धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
भरतजी, लक्ष्मणजी, हनुमान् जी या अन्य किसी भक्त का नाम नहीं लिया, बल्कि कहा कि कामी को सौन्दर्य के प्रति जैसा आकर्षण होता है, लोभी के मन में धन के प्रति जैसा आकर्षण होता है, उसी प्रकार मुझे आपके प्रति आकर्षण हो। मानो इसका अभिप्राय यह है कि काम और लोभ की वृत्तियों को भी अगर मोड़ दिया जाय, तब भी कल्याण सम्भव है। निष्कामता और त्याग की वृत्ति तो सार्थक है ही, पर लोभ और काम की वृत्ति भी मुड़ करके ईश्वर की प्राप्ति कराने वाली बन सकती है, इसकी ओर संकेत है। रावण को शूर्पनखा ने समाचार दिया कि चौदह हजार राक्षसों को राम ने अकेले ही मार दिया। रावण सोचने लगा कि इनको मारने वाला कौन हो सकता है? निर्णय हुआ कि –
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवन्ता। 3/22/2
भगवान् को छोड़कर उन्हें कौन मार सकता है? विवेक ने तुरन्त कहा कि जब भगवान् का अवतार हो गया है तो भगवान् का भजन करो, लेकिन रावण ने बहाना बनाया –
होइहि भजनु न तामस देहा। 3/22/5
जीवन की इतनी बड़ी-बड़ी कठिन यात्रा, लड़ाई तो वह लड़ सकता है, पर कहता है कि भई! हमसे भजन न होगा। इसका अर्थ है कि वस्तुतः रावण अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग करता है। ऐसा कोई व्यक्ति ही नहीं कि जो भगवत्प्राप्ति का अधिकारी न हो। जब ब्रह्माजी और शंकरजी वरदान देने के लिए आकर खड़े हुए तो रावण ने सोचा कि ये दो क्यों आये हैं? मैंने तो दो को अपनी तपस्या के द्वारा नहीं बुलाया। रावण को लगा कि शायद सावधानी के लिए दोनों आये होंगे कि यह राक्षस ऐसा कुछ न माँग ले और शंकरजी ठगे न जायँ, जैसा कि वे कभी-कभी ठगे जाते हैं। ब्रह्माजी शायद इसलिए साथ में आये हुए हैं कि शंकरजी कभी-कभी भूले-भटके अनुचित वरदान दे देते हैं, यदि शंकरजी ऐसा-वैसा कुछ देने लगेंगे तो मैं सँभाल लूँगा, लेकिन रावण ने सोचा कि ये दोनों मिलकर भी क्या कर लेंगे? ब्रह्मा के चार सिर और शंकरजी के पाँच सिर हैं, दोनों मिलकर भी नौ सिर ही हुए, लेकिन मेरे तो अकेले ही दस सिर हैं। मुझसे एक सिर कम ही है। यह नौ और दस क्या है? यही तो रावण समझ नहीं पाया। अगर रावण यह समझ पाता कि दस की सार्थकता नौ में है तो कल्याण हो जाता।
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