धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पिय ते मिलौ भभूत बनि, ससि शेखर के गात।
इहइ बिचारि अँगार को, चाहि चकोर चबात।।
भरत यशचन्द्र ज्ञानी के कुमुद-हृदय को विकसित कर, उसके हृदय में ही अव्यक्त सौरभ-रूप प्रभु को व्यक्त कर देता है। प्रेम केवल सामीप्य में ही नहीं, दूरी में भी होता है। दूरी तो लोगों की दृष्टि में है। पर वह जो समाया हुआ है हमारे मन-प्राण में, हमसे दूर कहाँ? ननिहाल में भी श्री भरत थे लोक दृष्टि में अवध से दूर, किन्तु वे तो अपने से कभी विलग न होने वाले प्रभु के समीप ही थे – अति समीप। उनका यह चरित्र ज्ञानी भक्तों का आदर्श है। ‘यशचन्द्र’ से संकुचित हृदय-कलिका खिल उठी और वियोग में संयोग, शान्ति, तृप्ति और आनन्द की अनुभूति होने लगी।
चकोर ने देखा और एकटक देखता ही रह गया। उसने भी इस यशचन्द्र को अपना आदर्श माना। समझा गया कि वहाँ तक पहुँचने पर ही सच्चा मिलन हो सकेगा। क्योंकि ‘पूरण राम सप्रेम पियूषा’ पर क्या करना होगा इसके लिए? अचानक दीख पड़ा कि सर्वत्याग किए बिना प्रिय से मिलन नहीं हो सकता। भरत-चरित्र सर्वत्याग की शिक्षा देता है। राज्य, सुख, भोग, शरीर, प्राण, सबकी बाजी लगा देना होगा। और वह एकटक देखता हुआ सीख रहा है अपना पाठ। वह ‘यशचन्द्र’ दोनों को सुखद है – कुमुद हो अथवा चकोर। एक के हृदय में अमृत के सिंचन से प्रभु पराग प्रस्फुटन कर रहा है, तो दूसरे को दृढ़ता और निष्ठा का दान।
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