों से अधिक बुद्धिमान् मानता है। जब ब्रह्मा और शंकर विभीषण के समक्ष खड़े हुए थे तो विभीषण को लगा कि यह तो नव का अंक सामने दिखाई दे रहा है। उन्होंने पूछा कि पुत्र विभीषण! तुम क्या चाहते हो? विभीषण ने क्या माँगा?
गए विभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहि मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।। 1/177
भगवान् के चरणों में मेरी भक्ति हो, मेरी प्रीति हो, आप ऐसा वरदान दीजिए। मानो विभीषण ने अपने विवेक का सदुपयोग किया और भगवान् के चरणों में प्रेम का वरदान माँगा, पर विभीषण साधक वृत्ति वाले हैं, वे भजन और साधन तो करते हैं, पर रावण और कुम्भकर्ण का साथ वे नहीं छोड़ते। ऐसे अनेक लोग होते हैं। साधक की समस्या यही है कि उसका लक्ष्य तो भगवत्प्राप्ति है, परन्तु वह कुछ ऐसी परिस्थितियों से घिरा हुआ है कि वह रावण और कुम्भकर्ण का साथ नहीं छोड़ पाता। विभीषण की जो समस्या थी, वही सारे साधकों की समस्या है, सारे जीवों की समस्या है और वह समस्या यह है कि हम न चाहते हुए भी पाप कर बैठते हैं जैसा ‘गीता’ मे कहा गया है कि –
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः। -गीता
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