धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
शरीर तो कभी अमर होता नहीं, रावण ने अमर होने की चेष्टा में यह कहकर कि मनुष्य और बन्दर को छोड़कर हम किसी के मारे न मरें तो रावण की यह गणित थी कि मनुष्य और बन्दर तो हमारे भोजन हैं, भोजन से तो शरीर में शक्ति बढ़ती है। इससे शंकरजी को हँसी आयी कि भोजन से लोग मरते नहीं है क्या? स्वास्थ्य विषयक सिद्धान्त है कि भोजन न करने से जितने लोग मरते हैं उससे कहीं अधिक लोग ज्यादा भोजन करने से मरते हैं। यही मोहग्रस्तता है। रावण इतना बड़ा पण्डित है, इतने शास्त्र उसने पढ़े और देखा कि आज तक कोई अमर नहीं हो पाया, दैत्यों का इतिहास भी उसके सामने था, राक्षसों का इतिहास भी उसके सामने था, लेकिन उसने सोचा भले ही कोई और न हुआ हो, पर मैं तो हो ही जाऊँगा, यही रावणत्व है। जब हम यह मानकर चलते हैं कि जो अमरता विश्व के इतिहास में सम्भव नहीं हुई, उस अमरता को हम पा लेंगे तो यह आश्चर्य है। यही आश्चर्य ‘महाभारत’ में बताया गया। युधिष्ठिर ने यक्ष से यही कहा था कि कितना आश्चर्य है कि –
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।। - महाभारत
हम देख रहे हैं कि हमारे सामने लोग मरते चले आ रहे हैं, लेकिन जो बचे हुए हैं उनको देखकर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे भी मरेंगे। रावण की भूल केवल रावण की ही भूल थोड़ी है! यह भूल तो न जाने कितने लोगों के जीवन मे है। इसके लिए क्या कहा जाय? रावण की यह वृत्ति कितनी व्यापक है? हमारे जीवन में वस्तुतः सब कुछ है, ईश्वर को पाने के लिए जो कुछ चाहिए, उसमें ऐसी कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो न हो। शास्त्रों ने बहुत बढ़िया बात कही कि निष्काम होना चाहिए, त्यागी होना चाहिए। निष्कामता और त्याग से भगवान् मिलेंगे, यह तो ठीक है, लेकिन गोस्वामीजी उलट कर दूसरी बात भी कहते हैं। भगवान् ने उनसे पूछा कि तुमने मेरा चरित्र लिखा है, मैं तुमको क्या दूँ? तो उन्होंने यही कहा कि मुझे अपने चरणों में प्रेम दीजिए! पूछा कि कैसा प्रेम चाहते हो? भरतजी की तरह, लक्ष्मणजी की तरह, कि हनुमान् जी की तरह? गोस्वामीजी ने कहा कि प्रभो! कैसे कहूँ? क्या उनमें से किसी के चरित्र से मेरी तुलना हो सकती है! उनके आचरण से मेरी तुलना हो सकती है क्या? फिर कैसे प्रेम पाओगे? गोस्वामीजी ने दोहा लिखा –
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।। - 7/130 ख
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